अपनों के प्रति अपनी बात

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अपनों के प्रति अपनी बात

प्रिय पाठको! आप सबने यह अनुभव किया होगा कि यदि हम कभी अपने घर को सब ओर से अच्छी तरह बन्द करके 10-15 दिनों या महीने बाद खोलते हैं, तो उसमें भी कहीं-न-कहीं से धूल-मिट्टी आकर जम ही जाती है। यदि एक वर्ष बाद खोलें तो और अधिक मिट्टी जम जाएगी। इससे भी अधिक यदि 8-10 वर्ष के बाद घर खोला जाए तो इतनी अधिक धूल-मिट्टी मिलेगी कि उसमें प्रवेश करने पर साँस लेना भी मुश्किल हो जाएगा।

तब हम सोच में पड़ जाते हैं कि अच्छी तरह घर बन्द करने पर भी उसमें इतनी अधिक धूल-मिट्टी कहाँ से घुस गई? असल में होता यह है कि वह धूल बहुत सूक्ष्म छिद्रों के द्वारा हवा के साथ घर के अन्दर धीरे-धीरे प्रवेश करती रहती है और बुरी तरह जम जाती है।

यही स्वभाव बुराई का भी है। यह बुराई भी धूल-मिट्टी की तरह कहीं-न-कहीं से रास्ता बनाकर मनुष्य के अन्दर प्रवेश कर ही जाती है। यदि मनुष्य अच्छाई-बुराई पर विचार करके बुराइयों से बचने का प्रयत्न न करे, अथवा सतर्क न रहे, तो वे बुराइयाँ भी उसके अन्दर धूल-मिट्टी की तरह ऐसी पक्की जम जाती हैं कि उन्हें उखाड़ना बहुत कठिन या असम्भव हो जाता है।

वैसे तो ऐसा होना सभी मनुष्यों के साथ सम्भव है, परन्तु जीवन की किशोर और युवावस्थाएँ ऐसे नाजुक पड़ाव हैं, जब बुराइयाँ और अपराध अनजाने ही कहीं-न-कहीं से रास्ता बना, अन्दर प्रवेश कर अपना स्थान बना ही लेते हैं। ये अवस्थाएँ जीवन के ऐसे महत्त्वपूर्ण मोड़ हैं, जहाँ से किशोर के सम्पूर्ण जीवन की एक निश्चित दिशा निर्धारित होने लगती है। यदि बुराइयों ने अपना स्थान बना लिया, तो वह किशोर या युवा उसी शैली से अपना सम्पूर्ण जीवन जीना आरम्भ कर देता है।

हम सभी अनुभव कर रहे हैं कि आज की युवा पीढ़ी के बुरी तरह से कुव्यसनों और बुराइयों की धूल-मिट्टी जमती जा रही है और यह पीढ़ी उसमें फँसती जा रही है। दुर्भाग्यवश इस नई पीढ़ी का जीवन एकदम गलत दिशा की ओर बढ़ रहा है। वे अपनी भारतीय संस्कृति और सभ्यता से विमुख होकर आधुनिक सभ्यता के रंग में रंगते जा रहे हैं।

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उनकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति और अध्यात्म मार्ग पर चलने वाले लोग पिछड़े और निम्न स्तर के हैं। मेरे आतंरिक  विचार में, उनके इस प्रकार के विकृत दृष्टिकोण में वे स्वयं नहीं, अपितु उनके माता-पिता एवं अन्य बड़े लोग दोषी हैं, जो उन्हें अच्छाई व सभ्यता की शिक्षा ठीक प्रकार से नहीं दे पाये।

यह अनुभव सिद्ध तथ्य है कि परिवार में रहते हुए छोटी-से-छोटी बात का प्रभाव भी जन्म से ही बच्चों के कोमल चित्त पर पड़ने लगता है, जिसके आधार पर उनकी आदतों, स्वभाव व चरित्र का निर्माण होता है। माता-पिता बच्चों के लिए धन-सम्पदा एकत्र करने में लगे रहते हैं। इसके लिए वे बड़े से बड़े झूठ बोलने व बेईमानी करने में भी नहीं हिचकिचाते।

