सौ साल जीने की कला

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सौ साल जीने की कला

आज हम बात करने वाले हैं सौ साल जीने की कला के विषय में, आज शायद ही हमारे भारत देश अथवा संपूर्ण देश विदेश में बहुत ही कम लोग रह गए हैं जो सौ साल जीने की कामना करते हैं अथवा इच्छा रखते हैं इसी भाव  को ध्यान में रखते हुए सौ साल अथवा उससे भी अधिक जीने की कला के सन्दर्भ में कुछ अहम् भूमिका प्रस्तुत है :-

आरोग्यता से शतायु

मनुष्य जीवन का उद्देश्य अपने को सुखमय तथा शक्ति सम्पन्न बनाना है। इस उद्देश्य की पूर्ति भी तभी हो सकती है जब कि हमारे शरीर निरोग तथा सबल हों। जिस शरीर की महत्ता का विद्वज्जनों ने निम्न शब्दों में गुणानुवाद गाया है-

आयतनं सर्व विद्यानां मूलं धर्मार्थकाममोक्षाणाम्।

 प्रेयः किमन्यत् शरीरमजरामरं विहायैकम्॥

अर्थात्-जो शरीर सम्पूर्ण विद्याओं तथा शुभ गुणों का आधार है, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति का मूल कारण है, उस शरीर की सदा अजर अर्थात् युवावस्था और अमर अर्थात् चिरायु अवस्था से अधिक प्रिय वस्तु संसार में मनुष्यों के लिये और क्या होगी? इसीलिये शरीर-शास्त्र के आचार्यों ने कहा है- ‘धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्॥’ अर्थात्- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जो कि मानव जीवन रूपी कल्प वृक्ष के चार मधुर फल हैं,

उनका यदि कोई श्रेष्ठ तथा मुख्य साधन है तो वह शारीरिक आरोग्यता ही है, क्योंकि यदि हमारा शरीर स्वस्थ और बलवान है तो हम अपने पुरुषार्थ से धन भी कमा सकते हैं। उस धन द्वारा सांसारिक सुखों का उपभोग भी कर सकते हैं, और परोपकार, देश, जाति तथा धर्म की सेवा तथा आत्मचिन्तन और प्रभु-भक्ति आदि शुभ कार्य भी कर सकते हैं। इसीलिये महापुरुषों ने कहा है-

“शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् “

अर्थात्-अपने जीवन को धार्मिक तथा सुखमय बनाने का सबसे प्रथम और मुख्य साधन स्वस्थ तथा बलवान् शरीर ही है। इसीलिये हमारे आचार्यों ने शरीर स्वास्थ्य पर बहुत बल दिया है। महर्षि चरक तो यहां तक लिखते हैं-

सर्वमन्यत् परित्यज्य शरीरमनुपालयेत्।

तदभावे हि भावानां सर्वाभावः शरीरिणाम् ॥

अर्थात् मनुष्य को अन्य सब काम छोड़कर पहले अपने शरीर की सम्भाल करनी चाहिये, क्योंकि अन्य सब धन, सम्पत्ति आदि पदार्थों तथा सुख साधनों के होने पर भी शारीरिक स्वास्थ्य के बिना वह सब नहीं के समान हैं। इसीलिये विश्व की प्राचीनतम पुस्तक वेद में मनुष्य के लिए आदेश है-

स्वे क्षेत्रे अनमीवा विराज ॥

अथर्व० 11/1/22

हे मनुष्य! तू अपने शरीररूपी क्षेत्र में रोगरहित होकर रह ।

संसार में जितने महापुरुष हुए हैं, उन्होंने भी शारीरिक बल पर बहुत जोर दिया है। आधुनिक युग के महापुरुष महर्षि दयानन्द युवकों को शारीरिक उन्नति का उपदेश देते हुए कहते हैं- बलवान् मनुष्य सदा सुखी और प्रसन्न रहता है। निर्बल मनुष्य का जीवन साररहित, रोगों का घर और नर्क – धाम बना रहता है। अतः अपने शरीर को बलवान बनाने के लिये खान-पान के समान व्यायाम भी अवश्य करना चाहिए। (श्रीमद्दयानन्द प्रकाश)

‘मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की’ वाली कहावत हम पर ही चरितार्थ होती है। शरीर के निर्बल तथा रोग- ग्रस्त होने के ही कारण आज हम पूर्णायु को न प्राप्त कर अल्पायु में ही काल के ग्रास बन रहे हैं। जहाँ हमारे पूर्वज महर्षियों ने कहा है-” शतायुर्वै पुरुषः” अर्थात्-मनुष्य निश्चय से सौ वर्ष की आयु वाला है। इतना ही नहीं मनु तो यहाँ तक लिखते हैं-

अरोगाः सर्वसिद्धार्थाश्चतुर्वर्ष शतायुषः ।

कृतमेतादिषु ह्येषामायुर्हसति पादशः ॥

अर्थात्- – सतयुग में मनुष्य सर्वथा नीरोग तथा सव प्रकार से पूर्णकाम थे तथा उनकी आयु 600 वर्ष की थी। त्रेता में 300 वर्ष थी, द्वापर में 200 वर्ष थी तथा कलियुग में 100 वर्ष की ही रह गई है। किन्तु आज दुर्भाग्य से हमारी औसत आयु तो केवल 25 वर्ष की ही है। भीष्म पितामह जैसे महापुरुषों का दो-दो सौ वर्ष तक जीना आज हमारे लिये एक असम्भव घटना हो गई है। गुरु द्रोणाचार्य के लिये तो महाभारत में यहाँ तक लिखा है:-

आकर्ण पलितः श्यामो वयसा अशीति पञ्चकः ।

संख्ये पर्यचरद् द्रोणो वृद्धः षोडषवर्षवत्॥

अर्थात्-400 वर्ष का वृद्ध द्रोण महाभारत युद्ध में 16 वर्ष के युवक के समान युद्ध कर रहा था। अतः दीर्घायु प्राप्त करने के लिये भी अपने शरीर को स्वस्थ तथा बलवान् बनाना हमारे लिये परम आवश्यक है। मन्त्र में एक पद आया है- ‘विश्वमायुर्व्यश्नुतम्’ अर्थात् समस्त आयु को तुम दोनों भोगो। वेद ने मनुष्य की सामान्य आयु सौ वर्ष निर्धारित की है। सौ वर्ष की आयु को प्राप्त करना मानो अमृत को प्राप्त करना है। शतपथ ब्राह्मणकार ने कहा-

एतद् वै मनुष्यस्यामृतत्वं यत् सर्वमायुरेति ।

य एष शतं वर्षाणि यो वा भूयांसि जीवति स हैवेदम् हैवेदम् अमृतमाप्नोति ।।

अर्थात्-निश्चय ही यह मनुष्य का अमरत्व प्राप्त करना है, जो वह सम्पूर्ण आयु को प्राप्त करता है। जो सौ वर्ष जीता है अथवा इससे अधिक, वह निश्चय से अमृत को प्राप्त करता है। सौ वर्ष की आयु प्राप्त करने के लिये शारीरिक अवस्था सुदृढ़ होनी चाहिये। आयु तो शरीर ही प्राप्त करता है, आत्मा तो आयु प्राप्त करती नहीं। शरीर जितना सुदृढ़ होगा, उतना ही मनुष्य दीर्घ आयु को प्राप्त करेगा।

‘शरीरमाद्यं खलुधर्मसाधनम्।’

निश्चित रूप से शरीर धर्म का साधन है। हमारी बौद्धिक, हमारी आर्थिक उन्नति केवल शारीरिक उन्नति पर ही निर्भर है। वैयक्तिक, पारिवारिक और राष्ट्रीय सभी प्रकार की उन्नतियों का आधार शरीर ही तो है। इहलौकिक हो अथवा पारलौकिक सभी प्रकार का विकास शरीर के आधार पर ही सम्भव है।

जप, तप, योगाभ्यास, परोपकार आदि सभी में हम सुन्दर स्वास्थ्य के कारण ही प्रवृत्त हो सकते हैं। जिस व्यक्ति का जीवन स्वास्थ्य सुन्दर नहीं वह अपने लिए भी भारस्वरूप है और दूसरों के लिये भी । गृहस्थ जीवन का सुख तो शारीरिक स्वास्थ्य के बिना कदाचित् प्राप्त नहीं किया जा सकता।

भला उस व्यक्ति का क्या जीवन है, जो सदा दवाइयों की शीशियाँ लेकर चिकित्सकों के औषधालयों की परिक्रमा करता है, वह ऋतु के किसी भी प्रकोप को सहन नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्ति को जीवन में कुछ भी सरसता प्राप्त नहीं होती। अतः शरीर को सबल एवं पुष्ट बनाना हमारा परम धर्म है।

विज्ञान और धर्म

अभिवादन से आयु

आचार्य यम और नचिकेता के परस्पर का संवाद अर्थात् आचार्य और शिष्य का व्यवहार बहुत उच्चकोटि का था। वैदिक संस्कृति में आचार्य यम का व्यवहार अनुकरणीय है, वेद के आधार पर आधारित है, हृदयस्पर्शी, तलस्पर्शी है आचार्य यम कहते हैं-

नमस्तेऽस्तु ब्रह्मन्स्वस्तिमेऽस्तु ॥ कठोपनिषद 9

हे नचिकेता ब्रह्मन्! आपको मेरा नमस्कार स्वीकार हो, जिससे मेरा कल्याण होवे ।

महाभारत में भी योगेश्वर कृष्ण ने ऐसा ही अनु- करणीय कार्य किया है। जब वे अपने से बड़ों का इस प्रकार आदर करते थे-

कृष्णोऽहमस्मीति निपीड्य

पादौ युधिष्ठिरस्याजमीढस्य राज्ञः ॥

आदि पर्व 190/20

 

हे युधिष्ठिर! मैं कृष्ण हूँ, आप के दोनों पैरों में झुककर अभिवादन करता हूँ। जो व्यक्ति नित्य प्रतिदिन अपना कल्याण चाहते हों वे महर्षि मनु के उपदेश को अपने जीवन में चरितार्थ करें। महर्षि मनु ने ठीक ही कहा है कि-

अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः ।

चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्यायशो बलम्॥

मनु० 2.122

जो व्यक्ति सदैव वृद्धों अर्थात् बड़े लोगों को प्रतिदिन अभिवादन एवं सेवा करते हैं। उनको आयु, विद्या, यश और बल चार चीजें प्राप्त होती हैं। मनुष्य को विद्या, यश, बल मिल जाता है। परन्तु पूर्ण आयु बहुत न्यून लोगों को प्राप्त होती है। जैसे- आचार्य शंकर, महर्षि दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी इत्यादि महापुरुष विद्या, और यश बल में काफी बढ़चढ़ कर आगे थे, परन्तु पूर्ण आयु किसी को भी प्राप्त नहीं हुई।

अतः चारों वेदों में, महर्षि मनु के ग्रन्थों में सबसे पहले आयु की कामना की गई है। इसीलिये अथर्ववेद में तो आयु के साथ प्राण, कीर्ति, प्रजा और पशु की भी कामना की गई है।

उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवान् यज्ञेन बोधय ।

आयुः प्राणं प्रजां पशून् कीर्तिं यजमानं च वर्धय ॥

अथर्व० 19/63/1

उठ खड़ा हो, जाग जा, ज्ञानी, यज्ञ द्वारा अपने अन्दर देवभावों को जगा ले। अपनी आयु को, प्राण को, प्रजा को, कीर्ति को बढ़ा। पशुओं को बढ़ा, यज्ञ करने वाले को बढ़ा। विशेष-लाखों मनुष्य, बच्चे, असमय में घटना-दुर्घटना से काल कवलित हो जाते हैं। इससे बचने का प्रयास करना चाहिये।

सौ-साल-जीने-की-कला
सौ-साल-जीने-की-कला

प्रातः जागरण से आयु

 

आयुर्वेद के ग्रन्थ में लिखा है कि-

ब्राह्मे मुहूर्त्ते उत्तिष्ठेत्स्वस्थो रक्षार्थमायुषः ।

शरीरचिन्तां निर्वृत्य कृत शौच विधिस्ततः॥

अष्टा०सू० 2/1

प्रत्येक मनुष्य आयु की रक्षा के लिए ब्रह्ममुहूर्त में उठे और शरीर की चिन्ताओं को छोड़कर शौच-स्नानादि करके स्वस्थ चित्त होकर प्रभु स्मरण आदि नित्यकर्मों को करे ।

ब्रह्ममुहूर्त्त में उठने से लाभ

 

वर्णं कीर्तिं मतिं लक्ष्मीं स्वास्थ्यमायुश्च विन्दति ।

ब्राह्ममुहूर्ते संजाग्राच्छ्रियं वा पङ्कजं यथा ॥

भै० सा० 93

अर्थात्-प्रातःकाल उठने से सौन्दर्य, यश, बुद्धि, धन धान्य, स्वास्थ्य और दीर्घायु की प्राप्ति होती है। शरीर कमल के समान खिल जाता है। अर्थात्-जो मनुष्य अपने को स्वस्थ तथा बलवान् बनाना चाहता है, और जो अपनी आयु को सुखमय और दीर्घजीवी बनाना चाहता है, उसे प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में अवश्य उठना चाहिये। किसी अंग्रेज कवि ने केसा सुन्दर कहा है-

“Early to bed and early to rise, Makes a man Healthy, Wealthy and wise.”

