सत्य का समर्थन

सत्य का समर्थन

 

यह सर्वविदित है कि धर्म एवं अध्यात्म से संबंधित सभी विद्वान् सत्य बोलने पर विशेष बल देते । यहाँ तक कि वेद विरुद्ध मत-पंथ भी वाणी की सत्यता को ही उचित मानते हैं। धार्मिक आयोजनों (सत्संगों) में प्रवचन करने वाले शास्त्रों का प्रमाण देकर कहते हैं ‘सत्यमेव जयते नानृतम्’ अर्थात् सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं।

साथ ही सत्यवादी को पुण्यात्मा और झूठ बोलने वालों को पापी बताते हैं। फिर भी अधिकांश व्यक्ति असत्य बोलते हैं, इसलिये कि जब लौकिक हित साधन में झूठ बोलना उनके लिये सहायक बनता है तो ‘सत्यमेव जयते’ वाली मान्यता पर उन्हें विश्वास नहीं हो पाता 

हमारे इस कथन से भले ही कोई सहमत न हों वर्तमान में अधिकांश व्यक्ति झूठ बोलते हैं। इनमें वे भी अनेक सम्मिलित हैं जो अपने आपको ईश्वरभक्त तथा धर्मात्मा मानते हैं। 1

वैसे तो कुछ को छोड़ कर सभी व्यापारी उद्योगपति, राजनीतिक आदि असत्य बोलते ही हैं, किन्तु मध्ययुग से तथाकथित धर्म-अध्यात्म संबंधी मत- पंथों के प्रवर्तकों ने भी परिस्थिति एवं अज्ञानतावश झूठ बोला और उनके अनुयायी आज भी निर्भीक होकर सबके सामने असत्य बोलते हैं। अपने इस कथन की पुष्टि सप्रमाण हम आगे करेंगे ।

 

मनुष्य असत्य का आश्रय क्यों लेता है ?

हमारे विश्वास के अनुसार मनुष्य स्वभाव से सत्यप्रिय होता है, असत्य तो इसे किन्हीं कारणों से बोलना पड़ता है। यदि सत्य बोलने से इसकी कोई हानि होती है तो ही यह असत्य बोलता है अन्यथा नहीं। कड़वा कुनैन खाने की कोई इच्छा नहीं करता, किन्तु मलेरिया होने पर खाना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार से मनुष्य असत्य भी विवश होने पर ही बोलता है।

अतः हमारी दृष्टि में कुनैन न खाने की सम्मति देने की अपेक्षा मलेरिया से बचने का उपाय बताना अधिक उपयुक्त हम ऐसे सहस्रों व्यक्तियों को जानते हैं जो असत्य बोलते हैं और बीसोंवर्षो से यह पढ़ते सुनते आ रहे हैं कि सदा सत्य ही बोलना चाहिये। अपने चित्रकारी कार्यकाल की अवधि में पौराणिक तथा जैन मन्दिरों में एवं वैदिकधर्म प्रचार करते हुए आर्यसमाज के सत्संगों में हमने सत्य की महिमा बहुत सुनी और गाई, किन्तु हमें श्रोताओं के जीवन में तत्संबंधी कोई विशेष परिवर्तन देखने को नहीं मिला ।

एक स्थान पर सत्य की महत्ता विषयक प्रवचन सुनने वालों से जब हमने पूछा कि क्या आप अब सदा सत्य ही बोलेंगे? तो उत्तर मिला ये प्रवचन करने वाले ‘महाराज’ हमारी दुकान पर आकर बैठें तब इन्हें पता लगे हमें किन- किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।

उनका कहना था कि जिन्हें दूसरों से अन्न-वस्त्र, आवास आदि की आवश्यक सुविधाएँ बिना किसी परिश्रम के प्राप्त हो जावे, उन्हें भले ही असत्य न बोलना पड़े; शेष तो किसी न किसी अनुपात में चाहे कभी-कभी ही सही-झूठ अवश्य बोलते हैं। आज के में सर्वथा सत्य बोल कर कोई कार, कोठी का स्वामी नहीं हो सकता ।

युग भले ही कोई बुरा माने हम तो स्पष्ट कहते हैं वर्तमान के अधिकांश धार्मिकस्थान, विद्यालय, अनाथाश्रम, उद्योग, व्यापार आदि झूठ बोलने वालों के अधिकार में हैं । इतना ही नहीं सत्य बोलने का उपदेश करने वाले अनेक वक्ता भी असत्य बोलने वालों के आश्रय पर पल रहे हैं ।

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम

क्या असत्य बोलना अनिवार्य है ?