उनके व्यवहार में छल-कपट, क्रोध तथा अपने माता-पिता एवं बड़ों के साथ दुर्व्यवहार स्पष्ट दिखाई देता है। इस सब व्यवहार को बच्चे देखते हैं। उन्हें बिना सिखाए ही ये सब बातें सूक्ष्म रूप में उनके मस्तिष्क पर धूल-मिट्टी की तरह गहरा असर करती चली जाती हैं और धीरे-धीरे वह बच्चा वैसा ही बनता चला जाता है। जब वह 18-20 वर्ष का युवा होने लगता है, तब ये सब आदतें उसके अन्दर सीमेंट की तरह पक्की जम चुकी होती हैं। उसकी जीवन-शैली वैसी ही बन जाती है।

उस समय माँ-बाप कहते हैं कि हमने बच्चों के लिए इतनी मेहनत की, धन कमाया, पढ़ाई पर ध्यान दिया पर यह इतना झूठ क्यों बोलता है? हमारे साथ धोखे का व छल-कपट का व्यवहार क्यों करता है ? सबके साथ कड़वा क्यों बोलता है ? तब यह नहीं समझ पाते अथवा समझना नहीं चाहते कि हमारे अपने ही व्यवहार की धूल-मिट्टी उस पर पड़ती रही है और धीरे-धीरे उसके अन्दर घर कर गई है।

अतः माता-पिता और घर में अन्य बड़ों का यह आवश्यक धर्म (कर्त्तव्य) है कि वे अपने को सुधारते हुए अच्छे विचारों और संस्कारों की दौलत अपने बच्चों को धरोहर के रूप में सौंपें। भौतिक धन-सम्पदा की धरोहर तो अस्थायी है, जबकि अच्छे संस्कारों की दौलत अमूल्य और शाश्वत है, जिसे कोई भी चुरा नहीं सकता। एक कवि ने बच्चों के लिए धन-सम्पदा के संचय को व्यर्थ बताते हुए माता-पिता को सचेत करते हुए लिखा है:-

पूत कपूत तो क्यों धन सञ्चे, पूत सपूत तो क्यों धन सञ्चे ॥

यदि पुत्र अयोग्य और बुरा है, तो वह सारे धन को लुटा देगा। यदि वह योग्य है और उसमें अच्छी आदतें हैं, तो वह स्वयं धन कमा लेगा। अतः पुत्र के लिए धन इकट्ठा करना निरर्थक है। इसलिए माता-पिता की सबसे पहली और प्रमुख जिम्मेदारी यही है कि वे अपने बच्चों को भौतिक धन के बदले अच्छे संस्कारों की धरोहर प्रदान करें।

अपनों के प्रति अपनी बात
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और यह बात शत-प्रतिशत सत्य है कि यह संस्कार रूपी सम्पदा केवल माता-पिता और घर के बड़े लोग ही अपने बच्चों को दे सकते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों से यही दौलत बटोरी है। जो माता-पिता यह सोचते रहते हैं कि बचपन और युवावस्था के दिन बच्चों के खेलने और खाने के दिन हैं, वे स्वयं भी धोखे में हैं और बच्चों के साथ भी धोखा कर रहे हैं। महाभारत में महर्षि व्यास ने भी युवापीढ़ी के लिए अध्यात्म-शिक्षा को आवश्यक मानते हुए लिखा है:-

युवा एव धर्मशीलः स्याद्, अनित्यं खलु जीवितम् ॥

[शान्ति पर्व 44:17]

अर्थात् युवावस्था में ही मनुष्य को धर्मशील होना चाहिए। जीवन तो निश्चित रूप से अनित्य है। युवा धर्मशील तभी हो सकता है, जब उसे घर में अपने माता-पिता एवं अन्य बड़ों से इस विषय में शिक्षा मिले, परन्तु आज हम देखते हैं कि एक ही घर में रहते हुए भी बड़े-छोटों के विचारों के बीच भिन्नता पाई जाती है। उनमें आपस में विचारों का आदान-प्रदान ही नहीं हो पाता।

इसे ही आजकल generation gap की समस्या के नाम से जाना जाता है, जिसके कारण नई और पुरानी पीढ़ी के बीच खाई पैदा हो रही है। वे आपस में सामंजस्य नहीं बिठा पाते। माता-पिता धन-दौलत कमाने के चक्कर में समय निकाल ही नहीं पाते या अपने बड़प्पन के गर्व में बच्चों के साथ रौब या आदेशात्मक रूप से व्यवहार करते हैं। इससे बच्चे उनके साथ खुल नहीं पाते।

उनके बीच communication gap बना रहता है। न तो बच्चे माता-पिता के सामने अपनी समस्याएँ रख पाते हैं और न ही माता-पिता बच्चों की अच्छी-बुरी आदतों की ओर ध्यान दे पाते हैं। वे अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में शिक्षा दिलवाकर, ट्यूशन रखकर, अच्छे व फैशन के अनुकूल वस्त्र, सुविधायें आदि उपलब्ध करवाकर ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं।