अर्थात्–जो व्यक्ति प्रात:काल ब्रह्ममुहूर्त में उठता है, वह स्वस्थ, धनवान् व बुद्धिमान् होता है। पुरानी कहावत भी है-

‘पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में हो माया।’

 

ब्राह्ममुहूर्त में सोने से हानि

 

ब्राह्ममुहूर्ते या निद्र सा पुण्यक्षयकारिणी ॥ ब्रह्ममुहूर्त में सोना सब पुण्यों अर्थात् शुभ कार्यों का क्षय (नाश) करने वाला होता है। सोनेवाले का सूर्य द्वारा तेज अपहरण वेद में कहा गया है-

उद्यन्त्सूर्य इव सुप्तानां द्विषतां वर्च आददे ॥

अथर्व० 7/13/2

जो सूर्योदय के पश्चात् अथवा दिन में सोता है, उस सोनेवाले के तेज को उदय होता हुआ सूर्य हर लेता है। जैसे अपने शत्रुओं के तेज को एक तेजस्वी पुरुष हर लेता है। हिन्दी के कवि ने भी ब्रह्ममुहूर्त पर स्वर आलाप किया है-

उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है।

जो सोवत है सो खोवत है, जो जागत है सो पावत है।

विमर्श-वेदादि, मनुस्मृति, वाल्मिकियरामायण, महाभारत, और गोभिल गृह्य इत्यादि वैदिक ग्रन्थों में ब्रह्ममुहूर्त में उठने का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। यहाँ तक कि महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी स्वग्रन्थों में प्रात:काल जागरण पर विशेष रूप से प्रकाश डाला है। ऋषि-मुनियों के पदचिन्हों पर चलकर आर्य समाज के सैकड़ों गुरुकुल के ब्रह्मचारी ब्रह्ममुहूर्त में उठकर अपना अहोभाग्य समझते हैं।

इसलिये स्वस्थ पुरुष अपनी आयु की रक्षा के लिये प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में उठे। ऋषि दयानन्द सरस्वती ने भी संस्कार विधि में लिखा है-सदा स्त्री-पुरुष दस बजे शयन और रात्रि के चतुर्थ प्रहर वा चार बजे उठकर प्रथम हृदय में परमेश्वर का चिन्तन करके धर्म-अर्थ का विचार करें।

उष:पान से लाभ और आयु

 

उष:पान के अनेक लाभ आयुर्वेद के ग्रन्थों में लिखे हैं। धन्वन्तरि संहिता में लिखा है-

सवितुः समुदयकाले प्रसृतिः सलिलस्य पिबेदष्टौ ।

रोगजरापरिमुक्तो जीवेद्वत्सरशतं साग्रम्॥

 

जो मनुष्य सूर्योदय से पूर्व आठ अञ्जली जल पीता है वह रोग और बुढ़ापे से मुक्त होकर सदैव स्वस्थ और युवा रहता है। उसकी आयु सौ वर्ष से भी अधिक होती है। भावप्रकाश में लिखा है-

अर्श: शोथग्रहण्यो ज्वरजठरजराकोष्ठमेदोविकाराः ।

मूत्राघातास्त्रपित्तश्रवणगलशिरः श्रोणिशूलाक्षिरोगाः ॥

ये चान्ये वातपित्तक्षतजकृता व्याधयः सन्ति जन्तोः । तांस्तानभ्यासयोगादपहरति पयः पीतमन्ते निशायाः ॥

 

बवासीर, सूजन, संग्रहणी, ज्वर, पेट के अन्य रोग, बुढ़ापा, कुष्ठ, मेदरोग अर्थात् बहुत मोटा होना, पेशाब का रुकना, रक्तपित्त, आँख, कान, नासिका, सिर, कमर, गले इत्यादि के सब शूल (पीड़ा) तथा वात, पित्त, कफ और व्रण (फोड़े) इत्यादि होने वाले अन्य सभी रोग उषः पान से दूर होते हैं। इसी प्रकार एक अन्य स्थान पर लिखा है-

पातव्यं नासया नीरं प्रसुतित्रयमात्रया ।

व्यङ्गवलिपलितघ्नं पीनसवैस्वर्यकासशोथहरम्।

रजनीक्षयेऽम्बुनस्यं रसायनं दृष्टिसञ्जनम्॥

 

नासिका द्वारा प्रतिदिन शुद्ध जल को तीन घूँट वा अञ्जलि प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में पीना चाहिये क्योंकि इससे विकलाङ्ग, झुरियाँ पड़ना, बुढ़ापा, बालों का सफेद होना, पीनस नाक का सड़ना वा नासिका में कीड़े पड़ना आदि नासिका रोग, प्रतिश्याय (जुकाम), स्वर का बिगड़ना, विरसता, कास व खाँसी, सूजनादि रोग नष्ट हो जाते हैं। और बुढ़ापा दूर होकर पुनः युवावस्था प्राप्त होती है।

आयु की वृद्धि अर्थात् दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है। चक्षु सम्बन्धी सब रोग दूर होते है। नेत्रज्योति जल-नेति करने से खूब बढ़ती है। अतः ब्रह्मचारी तथा प्रत्येक स्वस्थ स्त्री वा पुरुष को प्रतिदिन मुख वा नासिका द्वारा उष:पान का अमृत पान करके अमूल्य लाभ उठाना चाहिए।

प्रातः काल उठकर पाव या आधापाव के लगभग

जल का नासिका द्वारा पान करना, शरीर स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त लाभकारी है। इसे ‘उष:पान’ कहते हैं। उष:पान की महिमा योग और आयुर्वेद दोनों में मुक्त कंठ से गायी गई है। जैसे कि आयुर्वेद में लिखा है-

स विगतघननिशीथे प्रातरुत्थाय नित्यं, पिबति खलु नरो यो घ्राणरन्ध्रेण वारि ।

भवति मतिपूर्णश्चक्षुषा तार्क्ष्यतुल्यो, वलिपलितविहीनः सर्वरोगैर्विमुक्तः ॥

अर्थात्-जो मनुष्य प्रात: काल घना अंधेरा दूर होने पर उठकर नासिका द्वारा जलपान करता है। वह पूर्ण बुद्धिमान तथा नेत्र ज्योति में गरुड के समान हो जाता है। उसके बाल जल्दी सफेद नहीं होते, तथा सारे रोगों से सदा मुक्त रहता है। इसी प्रकार एक अन्य स्थान पर लिखा है- सर्व रोग विनाशाय निशांते तु पिबेज्जलम्।

अर्थात्-सब रोगों को नष्ट करने के लिए रात्रि के अन्त में अर्थात् प्रातःकाल जल पिये। इस सम्बन्ध में संस्कृत की एक अन्य लोकोक्ति बहुत ही महत्व की है-

भोजनान्ते पिबेत् तक्रं, दिनान्ते च पिबेत् पयः ।

निशान्ते च पिबेत् वारि, सर्वव्याधिविनाशनम्॥

अर्थात्-यदि मनुष्य भोजन के पश्चात् मठा (छाछ), दिन के अन्त में अर्थात् रात्रि में दूध तथा रात्रि के अन्त अर्थात् प्रातःकाल जल पिये, तो उसके सब रोग नष्ट हो जाते हैं। प्रातः निरन्तर उष:पान करने से मल विसर्जन भी खुल कर होता है, कब्जी दूर होती है। शरीर में एक नई स्फूर्ति, चेतना तथा आनन्द का अनुभव होने लगता है। यदि उष:पान से पूर्व योग की ‘जलनेती’ क्रिया कर ली जाय तो और भी अधिक लाभ होता है।

विभिन्न रोगों की निवृत्ति के लिए उष:पान बहुत ही हितकर है जैसे मलावरोध (कब्ज), मूत्र की कमी, रक्तविकार, रक्तपित्त, वृक्करोग, सिरदर्द, पुराना तथा नया जुकाम, हाथ पैरों की जलन, पेशाब में जलन, नेत्रों की कमजोरी, पित्त प्रकोप, नकसीर, असमय में बालों का पकना आदि। अतः इन रोगों से मुक्त होने के अभिलाषी को प्रातःकाल अवश्य योग की जलनेती तथा उष:पान अथवा केवल उष:पान अवश्य करना चाहिए।

विमर्श-आजकल सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमान लोग रात में तांबे के पात्र में जल रख लेते हैं, प्रातःकाल उठते ही जल पान करते हैं।

शौच ‘पवित्रता’ से आयु

 

आयुष्यमुषसि प्रोक्तं मलादीनां विसर्जनम्।

तदंत्रकूजनाध्मानोदरगौरववारणम्॥

(सुश्रुतः/चिकित्स/अ024)

प्रात:काल (उषःकाल) में मल-मूत्र के त्याग से आयु बढ़ती है और आँतों का गुड़गुड़ाना पेट का फूलना और भारीपन आदि रोग दूर होते हैं। जो प्रातःकाल शौच न जाकर देर से मल-मूत्र का त्याग करते हैं उनके पेट में मल भीतर-भीतर सड़कर अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त और विषैला हो जाता है। गुदा में कतरनी (केंची) से काटने के समान पीड़ा होने लगती है।

अपानवायु बिगड़ कर उसकी ऊर्ध्वगति हो जाती है। जिससे मल भी ऊपर को चढ़ने लगता है और वह फिर जठराग्नि में जाकर पचने लगता है। उससे सारे शरीर का रक्त दूषित हो जाता है। शौच भी खुलकर नहीं आता। पेट में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होकर भयंकर शूल (पीड़ाएँ) होने लगती हैं।

कभी कभी तो मुख से भी मल निकलने लगता हैं। इसी प्रकार वायु के अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इसीलिये शरीर-शास्त्रियों ने लिखा है-

रोगाः सर्वेऽपि जायते वेगोद्दीरणधारणैः।

अर्थात- वेगों की गति को धारण करने से शरीर में सब प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

व्यायाम करने से आयु

 

धनुर्वेद में लिखा है कि-

आयामो विविधोऽङ्गानां व्यायाम इति कीर्तितः ॥ धनुर्वेद

शरीर के विविध अङ्गों का आयाम अर्थात् फैलाव, विकास अथवा वृद्धि के लिये जो श्रम वाचेष्टा की जाती है उसे व्यायाम कहते हैं।

शरीर चेष्टा या चेष्टा स्थैर्यार्था बलवर्धिनी । देह व्यायाम संख्याता मात्रया तां समाचरेत्