मानव जीवन का परम लक्ष्य परमानन्द की प्राप्ति है, इसके लिये असत्य बोलने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। झूठ तो उन्हें बोलनी पड़ती है जो अपने जीवन में सांसारिक सुखों को प्राथमिकता देते हैं। अत: असत्य से बचने की इच्छा रखने वालों को विषयासक्ति से बचना चाहिये, क्योंकि इन्द्रिय सुखों की कामना मनुष्य से झूठ बुलवाती है।

सत्य के समर्थन में जो प्रचार हुआ और हो रहा है उसका चाहिये उतना अनुकूल प्रभाव इसलिये नहीं पड़ा तथा पड़ रहा है कि वक्ता यह तो कहते हैं-असत्य मत बोलो, किन्तु सत्य का पालन करने में आने वाली कठिनाइयों को दूर करने का उपाय चाहिये उतना नहीं बताते; इसलिये उनके उपदेशों का विशेष लाभ नहीं हो पाता ।

निःसन्देह असत्य बोलना वाणी का दुरुपयोग है-सत्य ही बोलना चाहिये, किन्तु वर्त्तमान के वातावरण को देखते हुए हम कह सकते हैं कि बोलते समय देश, काल, परिस्थिति के अनुसार हित अहित का ध्यान रखना भी बहुत आवश्यक है ।

यह ठीक है कि परिस्थितियों का जनक स्वयं मनुष्य ही है, किन्तु हर परिस्थिति एक ही व्यक्ति द्वारा उत्पन्न नहीं हुआ करती । हम व्यावहारिक जीवन में देखते हैं कभी-कभी दूसरों के कारण भी संक्ट उपस्थित हो जाते हैं। जैसे- आप अपने स्कूटर, कार आदि वाहन को चाहे कितना ही संभाल कर क्यों न चलावें; फिर भी आगे पीछे से कोई आपको टक्कर मार सकता है ।

कब क्या बोला जावे ? यह (सर्व साधारण के लिये) तात्कालिक परिस्थिति पर निर्भर करता है। हम इतना स्पष्ट और कर देना चाहते हैं कि सब मनुष्यों के सामने समान परिस्थितियाँ नहीं हुआ करतीं ।

शास्त्रों में लिखे अनुसार किसी प्राणी को कभी कष्ट नहीं देना चाहिये, किन्तु परिस्थितिवश (देश, धर्म अथवा स्वरक्षा हित) आततायियों का वध करना तथा दुष्टों को दण्ड देना पड़ता है। श्री राम- श्री कृष्णादि हमारे महापुरुषों ने ऐसा किया भी था । वेद एवं मनुस्मृति आदि अनेक ग्रंथों में दुष्टों को दण्ड देने का आदेश अनेक स्थानों पर विद्यमान है। इसी प्रकार देश, धर्म, संस्कृति के लिये यदि कोई सत्य संकट का कारण बने तो असत्य का आश्रय लिया जा सकता है, इसे आपद्धर्म कहते हैं।

सत्य का समर्थन

सत्य की समस्या

हमारे विचार से सांसारिक सुख सुविधाओं के लिये असत्य बोलना पाप है क्योंकि विषयाधीन व्यक्ति अपने इन्द्रिय सुखों की प्राप्ति हेतु झूठ बोल कर मनुष्यों को धोखा देते और दुखी करते हैं, किन्तु इस भ्रष्टाचार के युग में न चाहते हुए भी (अनेक व्यक्तियों को) असत्य बोलना पड़ता है। यह राज्यव्यवस्था का भी दोष है, केवल असत्यवादियों का ही नहीं।

सार्वजनिक जीवन में हमने प्रत्यक्ष अनुभव किया है चाहे मनुष्य कितना भी ईमानदार क्यों न हो, उसके अनेक ऐसे कार्य हैं जो बिना रिश्वत दिये तथा बिना असत्य बोले पूरे हो हीनहीं सकते । इसीलिये हम कहते हैं-जिन पर परिवार, समाज एवं राष्ट्र का उत्तरदायित्व होता है उनके सामने ‘सत्य की समस्या’ बनी रहती