उन्हें यह जानने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती कि बच्चे किस तरह के मित्रों के साथ खेल, पढ़ व घूम रहे हैं? उनका विद्यालय या कॉलेज में अपने अध्यापकों के साथ व्यवहार कैसा है? रूप में आपके सामने प्रस्तुत है। प्रयास किया गया है कि किसी भी एक माँ को अपने विचार जबरदस्ती न थोंपा जाए।

आजकल के बच्चों और युवकों का यही मानना है कि जीवन का उद्देश्य केवल खाना-पीना और मौज-मस्ती करना है। उनके विचार में पुनर्जन्म, जीवन में किये गये कर्मों के फल की प्राप्ति, सत्य, अहिंसा, नम्रता, बड़ों का आदर आदि धर्म (कर्त्तव्य) का पालन बेकार, निराधार और दकियानूसी बातें हैं। इसी आधार पर वे ईश्वर की सत्ता को भी नहीं मानते। यदि मानते भी हैं, तो बिल्कुल गलत रूप में।

मैं समझती हूँ कि केवल बच्चे ही नहीं, उनके माता-पिता भी इस क्षेत्र में भटके हुए हैं। मैं चाहती हूँ कि बच्चों के साथ-साथ माता-पिता के लिए भी यह जानना आवश्यक है कि वास्तव में हमारा जीवन है क्या ? जो हमें बाहर से दिखाई दे रहा है क्या समग्र (whole) जीवन उसी में समा जाता है ? जीवन के सभी पक्षों को समझकर उनके सर्वांगीण विकास के लिए क्या किया जाये ? इसी को ध्यान में रखते हुए मैंने अपनों के प्रति अपनी बात नामक ब्लॉग में इसे अंकित किया है।

विनम्र बनो

प्रस्तुत ब्लॉग में इन सब पर तथा इनसे सम्बन्धित अन्य बिन्दुओं के आधार पर जीवन के सभी पक्षों को समझाने का प्रयत्न किया गया है । सभ्य और सार्थक जीवन जीने के लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि इन सभी पक्षों की उन्नति के लिए हमें क्या-क्या करना चाहिए? वास्तव में मानवता (humanity) क्या है ? धर्म क्या है? ईश्वर है या नहीं ? इन सबका हमारे जीवन में क्या स्थान या आवश्यकता है?

जीवन में इन सबकी सार्थकत या निरर्थकता को जानकर ही व्यक्ति उनके प्रति अपना दृष्टिकोण निर्धारित कर सकता है और उसके अनुसार अपनी जीवन-शैली चला सकता है। पुस्तक के कलेवर को ध्यान में रखते हुए इन सब बिन्दुओं का एक साथ वर्णन करना तो संभव नहीं था। अतः इस प्रथम भाग के आरम्भ में मानव जीवन के तीन पक्षों को मोबाइल यन्त्र का उदाहरण देकर युक्तिपूर्वक और वैज्ञानिक आधार पर समझाने का प्रयास किया गया है।

इसके पश्चात् प्रायः उन विषयों का चयन किया गया है जिनका सीधा सम्बन्ध विद्यार्थी जीवन (student life) और ब्रह्मचर्य (celibacy) की सुरक्षा व उन्नति से है। इन सबको समझकर और आचरण में लाकर बच्चों की पृष्ठभूमि ऐसी बन जाती है कि वे जीवन के दूसरे पक्षों से सम्बन्धित बातों को भी आसानी से समझकर आचरण में ला सकते हैं।

वास्तव में हमारे परिवारों, समाज, राष्ट्र, संस्कृति और सभ्यता का आधार यह नई पीढ़ी ही है। यदि इनका जीवन सही दिशा की ओर बढ़ने लगेगा तो समाज और राष्ट्र स्वाभाविक रूप से उन्नत होते जायेंगे। क्योंकि ‘आज के बच्चे कल के नेता’ अर्थात् भविष्य में समाज और राष्ट्र की बागडोर ये बच्चे और युवा ही संभालेंगे। अतः आशा करता हूँ की अपनों के प्रति अपनी बात को आप पूर्णतया समझ कर अपने जीवन में उतारेंगे।

दान देना सीखो क्योंकि दान न देने वाला भी पापी ही होता है 

1 thought on “अपनों के प्रति अपनी बात”

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