(सुश्रुत०/सू०अ० 7/30

जो शरीर चेष्टा बल बढ़ाने के लिये और स्थिरता (दृढ़ता) के लिये की जाती है, उस चेष्टा का नाम शारीरिक व्यायाम है। इस व्यायाम को मात्रा पूर्वक नित्य प्रति सेवन करना चाहिये।

व्याख्या : शरीर को बलिष्ठ, कार्यक्षम, सुदृढ़, स्वस्थ, सुन्दर, स्थिर तथा चिरायु वाला बनाने के लिये जो भी शरीर के अङ्गप्रत्यङ्गों से प्रतिदिन नियमपूर्वक चेष्टायें परिश्रम वा उपाय किये जाते हैं, उनको व्यायाम कहते हैं।

महर्षि धन्वन्तरि ने सुश्रुत में लिखा है-

शरीरायास जननं कर्म व्यायाम संज्ञितम् ।

तत्कृत्वा तु सुखं देहं विमृद्नीयात्समन्ततः॥

चिकित्सा० अ० 24/38

शरीर को श्रमयुक्त करने को ही व्यायाम कहते हैं। व्यायाम करके मनुष्य अपने शरीर को चारों ओर से हल्का-हल्का मसले।

आयुर्वेद शास्त्र ने पुन: कहा है-

वयोबलशरीराणि देशकालाशनानि च।

समीक्ष्य कुर्याद् व्यायाममन्यथा रोगमाप्नुयात्॥

अर्थात् मनुष्य को अपनी आयु, बल, शारीरिक स्थिति, देश, काल तथा अपनी खुराक अर्थात् भोजन आदि को देखकर ही व्यायाम करना चाहिये। और यदि उपर्युक्त बातों का ध्यान न रखकर कोई व्यायाम करेगा तो वह अवश्य रोग से आक्रान्त होगा। तेल मालिश शरीर को स्वस्थ, बलवान् तथा नीरोग बनाने के लिए तेल की मालिश परमोपयोगी एवं अत्यावश्यक है। इससे शरीर में जीवन-शक्ति का संचार होता है।

शरीर में तेल लगाने से वह शीघ्र ही रोम कूपों द्वारा शरीर के भीतर पहुँच जाता है। मालिश करने से शरीर के अंग प्रत्यंग पुष्ट, बलवान्, सुन्दर, सुडौल तथा सुगठित बन जाते हैं। शरीर हर प्रकार के परिश्रम करने योग्य बन जाता है, वृद्धावस्था, शारीरिक-व्यथा तथा थकावट दूर होती है। निद्रा गहरी आती है। शरीर का रंग निखर कर स्वर्ण के समान चमकीला, तेजस्वी तथा सुन्दर बन जाता है।

नेत्रों की ज्योति बढ़ती है। शरीर की त्वचा नरम, लचकीली, चमकदार तथा चिकनी हो जाती है। फोड़ा – फुन्सी आदि चर्म-विकार नहीं होते। आयुर्वेद में लिखा है-

जलसिक्तस्य वर्धते यथा मूलेऽङकुरास्तरोः ।

तथा धातुविवृद्धिर्हि स्नेहसिक्तस्य जायते॥

अर्थात्-जैसे जल सींचने पर वृक्ष की जड़ें, पत्ते, टहनियाँ तथा अंकुर फैलते व बढ़ते हैं, उसी प्रकार तेल से सींचे हुए शरीर की सब धातुओं की वृद्धि होती है- वागभट्ट ने भी लिखा है।

अभ्यंगमाचरेन्नित्यं स जराश्रमवातहा।

अर्थात्- स्वास्थ्याभिलाषी को नित्य मालिश करनी चाहिये। क्योंकि मालिश से बुढ़ापा, थकावट तथा वात रोग दूर हो जाते हैं। अतः यदि आप पुनर्यौवन के लिये कोई वैज्ञानिक उपचार चाहते हैं, तो नित्य प्रति तेल की मालिश किया करें। दुबले और कमजोर मनुष्य को मोटा और बलवान, मोटे व बेडौल मनुष्य को अपनी ठीक अवस्था में लाने का मालिश ही एकमात्र सरल तथा सर्वोत्तम उपाय है। मालिश के लिये पीली सरसों तथा काले तिलों का तेल अधिक लाभदायक है।

मूर्तिपूजा या ईशउपासना

स्नान द्वारा आयु

किसी ने कहा है-

शतं विहाय भोक्तव्यं संहस्रं स्नानमाचरेत्।

लक्षं विहाय दातव्यं कोटिं त्यक्त्वा प्रभुं भजेत्॥

सौ काम छोड़कर भोजन करें और हजार काम छोड़कर स्नान करें। लाख काम छोड़कर दान करें और करोड़ काम छोड़कर प्रभु का भजन करना चाहिये। कहावत है कि- ‘मनुष्य खाकर पछताता है. स्नान करके कभी नहीं पछताता है।’ इसलिए शरीर को स्वच्छ, पवित्र व नीरोग रखने के लिये प्रतिदिन स्नान का करना परम आवश्यक है। स्नान करने से शरीर स्वच्छ हो जाता है। रोम छिद्र खुल जाते हैं।

रात्रि को निद्रा के समय जो शरीर में उष्णता तथा आलस्य बढ़ जाता है, अथवा दिन भर परिश्रम से जो शरीर और मस्तिष्क में गर्मी व थकावट आ जाती है, स्नान करने से यह सब दूर हो जाते हैं। जल वास्तव में बल, शक्ति, आरोग्यता आदि दैवी शक्तियों का भण्डार है। अतः स्नान, पान आदि में इसका यथायोग्य उपयोग करने से शरीर के सब रोगों और निर्बलताओं को दूर कर मनुष्य को अमृत अर्थात् दीर्घजीवी बना देता है। इसीलिये अथर्ववेद में कहा है-

‘अप्स्वन्तरममृतमप्सु भेषजम्’

अर्थात्-जल के अन्दर सब तरह के रोगों को दूर करने की औषधि तथा अमृत विद्यमान है। वेद तो यहाँ तक कहता है-

भिषग्भ्यो भिषक्तरा आपः ।

अर्थात् जल सम्पूर्ण औषधियों की परम औषधि है। आधुनिक वैज्ञानिकों का मत है कि जल आक्सीजन और हाइड्रोजन नामक गैसों से मिलकर बना है। जितना भी हम स्नान-पान आदि में शुद्ध शीतल जल का प्रयोग करेंगे, उतना ही हमें आक्सीजन अधिक मात्रा में मिलेगी। इसलिये प्रातः ठंडे जल से स्नान करना अपने अन्दर अमृत का संचार करना है। स्नान करने से जहाँ शारीरिक लाभ होते हैं,

वहाँ चित्त में भी शान्ति तथा सत्व-गुण की वृद्धि होते है जिससे ईश्वरोपासना, सत्संग, स्वाध्याय आदि में मन भली प्रकार लगता है। स्नान से शरीर में अपूर्व बल तथा शक्ति का संचार होता है। दूषित द्रव्य शरीर से बाहर निकल जाते हैं। स्नान से तेज, बल, आरोग्यता और स्फूर्ति की वृद्धि होती है। पाचन शक्ति तीव्र होती है। बुद्धिमानों का कहना है कि जो नित्य नियमपूर्वक स्नान करता है, उसे निम्न गुणों की अवश्य प्राप्ति होती है-

(1) रूप

(2) कान्ति

(3) तेज

(4) बल

(5) पवित्रता

(6) दीर्घ आयु

(7) आरोग्यता

(8) स्थिरता अर्थात् चंचलता का नाश

(9) स्वप्न की निवृत्ति

(10) यश

(11) कीर्ति और

(12) सूक्ष्म मेधा बुद्धि।

हमारे शरीर से जो पसीना निकलता हैं उसमें अधिक मात्रा में विष होता है। स्वेद के कारण त्वचा पर मैल जम जाता है जिससे स्वेद निकलना तथा बाहर से शुद्ध वायु का प्रवेश बंद हो जाता है। अतः पसीने के मल को दूर करने के लिये भी स्नान करना अत्यावश्यक है।

हृदय और फेफड़े आदि के कोमल अंग दृढ़ होते हैं। शरीर में आलस्य नहीं रहता। मन की मलिनता दूर होती है। चित्त सदा प्रसन्न रहता है। काम करने में उत्साह होता है। स्नान करने से भीतर की स्वाभाविक उष्णता भीतर ही रह जाने से जठराग्नि प्रदीप्त होती है। रक्त का प्रवाह ठीक होता है। वीर्य, आयु, शक्ति तथा पुरुषार्थ की वृद्धि होती है। ज्ञान तन्तुओं में जागृति तथा नव चैतन्य का संचार होता है। चरक ने स्नान के निम्न लाभ दर्शाये हैं।

पवित्रं वृषण्यमायुष्यं श्रमस्वेदमलापहम्।

शरीरबलसंधानं स्नानमोजस्करं परम् ॥

अर्थात्-स्नान पवित्रता को करने वाला, वीर्यवर्द्धक, दीर्घ आयु प्रदान करने वाला, थकावट और पसीना नाशक, मल को दूर करने वाला, बल बढ़ाने वाला और अत्यन्त ओज व तेज को प्रदान करने वाला है। अतः हमें प्रातः स्नान में कभी भी आलस्य नहीं करना चाहिए। स्नान करने से पूर्व सादे मोटे खुरदरे कपड़े को बार-बार भिगोकर उससे पांच दस मिनट तक नाभि के नीचे के भाग को अच्छी तरह मल लिया जाए तो बहुत ही उत्तम है।

कामवासना को शान्त करने के लिए शीतल जल का स्नान एक श्रेष्ठ साधन है। यह अनुभव सिद्ध और सर्वसम्मत सिद्धांत है। जाग्रत अवस्था में ही नहीं स्वप्न अवस्था में सताने वाले दुःस्वप्न तथा काम विकारों को भी स्नान शमन करता है। योगी याज्ञवल्क्य जी भी सत्य को इस प्रकार प्रकट करते हैं-

गुणाः सदा स्नानपरस्य साधोः, रूपं च तेजश्च बलञ्च शौचम्।

आयुष्यमारोग्यमलोलुपत्वम्, दुःस्वप्ननाशञ्च यशश्च मेधाम् ॥

हे सज्जनों! सदैव स्नान करने वाले मनुष्य को रूप, तेज, बल, पवित्रता आयुष्य, आरोग्यता, अलोलुपता, बुरे स्वप्नों का न आना, यश और मेधादि गुण प्राप्त होते हैं। ऊपर लिखे प्रमाणों से सिद्ध होता है कि स्नान सभी के लिये अत्यन्त लाभदायक होने से प्रतिदिन करना आवश्यक है। ब्रह्मचर्य के लिये विधिपूर्वक स्नान करना अमृत का घूँट भरना है। वेद के कोष निघण्टु में उदक (जल) के एकशत (सौ) नाम आये है।

इसमें ‘रेत: शुक्रम्।’ जो सब धातुओं के सार वीर्य के ही नाम हैं और इसी प्रकार ओज, तेज जो शुद्ध वीर्य वा उस से उत्पन्न हुई शक्ति के नाम हैं, ये निघण्टु में पढ़े हैं। ये भी जल के नाम हैं। इसी प्रकार अमृत भी जल का नाम लिखा है। इस से यही सिद्ध होता है कि यदि ब्रह्मचारी स्नानादि के द्वारा जल का उचित प्रयोग करता रहे तो जल वीर्यरक्षा में अमृत के समान सहायक है और यह ब्रह्मचारी को शुक्र (वीर्य) से परिपूरित करता हुआ ऊर्ध्वरेता, ओजस्वी, तेजस्वी बना देता है।

जल की विशेषता प्रकट करनेवाले और भी अनेक ‘सर्पिः, घृतम् क्षीरम्, अन्नम् भेषजम्, पवित्रम्, शुभम्, महायशः, स्व:’ आदि नाम भी इसके वही लिखे हैं। जिससे प्रकट होता है कि जल का सदुपयोग दूध, घी के समान हृष्ट-पुष्ट करने वाला है।

सौ-साल-जीने-की-कला
सौ-साल-जीने-की-कला

सन्ध्या से दीर्घायु

 

महर्षि मनु ने कहा है-

ऋषयो दीर्घ सन्ध्यत्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुयुः।

प्रज्ञां यशश्च कीर्तिं च ब्रहावर्चसमेव च॥

मनु० 9/94

ऋषियों ने दीर्घ जप करके अर्थात् लम्बे समय तक सन्ध्या की, उसी के अनुसार दीर्घायु प्राप्त की, बुद्धि और यश प्राप्त किया और मरने के पश्चात् अमर कीर्ति प्राप्त की, और इसी दीर्घकालीन जप से ब्रह्मतेज भी प्राप्त किया।

 

गायत्री के जप करने का स्थान

 

अपां समीपे नियतो नैत्यिकं विधिमास्थितः ।

सावित्रीमप्यधीयीत गत्वाऽरण्यं समाहितः ॥

अर्थ- जङ्गल में अर्थात् एकान्त देश में सावधान होकर जल के समीप स्थित होकर नित्यकर्म को करता हुआ सावित्री अर्थात गायत्री मन्त्र का उच्चारण, अर्थज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल चलन को करे, परन्तु यह जप मन से करना उत्तम है।

आचम्य प्रयतो नित्यमुभे सन्ध्ये समाहितः ।

शुचौ देशे जपञ्जप्यमुपासीत यथाविधि ॥

मनु० 4/222

मनुष्य प्रतिदिन दोनों सन्ध्यावेलाओं में शुद्ध स्थान पर बैठकर, आचमन करके एकाग्र होकर विधि- पूर्वक ओ३म् का अर्थ चिन्तनपूर्वक जप करता हुआ ईश्वरोपासना करे।

 

ओ३म् का स्मरण

ओं क्रतो स्मर

यजु० 40/15

अर्थात् हे जीव! तू ओ३म् का स्मरण कर। स्नान के पश्चात् सन्ध्या करके प्रभु का चिन्तन करना भी मनुष्य को अपनी दिनचर्या का एक मुख्य अंग बना लेना चाहिए। प्रभु-भक्ति आत्मिक भोजन तो है ही, किन्तु इससे शरीर भी स्वस्थ, बलवान् और नीरोग बनता है। उस सर्वशक्तिमान का एकाग्र चित्त होकर चिंतन करने से साधक को शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक शक्ति प्राप्त होगी, इसमें कुछ भी संदेह नहीं।

ईश्वर भक्ति के द्वारा जो मनुष्य को एक अलौकिक आनन्द और अद्भुत शक्ति प्राप्त होती है, उसका शरीर के ऊपर भी बहुत गहरा असर पड़ता है। शरीर की सब धातुओं उपधातुओं की विषमता दूर होकर उसमें समता व शक्ति का संचार होता है। संत महात्मा तथा योगी जनों के स्वस्थ, बलवान् और दीर्घजीवी होने का ईश्वर भक्ति ही एक मुख्य कारण है। महाभारत में लिखा है-

‘ऋषयः दीर्घसन्ध्यत्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुयुः।

अर्थात् ऋषियों ने दीर्घकाल तक संध्या अर्थात् ईश्वर भक्ति करने से ही दीर्घ आयु को प्राप्त किया है। संत कबीर ने भी ‘मैं तो अपने रिझाऊं’ अपने इस भजन में कहा है-

प्रभु का औषध खाऊं न बूटी खाऊं, न कोई वैद्य बुलाऊं।

एक ही वैद्य मिलो अविनाशी, वाही को नबज दिखाऊं ।

ईश्वर भक्ति जहाँ शारीरिक उन्नति के लिये आवश्यक है, वहाँ आत्म-कल्याण के लिए भी परम आवश्यक है। जिस प्रकार भोजन के बिना शरीर का काम नहीं चल सकता उसी प्रकार ईश्वर भक्ति के बिना आत्मा का काम भी नहीं चलता। सच पूछा जाय तो शरीर के लिए भोजन इतना आवश्यक नहीं, जितना आत्मा के लिए। ईश्वर भक्ति।

इसीलिए ईश्वर भक्ति को आत्मिक खुराक कहा गया है। ईश्वर भक्ति से ही अज्ञान तिमिर का नाश होकर आत्मा में ज्ञान ज्योति का प्रकाश होता है। ईश्वर भक्ति के बल से ही मनुष्य संसार में अपनी सब शुभ कामनाएँ पूर्ण कर सकता है, अतः आत्मकल्याणाभिलाषी जनों को प्रतिदिन प्रभु का चिंतन अवश्य करना चाहिए।

यदि हम प्रातः एक घण्टे तक एकाग्रचित्त होकर प्रभु की उपासना करें, एकमात्र प्रभु को छोड़कर दूसरा कोई भी विचार मन में न आने दें तो सब प्रकार की शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाएँ केवल प्रभु-भक्ति से ही दूर हो जायेंगी। आशा है स्वास्थ्य-प्रेमी सज्जन इस आदर्श दिनचर्या के अनुसार अपने जीवन को ढ़ाल कर, उसे सुखमय तथा आदर्श जीवन बनाने का प्रयास करेंगे।

 

प्राणायाम द्वारा आयु

 

प्राणायाम के विषय में मुनि पतञ्जलि योगदर्शन में लिखते हैं कि-

तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।

आसन योगाङ्ग के सिद्ध हो जाने पर श्वास-प्रश्वासों की गति का बन्द होना प्राणायाम है।

तैत्तिरीय ब्राह्मण में प्राण ही प्राणियों की आयु का कारण है, इस प्रकार वर्णन किया गया है।

प्राणं देवा अनुप्राणन्ति मनुष्याः पशवश्च ये ।

प्राणो हि भूतानामायुस्तस्मात्सर्वायुषमुच्यते॥

अर्थ-जो देव, मनुष्य और पशु हैं वे प्राणों के आधार पर ही जीवन धारण करते हैं। प्राण ही प्राणियों की आयु है, अतः प्राण ही को सम्पूर्ण आयु कहा गया है।

सर्वमेव त आयुर्यन्ति ये प्राणं ब्रह्मोपासते।

प्राणो हि भूतानामायुस्तस्मात्सर्वायुषमुच्यते॥

तैत्ति० ब्र० 3.12

जो प्राणरूपी ब्रह्म की साधना करते हैं, वे सम्पूर्ण आयु को प्राप्त होते हैं। प्राण ही प्राणियों की आयु है, अतः प्राण ही सम्पूर्ण आयु कहा गया है।

 

यज्ञोपवीत धारण से आयु

 

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।

आयुष्यमग्रयं प्रतिमुञ्च शुभ्रंयज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ॥

अर्थात्-यज्ञोपवीत परम पवित्र है, आदिकाल से यह प्रजापति के साथ रहा है, यह आयु को देने वाला है, बल का देने वाला है, तेज को देने वाला है इत्यादि ।

 

यज्ञानुष्ठान द्वारा आयु

 

आयुर्यज्ञेन कल्पतां प्राणो यज्ञेन कल्पतां चक्षुर्यज्ञेन कल्पतां श्रोत्रं यज्ञेन कल्पतां वाग्यज्ञेन कल्पतां मनो यज्ञेन कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पताम्।

यजु० 18/29

अर्थ-मेरी आयु यज्ञानुष्ठान से युक्त और समर्थ हो। मेरा प्राण, मेरे नेत्र, मेरे कान, मेरी वाणी, मेरा मन, और मेरा आत्मा यज्ञ से युक्त तथा समर्थ हो।

 

वेदाध्ययन द्वारा आयु

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।

आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्॥

अथर्व० 19/7/1

अर्थ – (मया) मेरे द्वारा (वरदा) वरों को देनेवाली (वेदमाता) वेदमाता (स्तुता) स्तुति की गई अर्थात् मैंने वेद-रूपी माता की गोद में बैठकर ज्ञान के रस का पान कर लिया है। (द्विजानाम्) विद्वान् ब्राह्मणों द्वारा गाई हुई (पावमानी) जीवन को पवित्र करने वाली पावमानी नाम की ऋचायें (प्रचोदयन्ताम्) हम सबको शुभ कर्मों के लिये प्रेरित किया करे।

हे विद्वानों, (मह्यम्) मुझका (दत्त्वा) इन सात वरों को देकर (ब्रह्मलोकम्) मोक्ष को (व्रजत) प्राप्त कीजिये। वे सात वर ये हैं-(आयुः) पूर्ण जीवन, (प्राण) जीवन शक्ति, (प्रजाम्) सन्तान, (पशुम्) गाय, बैल, घोड़ा आदि पशु, (कीर्तिम्) यश, (द्रविणम्) धन-धान्य, (ब्रह्मवर्चसम्) आध्यात्मिक तेज ।

संसार में जितने भी कार्य हैं स्वाध्याय उन सब में श्रेष्ठ है, कठिन कार्य है, ऐसा जानकर जो स्वाध्याय करता है वह तत्त्व को जान लेता है। इसलिये स्वाध्याय करना चाहिए। ऋग्वेद के ज्ञान-सूक्त में स्वाध्याय की महिमा इस प्रकार बतलाई गई है-

यस्तित्याज सचिविदं सखायं न तस्य वाच्यपि भागो अस्ति।

यदीं शृणोत्यलकं शृणोति न हि प्रवेद सुकृतस्य पन्थाम् ॥

(ऋ० 10/71/6)

(यः) जो व्यक्ति (सचिविदम्) परमेश्वर को प्राप्त कराने या उसका ज्ञान करवाने वाले (सखायम्) वेद के स्वाध्याय रूपी मित्र को (तित्याज) छोड़ देता है, (तस्य) उस व्यक्ति की (वाचि अपि) वाणी में भी (न भागो अस्ति) कुछ भजनीय सेवनीय तत्त्व नहीं हैं ( यत् ईम् शृणोति) वह जो कुछ सुनता है (अलकम् शृणोति) सब मिथ्या ही सुनता है और (न हि प्रवेद सुकृतस्य पन्थाम्) वह सुकृत के, पुण्य के, मोक्ष के, मार्ग को नहीं जान सकता। इसलिये परमसुख मोक्ष की प्राप्ति के लिये वेदों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये।

 

स्वाध्याय का फल

 

यः स्वाध्यायमधीतेऽब्दं विधिना नियतः शुचिः।

तस्य नित्यं क्षरत्येष पयो दधि घृतं मधु ॥

जो मनुष्य विधिपूर्वक एक वर्ष तक शुद्ध एकाग्र- इ चित्त होकर स्वाध्याय करता है उसको ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेदादि का ज्ञान अर्थात् ज्ञान, कर्म, उपासनादि का फल मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में मधु तथा पय का अर्थ ऋचा और घृत का अर्थ साम किया है।

ऋग्वेद और सामवेद में स्वाध्याय के फल का वर्णन करने वाले 6 मन्त्र हैं जिन में स्वाध्याय के नाना लाभों का विस्तृत वर्णन किया है, उनमें से केवल 3 मन्त्र यहाँ उद्धृत किये जाते हैं-

पावमानीरध्येत्यृषिभिः सम्भृतं रसम्।

स सर्वं पूतमश्नाति स्वदितं मातरिश्वना ॥

ऋ० 8/67/31, साम० उ० अ० 10 कं० 6

पावमानी अर्थात् सब को पवित्र करनेवाले ईश्वर प्रदत्त एवं ऋषियों द्वारा सञ्चित ऋचाओं का जो अध्ययन करता है, वह पवित्र आनन्द रस का आस्वादन करता है।

पावमानीर्दधन्तु न इमं लोकमथो अमुम् ।

कामान् समर्धयन्तु नो देवीर्देवैः समाहृताः ॥

सा० उ० अ० 10 ख० 6

पावमानी ऋचायें इस लोक और परलोक दोनों को धारण करने में हमारी सहायक हों, देव-उत्तम विद्वान् या श्रेष्ठ इन्द्रियों द्वारा प्राप्त करवाई हुई ये ऋचायें हमारी शुभकामनाओं को पूर्ण करें।

पावमानीः स्वस्त्ययनीस्ताभिर्गच्छन्ति नान्दनम्।

पुण्याँश्च भक्ष्यान् भक्षयत्यमृतत्वं च गच्छति ।।

साम० उ० अ० 10 ख० 6

ये पावमानी ऋचायें कल्याणकारिणी हैं, इनके द्वारा मनुष्य आनन्द को प्राप्त होते हैं, इन ऋचाओं का अर्थात् वेद का स्वाध्याय करनेवाला इस लोक में उत्तम भोग का उपभोग करता हुआ मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। महर्षि पतञ्जलि ने स्वाध्याय का फल इस प्रकार लिखा है-

“स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः

योगदर्शन 2-44

स्वध्याय के द्वारा मनुष्य इष्टदेव-यथेच्छ शुभ गुण की प्राप्ति कर सकता है। कोई महापुरुष इस संसार में नहीं है किन्तु उसके ग्रन्थों का स्वाध्याय कर हम उस से, उसके विचारों से संगति कर यथेष्ट लाभ उठा सकते हैं। अतएव इस सूत्र का भाष्य करते हुए महर्षि व्यास ने लिखा है- “देवा ऋषयः सिद्धाश्च स्वाध्यायशीलस्य दर्शनं गच्छन्ति, कार्ये चास्य वर्तन्ते।

” विद्वान्, ऋषि-महर्षि आदि स्वाध्यायशील के दर्शन-ज्ञान में आते हैं और इसके कार्य को सिद्ध कर सकते हैं। अर्थात् उनके ग्रन्थों का स्वाध्याय कर स्वाध्यायवान् व्यक्ति अपने कार्य को सिद्ध कर लेता है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने लिखा है-

यद्यद्ध वायं छन्दस्यः स्वाध्यायमधीयते

तेन तेन हैवास्य यज्ञक्रतुनेष्टम्भवति,

य एवं विद्वान्स्वाध्यायमधीते, तस्मात्स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ।

शतपथ० का० 11 अ० 5/7/1

स्वाध्यायशील मनुष्य जिस-जिस वेद का स्वाध्याय करता है उसको उस-उस वेद का वही फल मिलता है। जो उस वेद से यज्ञ करने पर होता है, अतः स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये।

 

आहार द्वारा आयु

 

पथ्य-सादा और सात्विक जीवन आध्यात्मिक रोगों से बचने और रोगों के आ जाने पर उससे छूटने के लिए जीवन सम्बन्धी पथ्य आवश्यक हैं। आयुर्वेद में कहा है-

पथ्ये सति गदार्तस्य, किमौषधनिषेवणैः ।

पथ्येऽसति गदार्तस्य, किमौषधनिषेवणैः ॥

यदि मनुष्य पथ्य (परहेज) से रहे तो दवा की आवश्यकता ही न होगी और यदि पथ्य का पालन न करे तो दवायें उसका क्या बना सकेंगी? दवाएं व्यर्थ जायेंगी और उसका रोग छूटेगा नहीं। आध्यात्मिक पथ्य क्या है? सादा और सात्विक जीवन ही असली पथ्य है। सादा और सात्विक जीवन क्या है, यह समझ लेना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि प्रायः लोग इस में भ्रान्ति के शिकार हो जाते हैं।

कुछ लोग समझते हैं कि सात्विक जीवन व्यतीत करने के लिए भोजन का त्याग या उसका ह्रास अत्यन्त आवश्यक है। कभी वे अन्न छोड़कर फल खाने लगते हैं। तो कभी जल, वायु पर जीवित रहने का यत्न करते हैं। यह तो सात्विक भोजन नहीं है। भगवद्गीता में कहा है-

आयुः सत्त्वबलारोग्यं, सुखप्रीतिविवर्धनाः ।

रस्याः स्निग्धाः स्थिरा: हृद्याः, आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥

गीता-27/8

आयु, बुद्धि, बल, नीरोगता, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रस- युक्त, चिकने, स्थिर और मन को भाने वाले आहार सात्विक कहलाते हैं। आयुर्वेद के ग्रन्थों में भी उल्लेख किया गया है।

आहारः, प्रीणनः सद्योबलकृद्देहधारणः ।

स्मृत्यायुःशक्तिवर्णोजः सत्त्वशोभाविवर्धनः ॥

भाव० 4/1

भोजन से तत्काल ही शरीर का पोषण और धारण होता है, बल की वृद्धि होती है तथा स्मरणशक्ति, आयु, सामर्थ्य, शरीर का वर्ण, कान्ति, उत्साह, धैर्य और शोभा बढ़ती है। इससे सिद्ध हुआ कि- ‘आहार हमारा जीवन है।’ चरकशास्त्र कहा है-

बलमारोग्यमायुश्च प्राणाश्चाग्नौप्रतिष्ठिताः।

अन्नपानेन्धनैश्चाग्निर्दीप्यते शाम्यतेऽन्यथा ॥

शरीर के अन्दर जो अग्नि है उसी के आश्रय से देह में प्राण स्थिर रहते हैं। यह अग्नि बल, आरोग्य और आयु को प्रतिष्ठित करनेवाली है अथवा यह कह सकते हैं कि अन्तरग्नि पर देह की स्थिति है। अन्न-पान रूपी ईन्धन से ही अन्तरग्नि स्थिर रहती है, इस अग्नि का दीपन और शमन भोजन से ही होता है। यह हम प्रत्यक्ष ही देखते हैं कि अन्न-पान के सेवन से आयुपर्यन्त प्राण रहते हैं। इसी विषय में चरक महर्षि ने लिखा है-

आयुर्वै घृतम् सद्यः शुक्रकरं पयः ।

विना गोरसं को रसं भोजनानां तक्रं शक्रस्य दुर्लभम् ॥

आदि-आयुर्वेद ग्रन्थों के ये वाक्य जिनमें लिखा है – घी खाने से आयु बढ़ती है, दूध पीने से वीर्य बहुत शीघ्र बनता है, मट्ठा तो शक्र (इन्द्र) को भी दुर्लभ है तथा गाय के दूध, घी, मट्ठा आदि के बिना तो भोजन व्यर्थ है। ‘योग’ की प्राप्ति के लिए भगवद्गीता में जो पहला और अत्यावश्यक साधन बतलाया गया है, वह युक्त आहार और विहार है। कहा है-

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेटस्य कर्मसु

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥

जिस का आहार (भोजन), विहार (रहन-सहन) नियमित है, जिसका आचरण संयम से युक्त है और जिसका सोना तथा जागना नपा-तुला है उस के लिए योग दुःख का नाशक है। छान्दोग्य उपनिषद् में लिखा है-

आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः ।

स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः ॥

आहार के शुद्ध होने से अन्तःकरण अर्थात् बुद्धि आदि की शुद्धि होती है, बुद्धि के शुद्ध होने पर स्मृति दृढ़ वा स्थिर हो जाती है, स्मृति के दृढ़ होने पर सब (हृदय की) गाँठे खुल जाती हैं अर्थात् जन्म-मरण के बन्धन ढीले हो जाते हैं। कहावत है कि आयुर्वेदशास्त्र के निर्माता महर्षि चरक ने चिड़ियों की बोली में कहा कोऽरुक् कोऽरुक् कोऽरुक् इस संसार में कौन नीरोगी रहता है? उत्तर मिला-

हितभुक्, मितभुक्, ऋतभुक् ।

जो हितकारी भोजन करता है, आवश्यकता अनुसार थोड़ा खाता है तथा ऋतु अनुसार भोजन करता है। वही निरोग रहता है, वही निरोग रहता है, वही निरोग रहता है। ‘व्यायामी पथ्याशी स्त्रीषु जितात्मा न रोगी स्यात्’ व्यायामी, संयमी तथा पथ्य-भक्ष्याभक्ष्य का विचार करनेवाला कभी बीमार नहीं होता।

प्राण प्रतिष्ठा

आहार निद्रा ब्रह्मचर्यमिति त्रयोपस्थम्भा ।

अर्थात्-आहार, निद्रा और बह्मचर्य शरीर के तीन खम्भे हैं। इन्हीं तीन खम्भों पर हमारा शरीर स्थित है। नाथ सम्प्रदाय के बालकनाथ ने भी आहार, आसन और निद्रा के विषय में कहा है-आहार दृढ़ आसन दृढ़ जे दृढ़ निद्रा होय । नाथ कहे रे बालका मरे न बूढ़ा होय।। इसलिए बुद्धिमानों ने कहा है-

कम खाना और खूब चबाना ।

यही है तंदुरुस्ती का खजाना ॥

प्रायः लोग आहार, व्यवहार, आचार की चोरी करते रहते हैं। इससे बचना चाहिये। मिल-बाँट के खाने में आनन्द आता है। लम्बी आयु के विषय में पाठकों के लिए एक रोचक वृत्तात प्रस्तुत कर रहा हूँ- एक वृद्धा ने लम्बी आयु का रहस्य बताया दुनिया में केवल सोवियत संघ रूस ही ऐसा देश है। जहाँ लोग बहुत उम्र तक जीते हैं। वहाँ ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं जिनकी आयु 100 वर्ष से भी अधिक है।

ताशकन्द में इनका एक क्लब भी है जहाँ हर वर्ष मेला लगता है। यहाँ क्लब के सदस्यों की खेल-कूद प्रतियोगिता भी होती है। रूस में आज भी एक किसान जीवित है जिसकी आयु 130 वर्ष है। पर इन सबसे अधिक आयु वाली महिला स्काटलैंड में है। उसकी आयु 140 वर्ष है।

मरियम नामक यह महिला प्रतिदिन सुबह उठकर सबसे पहले बर्फ के पानी से नहाती है और इसके बाद सैर के लिये जाती है। वह रोज बिना रुके चार मील पैदल चलती है। अतः तक वह कभी बीमार नहीं हुई। उसके पहले दाँत बुढ़ापे की वजह से अपने आप निकल गये थे। लेकिन ताज्जुब है कि उसके नये दाँत निकल आये हैं।

मरियम से जब यह पूछा गया कि उसी इतनी लम्बी आयु का राज़ क्या है तो उसने बताया लगभग 100 वर्ष पहले मैं अपने पिता के साथ भारत गयी थी जो ईस्ट इंडिया कम्पनी में काम करते थे। वहाँ मैंने ऐसे ब्राह्मण को देखा जो सौ वर्ष से भी अधिक आयु का था। वह शुद्ध शाकाहारी था। उसके बाद से मैंने कभी मांस और मछली नहीं खाई है और न ही किसी प्रकार का नशा किया। प्रातःकाल नियमित रूप से ठंडे पानी से नहाना और सैर करना ही मेरा नियम, उद्देश्य बन चुका  है और यही मेरी लम्बी आयु का राज भी है।

(दैनिक मिलाप सन्देश 12-2-89 से साभार)

सौ वर्ष जीने की कला के सन्दर्भ में राजसिक तामसिक भोजन का गीता में संस्कृत में उल्लेख किया गया है-

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।

आहार राजसस्येष्टाः, दुखः शोकमयप्रदाः॥

यातयामं गतरसं, पूतिपर्युषितञ्च यत् ।

उच्छिष्टमपि चामेध्यं, भोजनं तामसप्रियम्॥

गीता 17/9/10

परन्तु कड़वे, खट्टे, खरे, बहुत गर्म, बहुत तीखे, रूखे और शरीर में दाह करने वाले भोजन हैं, शरीर को दुःख और मन में शोक उत्पन्न करने के कारण होने से राजस लोगों को प्रिय है। राजस व्यक्ति जिह्वा के क्षणिक सुख को मुख्य रखता है और स्थायी लाभ को गौण। वह ऐसे भोजन की इच्छा रखता है जो जिह्वा को चटपटा लगे और उस समय के लिए गुदगुदी सी पैदा करे। ऐसा भोजन मध्यम है।

ठंडा, बासी, बदबूदार बिगड़ा हुआ, जूठा और गन्दा भोजन तामस वृत्ति के व्यक्तियों को प्रिय होता है। तामस वृत्ति के लोग मद्य जैसी दुर्गन्धयुक्त बेस्वाद और स्वास्थ्य के लिए हानिकर चीजों को खाते हैं। उन्हें ताजा फलों की अपेक्षा फलों और सब्जियों के दुर्गन्धयुक्त व अहितकर अचार अधिक पसन्द होते हैं। ऐसे भोजन करने से तमोगुण की प्रवृत्तियों की वृद्धि होती है।

सात्त्विक भोजन मनुष्य को संयमी बना कर दोषचतुष्ट्य (काम, क्रोध, लोभ और मोह) से बचाता है, राजस भोजन उसे दोषों की ओर प्रवृत्ति करता है और तामस भोजन उसे दोषों के सागर में डुबो देता है। इस कारण दोषों से उत्पन्न होने वाले दुःखों से बचने के लिए मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह उत्तम और उचित आहार किया करे। आहार के बारे में आयुर्वेद का निम्नलिखित निर्देश सदा स्मरण रखने और व्यवहार में लाने योग्य है-

हिताशी स्याद् मिताशी स्यात् कालभोजी जितेन्द्रियः ।

पश्यन् रोगान् बहून् कष्टान् बुद्धिमान् विषमाशनात्तु॥

 

बुद्धिमान का कर्त्तव्य है कि विषम आहार से नाना प्रकार के रोगों तथा कष्टों को देखता हुआ, सदा हितकर और परिमित आहार का सेवन करने वाला बने, और हमेशा ठीक समय पर अर्थात् भूख लगने पर ही भोजन करे, तथा सदा संयमी और जितेन्द्रिय रहे। जो अच्छे स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन की इच्छा रखता हो उसे चार सुनहरे नियमों का पालन करना चाहिए-

  • हिताशी हो। जो शरीर को, स्वास्थ्य को बल देने वाला हो, ऐसा भोजन करे।
  • मिताशी हो। भूख से अधिक कभी न. कालभोजी हो। नियत समय पर भोजन करे। अच्छे से अच्छा भोजन भी यदि मात्रा से अधिक किया जाए अथवा नियत समय से पहिले या समय बिता कर किया जाय तो शरीर के लिए हानिकारक है।
  • जितेन्द्रिय हो । खाने में चटोरा न बने। किसी वस्तु को स्वाद के लिए नहीं अपितु शरीर की पुष्टि और रक्षा के लिए भोजन योग्य समझे। केवल स्वाद के लिए अधिक किया हुआ भोजन स्वास्थ्य के लिए विष सिद्ध होता है।
  • भोजन विज्ञान के पौरस्त्य और पाश्चात्य, तथा प्राचीन और अर्वाचीन विशेषज्ञों के बहुमत को दृष्टि में रख कर हम उत्तम, मध्यम और अधम भोज्य पदार्थों की निम्नलिखित निर्देशक सूची बना सकते हैं-
  • उत्तम भोजन-जल, दूध, अन्न (गेहूँ, चावल, ज्वार, बाजरा आदि) दाल (अरहर, उड़द, मूंग आदि) फली (फराशबीन, सोयाबीन, आदि) सब्जी, फल, मेवा, शहद। मध्यम भोजन-तले हुए पदार्थ, मिठाई, मिर्च मसाला, अचार आदि। अधम भोजन- मांस, मद्य, अन्न, गरम मसाले आदि।

अच्छे अनुकूल और परिमित भोज की बड़ी महिमा है। रोगों की निवृत्ति का मुख्य उपाय वही है। कई लोग बकरी की तरह दिन भर कुछ न कुछ चबाते ही रहते हैं। ऐसे आदमी कभी भी स्वस्थ और सुडौल नहीं बन सकते। ऐसा मनुष्य तो लकड़ी के समान सूखकर सदा बाबू ‘लकरीचन्द’ ही बने रहते हैं। एक कहावत भी है.

खावे बकरी की तरह । सूखे लकड़ी की तरह ॥

सौ-साल-जीने-की-कला
सौ-साल-जीने-की-कला

अधिक भोजन से हानियाँ

 

मात्रा से अधिक खाने से आलस्य, भारीपन, पेट फूलना, पेट में गुड़गुड़ाहट आदि उपद्रव खड़े हो जाते हैं। महात्मा गाँधी जी लिखते है कि अधिक खाने से बहुतों के पेट में वायुविकार पैदा हो जाता है, खट्टी डकार आती है, यह भोजन न पचने की पहिचान है। डॉक्टर और वैद्य सभी का यह मत है।

पेट को ठूंस ठूंस कर भरने से विशूचिका रोग (हैजा) बहुत ही शीघ्र होता है और इन्फ्लुएञ्जा के होने की भी आशंका रहती है। अपचन, अजीर्ण, मलबन्ध, आनाह, संग्रहणी, बवासीर तथा स्वप्नदोष, प्रमेहादि धातु सम्बन्धी रोग अधिक खाने वाले पेटू लोगों को ही होते हैं। मनुष्य प्रायः जितना खाते उसका तीसरा भाग भी नहीं पचा सकते। जो भोजन नहीं पचता वह पेट में पड़ा रहकर रक्त को विषैला और दूषित बनाता और स्वप्नदोष अर्शादि असंख्य विकारों को जन्म देता है।

प्राणशक्ति को द्विगुण कार्य करना पड़ता एक तो अधिक भोजन के पचाने में, दूसरा मल को बाहर निकालने में। अधिक खाने से राष्ट्र के अन्न और धन दोनों का अपव्यय होता है तथा रोग भी दण्डरूप प्रकृति देवी प्रदान करती है। धनी लोग इस दोष के अधिक दोषी हैं, वे कई निर्धन मनुष्यों का पालन जिससे हो जाये इतना अधिक अन्न प्रतिदिन बिगाड़ देते हैं। यह घोर अपराध है। अत: मात्रा से अधिक भोजन नहीं करना चाहिये। इस विषय में मनु जी महाराज लिखते हैं-

वा अनारोग्यमनायुष्यमस्वर्ग्यं चातिभोजनम्।

अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्तत्परिवर्जयेत्॥

मनु०अ० 2-57

अति भोजन करने स्वास्थ्यहानि तथा रोगों की वृद्धि होती है, आयु घटती है, व्याधि आदि के कारण अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं, पुण्य का नाश और पाप की वृद्धि होती है, और अधिक खानेवाले की जनता में निन्दा भी होती है। ब्रह्मचारी को तो भूलकर भी अधिक भोजन नहीं करना चाहिये। पेट ठोक-ठोक कर अधिक भोजन करने वाला सात जन्म में भी ब्रह्मचारी नहीं रह सकता।

ब्रह्मचारी का सायंकाल का भोजन मध्याह्न से आधा होना चाहिये तथा सोने से दो या तीन घण्टे पूर्व ही भोजन करना चाहिए। दुग्ध तथा जलपान भी सोने से दो वा तीन घण्टे पूर्व ही कर लेना चाहिए। अतः अधिक भोजन नहीं करना चाहिए। आयुर्वेद के ग्रंथों में कहा है-

आहिताग्निः सदा पथ्यानन्तराग्नौ जुहोति यः ।

भजन्ते नामयाः केचिन्॥

अर्थात्-जो सच्चा याजक बन कर अपनी जठराग्नि रूपी यज्ञाग्नि में सदा हितकर पदार्थों की ही हवि प्रदान करता है उसे किसी भी प्रकार के रोग नहीं सताते। पुनः चरक ग्रन्थ में लिखा है-

ज्ञानं तपः तत्परता च योगे यस्यास्ति तं नानुतपन्ति रोगाः ।

अर्थात्-जो मनुष्य ज्ञानवान्, विचारशील और बुद्धिमान है, जो तपस्वी व संयमी है और जो प्राणायाम आदि योगाभ्यास में सदा तत्पर रहता है, उसको कभी भी रोग नहीं सताते। उपनिषदें भी कहती हैं-

न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः । प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् ॥

श्वेताश्वतरोपनिषद

अर्थात् जो मनुष्य योगाभ्यास द्वारा अपने शरीर को योगाग्निमय बना लेता है उसे न रोग होते हैं, न बुढ़ापा आता है और न ही जल्दी वह मृत्यु को प्राप्त होता है।

 

स्वस्थ शरीर

 

समदोषः समाग्निश्च समधतुमलक्रियः ।

प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ।

सुश्रुत जिस मनुष्य के वात, पित्त और कफ ये तीनों दोष सम अवस्था में हों, जिसकी जठराग्नि न अधिक तेज, न अधिक मन्द हो, जिसकी रस रक्तादि सप्त-धातुयें समुचित मात्रा में बनती हों तथा शरीर में स्थिर रहती हों, जिसकी मल-मूत्रादि की क्रिया ठीक होती हो और जिसकी दशों इन्द्रियाँ कार्य करने में सक्षम हों तथा मन और आत्मा प्रसन्न हों, वही व्यक्ति स्वस्थ होता है।

‘धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्’

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह पुरुषार्थचतुष्ट्य मानव जीवन का उद्देश्य है। इस पुरुषार्थचतुष्ट्य की सिद्धि का मूल कारण आरोग्य है। शरीर यदि स्वस्थ नहीं है, रोगी है, तो पुरुषार्थचतुष्ट्य की तो क्या बात, शौच स्नानादि नित्य कर्मों का अनुष्ठान भी भलीभाँति नहीं किया जाता। रोगी स्वयं दूसरों पर भार होता है, वह किसी की क्या सेवा या उपकार कर सकता है तथा क्या धर्म कमा सकता है इसलिए शरीर की स्वस्थता को पुरुषार्थचतुष्टय की सिद्धि के लिए हमारे शास्त्रकारों ने सर्वप्रथम और मुख्य स्थान दिया है ।

जीवन का चरम लक्ष्य, अन्तिम ध्येय मोक्षप्राप्ति ही है और उसकी प्राप्ति आत्मा इस शरीररूपी रथ पर सवार होकर करता है। यदि शरीररूपी रथ स्वस्थ और दृढ़ नहीं है तो मार्ग में ही जीर्ण-शीर्ण हो जायेगा तथा आत्मा अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकेगा। आवागमन के चक्र से न छूटकर दुःखसागर में गोता लगायेगा। अतः आवश्यक है कि हमारा शरीररूपी रथ, जीवन यात्रा का साधन, स्वस्थ, दृढ़ और सुगठित हो ।

मूर्तिपूजा का चलन आखिर कहाँ से हुआ ?

सदाचार द्वारा आयु

 

महर्षि मनु ने सदाचार को धर्म के लक्षण में माना है-

वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः ।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्॥

 मनु० 2/12

अर्थ-वेद, स्मृति, शास्त्र, सदाचार और जो आत्मा को प्रिय है ये धर्म के चार साक्षात् लक्षण कहे गये हैं। पुनः ने आचार को दीर्घायुकारक बताया है-

आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिताः प्रजाः ।

आचाराद्धनमक्षयमाचारो हन्त्यलक्षणम्॥

मनु० 4/156

सदाचार से मनुष्य दीर्घ आयु पाता है, सदाचार से मनचाही प्रजा को प्राप्त करता है और सदाचार से अक्षय धन पाता है। सदाचार सब प्रकार की अयोग्यता, कुरूपता आदि को निष्प्रभावी कर देता है।

आचाराद्विच्युतो विप्रो न वेद फलमश्नुते।

आचारेण तु संयुक्तः सम्पूर्णफलभाग्भवेत्॥

अर्थ-सदाचार से हीन विद्वान् वेदाध्ययन के फल को नहीं पाता है किन्तु जो सदाचार से सम्पन्न होता है वह सम्पूर्ण फल को प्राप्त कर लेता है।

सर्वलक्षण हीनोऽपि, यः सदाचारवान्नरः ।

श्रद्दधानो ऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति ॥

मनु० 4/158

सब प्रकार के उत्तम चिह्नों और योग्यताओं से रहित होता हुआ भी जो मनुष्य सदाचारी श्रद्धालु और गुणों में दोषारोपण न करने वाला होता है वह सौ वर्ष तक जीता है। आचार्य चाणक्य ने भी आचार के विषय में कहा है-

आचारादायुर्वर्द्धते कीर्तिश्च ॥

चा०सू० 430

अतएव ऋषियों ने ठीक ही कहा है-

आचारः परमो धर्मः ।

आचार ही मनुष्य के शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक बल के धारण करने का परम साधन जीवन को उच्च, महान् तथा सुखमय बनाने की है।

क्षमता केवल सदाचार में ही है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम मन, वचन तथा कर्म से सदाचार- मय जीवन निर्माण करें। जो मनुष्य अपने जीवन में सदाचार को धारण नहीं करता वह जीवन के सुखों अर्थात् स्वास्थ्य, सौन्दर्य, दीर्घ आयु तथा यौवन के अमृत का कदापि आस्वादन नहीं कर सकता।

तैत्तिरीयोपनिषद् में ‘मानुष आनन्द’ शारीरिक सुख व स्वास्थ्य का एक चित्र खींचा गया है। यह ‘मनुष्य आनन्द’ आनन्द की प्रथम कोटि है जिसकी ओर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है-

युवास्यात्साधु युवाध्यापकः । आशिष्टो द्रढिष्ठो बलिष्ठः ।

तस्मेयं पृथिवी सर्वा वितस्य पूर्णा स्यात्। स एको  मानुष आनन्दः ।

ब्रह्मानन्दवल्ली तैत्तिरीयोपनिषद् 8

युवा हो, सच्चरित और युवा विचारों का हो, खूब खाता-पीता हो, दृढ़ शरीरवाला हो, अत्यन्त बलवान हो, धन-धान्य से पूर्ण यह सम्पूर्ण पृथिवी उसकी हो, यह एक मानुष आनन्द है। इस ‘मानुष आनन्द’ का आधार बलिष्ठ, युवा और स्वस्थ शरीर है, अतः जीवन-लक्ष्य का शरीर साधन बन सके, उसकी प्राथमिक आवश्यकता है।

दुराचारो हि पुरुषो, लोके भवति निन्दितः ।

दुःखभागी च सततं, व्याधितोऽल्पायुरेव च ॥मनु० 4/157

दुराचारी पुरुष लोक में निन्दा को प्राप्त होता है। सतत दुःख को पाता है, व्याधिग्रस्त रहता है और अल्प आयु वाला होता है। सदाचार से आयु और यश बढ़ता है।

अनभ्यासेन वेदानामाचारस्य च वर्जनात्।

आलस्यादन्नदोषाच्य मृत्युर्विप्रान् जिघांसति ॥

अर्थ-वेदों का स्वाध्याय न करने से अतएव आचारहीन हो जाने पर तथा आलस्य प्रमादादि के घेर लेने पर लोगों को मृत्यु आ दबोचती है। इसके विपरीत वेदादि शास्त्रों का स्वाध्याय करने से, सदाचारी एवं आलस्य- प्रमादादि को छोड़ देने पर मृत्यु को भी मारा जा सकता है। मनुष्य उसके भय से मुक्त हो सकता है।

 

रात्रि शयन द्वारा आयु

 

रात्रि में शयन की विधि इस प्रकार से है-स्वास्थ्यप्रेमी को सदा बाईं करवट से सोना चाहिये। इससे सायंकाल का किया हुआ भोजन भी शीघ्र पच जाता है। आयुर्वेद में दीर्घायु के लिये जहाँ अनेक साधनों का वर्णन मिलता है, वहाँ बाँई करवट से सोने का भी विधान है-

वामशायी द्विर्भुञ्जानः षष्मूत्री द्विपुरीषकः ।

व्यायामी ब्रह्मचारी च शतं वर्षाणि जीवति ॥

अर्थात् वामपार्श्व=बाँई करवट से सोने वाला, दिन में दो बार भोजन करने वाला, सारे दिन में कम से कम छ: बार मूत्र त्याग करने वाला, दो बार मल त्याग करने वाला, व्यायामशील और ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला व्यक्ति सौ वर्ष तक सुखी जीवन बिताता है।

 

परिशिष्ट

वेद द्वारा दीर्घ आयु की कामना

 

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥

ऋग्वेद 1/89/8

विज्ञजनों के साहचर्य से हमारा शरीर हृष्ट-पुष्ट अङ्गों वाला बने। नियमों के पालन से हम कानों से सदा भद्र सुने, आँखों से भद्र देखें तथा विद्वानों के लिये हितकारक दीर्घ आयु प्राप्त करें।

प्राञ्चो अगाम नृतये हसाम द्राघीय आयुः प्रतरं दधानाः ।

ऋग्वेद 10/18/3

कल्याणकारी कर्मों द्वारा सुदीर्घ आयु प्राप्त कर हँसते- खेलते, आशा, उत्साह और पुरुषार्थमय जीवन-यापन की कामना की गई है।

आयुष्यं वर्चस्यं रायस्पोषमौ दभिदम् ।

इदं हिरण्यं वर्चस्वज्जैचाभा विशतादुमाम् ॥

यजुर्वेद 34/50

यु के लिये हितकारी, ज्ञान के लिये उपयोगी, दुःखों से छुड़ाने वाला, ऐश्वर्य की वृद्धि करने वाला, अन्न आदि बढ़ाने वाला, सब कर्मों में सहायक, विजय दिलाने वाला और तेजस्वी स्वर्ण आदि धन मेरे पास आता रहे।

 

प्रसन्नता से आयु

 

यत्रानन्दाश्च मोदाश्चमुदः प्रमुद आसते ।

कामस्य यत्राप्ताः कामास्तत्र मामृतं कृधीन्द्रायेन्द्रो परिस्रवः ॥

ऋग्वेद 9/113/11

ऋग्वेद के इस मन्त्र में सामान्य स्वर्ग और विशेष स्वर्ग दोनों का वर्णन किया गया है। जहाँ आनन्द, हर्ष, प्रसन्नताएँ और शान्तियाँ विराजमान हैं तथा जहाँ कमनीय वस्तु की काम-सुख अभीष्ट धाराएँ प्राप्त हैं वहाँ मुझे अमृत कर दे। अर्थात् मरणधर्मा देह के सम्पर्क से पृथक-मुक्त रूप में विराजमान बना दे। हे रसीले सुख स्रोत परमात्मन्! मुझ उपासक आत्मा के लिये परिस्रवण हों-सम्प्राप्त हों।

इहैव स्तं मा विभौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम् ।

क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे ॥

ऋग्वेद 10/58/42, अथर्व० 14/1/22

अर्थ-यहीं तुम दोनों रहो। तुम दोनों वियोग मत करो, अलग-अलग न रहो। पूरी आयु को तुम दोनों भोगो, पुत्रों के साथ, नातियों के साथ तुम दोनों खेलते हुए अपने घर में सुखपूर्वक रहो।

सौ-साल-जीने-की-कला

दीर्घ आयुष्य

 

वैदिक धर्म का मुख्य लक्ष्य दीर्घ आयुष्य प्राप्त करने की ओर विशेष है। मनुष्यों की सर्वसाधारण आयु सौ वर्ष की है। इससे कम आयु में मरना अधम जीवन का परिणाम है। समाज के दोष, नगर के दोष, पिता-माता के दोष तथा अपने दोष बढ़ने के कारण आयु घटती है। तथा समाज की शुद्धि, नगर की पवित्रता, पिता-माता का धर्माचरण और अपना धार्मिक जीवन आयुष्य की वृद्धि करता है। वैदिक धर्म के अनुसार केवल सौ वर्ष की साधारण आयु प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं है, परन्तु-

भूयश्च शरदः शतात् ॥

यजु० अ० 36/24

सौ वर्षों से भी (भूयः) अधिक आयु प्राप्त करना आवश्यक है। प्रतिदिन सन्ध्या में इस मन्त्र का पाठ करना इसलिए आवश्यक समझा गया है, कि लोग आयु के प्रश्न की ओर अपना विशेष ध्यान सदा देते रहें। विशेष ध्यानपूर्वक सदाचार करने से तथा अनियमों में न फँसने से मनुष्य दुगुनी अथवा तिगुनी आयु भी प्राप्त कर सकता है। योग साधन की विशेषता इसीलिए है। योग के आठ अङ्ग हैं।

यम और नियमों का पालन करने से व्यक्ति और समाज की पवित्रता बढ़ती है। आसनों से शरीर के नस नाड़ियों के अन्दर से रोग उत्पन्न करनेवाले सब प्रकार के मल दूर होते हैं और शरीर शुद्ध होने के कारण नीरोगता प्राप्त होती है। प्राणायाम से प्राणरूपी जीवनशक्ति में विशेष बल प्राप्त होता है, फेफड़े बलवान होने के कारण श्वास और उच्छ्वास की क्रिया ठीक प्रकार होती है और

श्वासोच्छ्वास से रक्तशुद्धि होने के कारण दीर्घ जीवन प्राप्त होता है, अर्थात् यम, नियम, आसन और प्राणायाम का दीर्घ जीवन के साथ अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। यदि किसी को दीर्घ आयुष्य प्राप्त करने की अभिलाषा हो तो, उसको चाहिए कि वह उक्त चारों अङ्गों का यथाविधि अभ्यास करे।

इन चार अङ्गों के अभ्यास का फल तत्काल प्राप्त होता है। दो-चार मास के अन्दर ही इसका अनुभव पाठक ले सकते हैं। आसन और प्राणायाम के अभ्यास से पन्द्रह वर्ष की कब्जी, मलावरोध, अपचन, अरुचि आदि रोग पूर्णता से हटे हैं। जो लाभ दवाओं से नहीं प्राप्त हो सकता, उस आरोग्य की प्राप्ति आसन और प्राणायाम से होती है।

रुपयों का अपव्यय करने की आवश्यकता नहीं, डॉक्टरों और वैद्यों के पास टेढ़ा मुँह करके जाने की आवश्यकता नहीं, आसन और प्राणायाम से बिना मूल्य आरोग्य की प्राप्ति होती है, परन्तु आश्चर्य यह है कि इस योगाभ्यास की ओर बहुत कम लोग ध्यान देते हैं।

हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने शरीर की सब नस नाड़ियों का उत्तम अभ्यास करके शारीरिक आरोग्यता प्राप्त करने की विधियाँ निश्चित की हैं और इन सबका योग के पूर्वोक्त चारों अङ्गों में अन्तर्भाव किया; यह उन ऋषियों की बुद्धिमत्ता है, परन्तु उनकी आर्य सन्तानों में इस प्रकार शिथिलता है कि अनुभवसिद्ध नियमों का पालन भी उनसे नहीं हो सकता।

आयुः पृथिव्यां द्रविणम् ॥

तैत्तिरीय आरण्यक 10/36

‘इस पृथिवी पर सच्चा धन केवल आयु ही है।’ यह ऋषियों का सिद्धान्त सर्वकाल में अटूट रहेगा। आयु रहने पर अन्य धनों का उपयोग और उपभोग किया जा सकता है, परन्तु यदि आयु ही न रहेगी, तो सब सांसारिक सुखोपभोग के साधन प्राप्त होने की सम्भावना होने पर भी उनका कोई कार्य नहीं हो सकता। इसलिए सब धनों से आयु ही श्रेष्ठ धन है। इस आयु का उपयोग आयु की वृद्धि करने के लिए करना चाहिए। इस विषय में वेद का उपदेश निम्न प्रकार है-

आयुः पवत आयवे ॥

ऋग्वेद 6/67/8

दीर्घ आयु की प्राप्ति के लिए अपनी आयु को पवित्र बनाओ। पवित्रता ही एक विशेष गुण है कि जिससे नीरोगता और दीर्घ जीवन प्राप्त होता है। कपड़ा मलीन होने से जल्दी फट जाता है और स्वच्छ रखने से बहुत दिनों तक चलता है। जहाँ मल बढ़ेंगे वहाँ विनाश का साम्राज्य अवश्य होगा इसमें कोई सन्देह ही नहीं। यम-नियमों में “शौच” अर्थात् शुद्धता तथा पवित्रता का उल्लेख इसी बात की सिद्धि कर रहा है। परमात्मा पूर्णतया निर्मल होने के कारण अविनाशी है।

जो निर्मल होते हैं वे अविनाशी होते हैं, अर्थात् जहाँ मल होंगे वहाँ नाश अवश्य होगा। इसलिए दीर्घायु प्राप्त करनेवालों को उचित है कि वे पवित्रता प्राप्त करें। शरीर के अङ्गों के विषय में ही पाठक देख सकते हैं कि जो दन्तधावन (दातुन) नहीं करते उनके दाँत मलीन रहते हैं और वे शीघ्र ही गिर जाते हैं। शरीर के ऊपर मल का सञ्चय अधिक होने के कारण फोड़े-फुन्सियाँ आदि बीमारी होती हैं। मल के कारण रक्त की अशुद्धि होने से अनेक व्याधियाँ होती हैं।

उपस्थ इन्द्रियों के चारों ओर मल का सञ्चय होने से वीर्य क्षीण होता है और वीर्यक्षीण होने से मनुष्य अल्पायु होता है। पेट में मल का भार होने से विविध प्रकार के कृमिविकार होते हैं। फेफड़ों में मल बढ़ जाने के कारण श्वास, दमा, क्षय आदि भयानक व्याधियाँ होती हैं। इस प्रकार शरीर के अवयव में मल का सञ्चय होने से बीमारी होती है तथा शुद्धता और पवित्रता होने से उक्त सब बीमारियाँ दूर होती हैं। यह एक शौच अर्थात् पवित्रता का माहात्म्य है।

सन्तोष अर्थात् मन की प्रसन्नता विलक्षण गुण मन का सन्तोष आयुष्य बढ़ाता है। चेहरे पर सदा स्मित रखना चाहिए। हास्य के कारण आयु बढ़ती है जो मनुष्य हास्यमुख होते हैं वे दीर्घजीवी होते हैं। हास्यमुख रखने से आयुष्य बढ़ता है इसलिए मनुष्यों को उचित है कि वे सदा प्रसन्नचित्त रहें। क्रोध के कारण आयु न्यून होती है।

क्रोध के झटके से रुधिर में भयानक स्थिति अन्तर होता है और रुधिर की जीवनशक्ति का नाश होता है। इसलिए धर्मशास्त्र ने क्रोध की गणना शत्रुगणों में की है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर ये छह शत्रु हैं जो मनुष्य की आयु छीनते हैं। इसलिए इन शत्रुओं को सदा दबाना चाहिए।

‘तप’ के कारण शीत उष्ण सहन करने की शक्ति शरीर में बढ़ती है जिससे बीमारियाँ कम होती हैं। स्वाध्याय से अपनी वास्तविक अवस्था का ज्ञान होता है। ईश्वरभक्ति से आत्मा की प्रसन्नता प्राप्त होती है। इसी प्रकार अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि नियमों से शरीर का स्वास्थ्य निःसंशय बढ़ता है। शरीर के आरोग्य की दृष्टि से इन यम-नियमों की अत्यन्त आवश्यकता है। इसलिए जो मनुष्य नीरोगता और दीर्घाय प्राप्त करना चाहते हैं वे यम, नियम, आसन और प्राणायाम का अवश्य अभ्यास करें।

मंदिरों में व्यवसाय

सौ वर्ष की आयु का कार्य

 

मनुष्य की आयु साधारणतः सौ वर्ष की है। विशेष प्रयत्न करने पर बढ़ती है तथा दुराचरण करने से आयु घटती भी है। योग का साधन, आसन, प्राणायाम आदि नियमपूर्वक करने से, आहार-विहार योग्य प्रमाण करने से, चिन्ता को दूर करने और मन शान्त और प्रसन्न रखने से आयु की वृद्धि हो सकती है। आजकल अल्प आयु में मनुष्यों की मृत्यु हो रही है। इसका कारण ब्रह्मचर्य का अभाव, दुर्व्यसनों का प्रभाव तथा अन्य प्रकार के हीन व्यवहार हैं।

मद्य, तमाखू, चाय, कॉफी आदि दुष्ट व्यसन प्रतिदिन फैल रहे हैं। व्यसनी मनुष्य का शरीर क्षीण होता ही है। और उसका नाश अल्प आयु में होगा ही, परन्तु विशेष शोक की बात यह है कि व्यसनी मनुष्य के सन्तानों में जन्म से रोगी रक्त होने के कारण अस्थिर वीर्य होता है। इसलिए व्यसनी मनुष्यों के सन्तान न केवल निर्बल ही होते हैं, अपितु सदा रोगी होते हैं। तमाखू पीनेवाले पिता के पुत्र तारुण्य के पूर्व ही वीर्यहीन होते हैं तथा जवानी में ही बुड्ढे दीखने लग जाते हैं।

शराब पीनेवाले पिता के पुत्र प्रायः निर्बुद्धि और चञ्चलवृत्ति के निकलते हैं। चाय पीनेवाले माता-पिता के सन्तान कब्ज, बद्धकोष्ठ आदि बीमारी से क्लेश भोगते हैं। इसलिए व्यसनाधीन मनुष्य को उचित है कि वह अपने सन्तानों के हित के लिए तथा राष्ट्र के उपकार के लिए व्यसनों से दूर रहे और योगाभ्यास द्वारा अपना स्वास्थ्य ठीक करके ही उत्तम वीर सन्तान उत्पन्न करे।

वेद का आदर्श यदि मनुष्य के मन में जागृत रहेगा तो निःसन्देह मनुष्य व्यसनों के कीचड़ में गिर नहीं सकता। दीर्घ आयु प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन प्रयत्न होना चाहिए। ‘भूयश्च शरदः शतात्’। ‘सौ वर्ष से भी अधिक जीना चाहिए’ यह वेद का कथन है। हे प्रिय पाठको! आपके मन में वेद विषय में श्रद्धा है इसमें कोई सन्देह ही नहीं है, परन्तु केवल श्रद्धा से कार्य नहीं चलेगा!

क्या आप प्रतिदिन दीर्घ आयु की प्राप्ति के लिए प्रयत्न कर रहे हैं? यदि नहीं तो आपकी वेद पर की श्रद्धा का तात्पर्य क्या है? प्रतिदिन प्रयत्न होगा तो ही कार्यभाग होगा, यह स्मरण रखिए। सौ वर्ष जीने का आपको जन्मसिद्ध अधिकार है, आप अपनी आयु बढ़ा भी सकते हैं। यदि प्रयत्न होगा तो निःसन्देह आयु की वृद्धि होगी।

आप बचपन से बालकों के मन में यह बात डालने का प्रयत्न कीजिए कि उनके अनेक धार्मिक कर्त्तव्यों में से सबसे मुख्य धार्मिक कर्त्तव्य यह है कि आयु की वृद्धि के लिए प्रतिदिन प्रयत्न करना। यदि आयु होगी तो सब धर्म का आचरण हो सकता है, यदि आयु न होगी तो क्या धर्म पाला जा सकता है? इसलिए आयु की बड़ी भारी आवश्यकता है। मन के निश्चय से ही प्रयत्न किया जा सकता है और प्रयत्न से सिद्धि भी प्राप्त हो सकती है।

सौ वर्ष की आयु प्राप्त करके जो कार्य करना वेद को अभीष्ट है वह निम्न मन्त्रों में आप देख सकते हैं-

पश्येम शरदः शतं । जीवेम शरदः शतं ।

ऋ० 7/66/16

पश्येम शरदः शतं। जीवेम शरदः शतं । शृणुयाम शरदः शतं ।

प्रब्रवाम शरदः शतं। अदीनाः स्याम शरदः शतं । भूयश्च शरदः शतात् ॥

यजु0 36/24

पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं बुध्येम शरदः शतं।

रोहेम शरदः शतं । पूषेम शरदः शतं । भवेम शरदः शतं ॥ भूयसी शरदः शतात् ॥

अथर्व० 19/67

पश्येम शरदः शतं । जीवेम शरदः शतं ॥

नन्दाम शरदः शता मोदाम शरदः शतं ।

भवाम शरदः शतां शृणवाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतं ।

अजिताः स्याम शरदः शतं ॥

तै० आरण्य० 4/42

वैदिक धर्म का सन्देश है कि आयु की भूमि में ही धर्म का उद्यान लगाना है। आयु भर में निम्न बातें अवश्य करनी चाहिएँ-

(1) जीवेम शरदः शतं- सौ वर्ष धार्मिक जीवन व्यतीत करना। सदाचार के साथ दीर्घजीवन प्राप्त करना। (2) पश्येम शरदः शतं सब जगत् का अच्छी प्रकर निरीक्षण करना। यों ही देखना नहीं, किन्तु विचारपूर्वक निरीक्षण करना।

(3) शृणुयाम शरदः शतं- अच्छे उपदेश सुनना, बुरी बात नहीं सुनना चाहिए।

(4) बुध्येम शरदः शतं- सौ वर्ष पर्यन्त ज्ञान की वृद्धि करने का प्रयत्न करना चाहिए। ज्ञान ही मानवीय स्वरूप है।

(5) प्रब्रवाम शरदः शतं- जो ज्ञान प्राप्त हुआ होगा उसका परोपकार के लिए दूसरों को उपदेश करना। ज्ञान प्रचार का कार्य करना ।

(6) रोहेम शरदः शतं- सौ वर्ष पर्यन्त उन्नति की प्राप्ति करने का कार्य करना ।

(7) पूषेम शरदः शतं – सौ वर्ष पर्यन्त पुष्ट होने का प्रयत्न करना। कोई कार्य ऐसा नहीं करना कि जिससे क्षीणता प्राप्त हो सके।

(8) भवेम शरदः शतं सर्वत्र विजय प्राप्त करना। (9) नन्दाम शरदः शतं- आनन्द की प्राप्ति करना।

(10) मोदाम शरदः शतं चित्त की प्रसन्नता और शान्ति रखना, कभी चिन्ता और उद्वेग नहीं करना ।

(11) अजिताः स्याम शरदः शतं- कभी पराजित नहीं होना, शत्रु से अपना बल सदा अधिक रखना।

(12) अदीनाः स्याम शरदः शतं- कभी दीनता नहीं धारण करना। सदा उच्चता, उच्च विचार धारण करना और उत्साह का जीवन व्यतीत करना।

(13) भूयसी: शरदः शतात्- सौ वर्ष से अधिक आयु प्राप्त करके उस सम्पूर्ण दीर्घ आयु में उक्त कार्य उत्साह से करने चाहिए।

इन मन्त्रों में मानवीय जीवन का धार्मिक कार्यक्रम दिया है। आशा है कि पाठक इन मन्त्रों को प्रतिदिन स्मरण करेंगे और स्वयं पूर्ण आयु की प्राप्ति के लिए। प्रयत्न करके उक्त कार्य करते रहेंगे। वैदिक धर्म प्रतिदिन के आचरण में लाने का यत्न कीजिए। वैदिक धर्म को केवल शब्दों में ही न रखिए। व्याख्यानों से प्रचार न कीजिए, परन्तु अपने प्रतिदिन के व्यवहार से धर्म का प्रचार कीजिए।

 

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