जिन्हें अपने लिये अन्न, दूध, फल, वस्त्र, नल, (जल) बिजली, फोन, वाहने तथा आवासादि का प्रबंध नहीं करना पड़ता, उन्हें असत्य बोलने की आवश्यकता ही नहीं होती । ऐसे व्यक्ति जब यह कहते हैं कि हम कभी झूठ नहीं बोलते तो हमें उनके भोलेपन पर हँसी आती है। यदि वे आज के युग में अपनी हर आवश्यकता की पूर्ति के लिये आय की दृष्टि से कोई कार्य- व्यवसाय अपना लेवें तो उनकी प्रिय सत्यवादिता का परिक्षण हो जावे।

हम चाहते उन सभी कारणों को दूर करने की अत्यंत आवश्यकता है जो मनुष्य को असत्य बोलने पर विवश करते हैं। इसके लिये तपस्वी विद्वानों को चाहिये वे अधिकाधिक व्यक्तियों को भोग से हटा कर योग की ओर प्रवृत्त करें, एवं उन परिस्थितियों को बदलने का उपाय बतावें जो असत्य बुलवाती हैं। तब ही सत्य को आचरण से स्वीकारना संभव होगा, अन्यथा केवल सत्य की महिमा गा कर मानव समुदाय को सत्यवादी नहीं बनाया जा सकता ।

 

कारण के बिन कोई कार्य नहीं होता

हम स्पष्ट कर चुके हैं कि मुख्यतः सांसारिक सुखों को भोगने की प्रबल इच्छा एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण ही मनुष्य झूठ बोलता है। वैसे स्वभाव से तो सत्यप्रिय होता है। अर्थात् कोई भी व्यक्ति अकारण ही असत्य बोलना पसंद नहीं करता। अतः जिन कारणों से असत्य बोलने के लिये विवश होना पड़े उन कारणों से बचना अति आवश्यक है ।

हमारा यह दृढ विश्वास है कि सत्य बोलने पर बल देने वाले विद्वान् यदि असत्य से बचने के बुद्धिसंगत उपाय बतावें तो निश्चय ही अधिकाधिक व्यक्ति सत्यवादी हो सकते हैं। अन्यथा (इस दार्शनिक अकाट्य सिद्धान्त के अनुसार कि कारण के रहते कार्य से बचना कठिन है) उनका कथन निरर्थक ही माना जावेगा; चाहे फिर शास्त्रों के प्रमाण द्वारा सत्य बोलने की पुष्टि कोई कितनी भी क्यों न करें-लाभ नहीं हो सकता ।

यह तो हमने व्यावहारिक जीवन के ‘सत्य का समर्थन किया; अब हम धर्म एवं अध्यात्म संबंधी बोले जाने वाले ‘सत्य’ की ओर आप पाठक महानुभावों का ध्यान आकर्षित करते हैं।

 

मत-पंथों का धर्म तथा अध्यात्म संबंधी स्वीकार्य सत्य

हमें यह लिखते हुए कष्ट की अनुभूति हो रही है कि अपने आपको धर्म तथा अध्यात्म से संबंधित समझने वाले भी असत्य बोलते रहे और बोल रहे हैं, जब कि इन्होंने झूठ बोलना पाप माना है ।

महाभारत काल के पश्चात् उत्पन्न हुए वेद विरुद्ध मत-मतांतरों में से कुछ मतों का स्वीकार्य सत्य (जो कि परस्पर विरोधी है) हम संक्षेप से लेखबद्ध कर रहे हैं, इसे पढ़ कर आपको ज्ञात हो जायेगा-धर्म तथा अध्यात्म के नाम पर कितना असत्य बोला गया, और बोला जा रहा है।

पौराणिक बंधु सृष्टिकर्ता ईश्वर के अस्तित्त्व पर विश्वास करते हैं; और मानते हैं कि जब-जब धर्म का ह्रास होता है तथा संत जन सताये जाते हैं, तब- तब ईश्वर अवतार लेता है। अर्थात् श्रीराम- श्री कृष्णादि के रूप में प्रकट होकर ‘ईश्वर’ धर्म की रक्षा एवं दुष्टों का संहार करता है। किन्तु जैन मतानुयायी, कबीरपंथी आदि कहते हैं – सृष्टिकर्ता ईश्वर नाम की कोई सत्ता है ही नहीं।

पौराणिक, ईसाई, इस्लामादि मतों ने सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय के सिद्धांत को स्वीकारा है। परंतु जैन मत, कबीरपंथ आदि सृष्टि को अनादि-अनन्त बताते हैं इनमें कोई-कोई सत्यवादी हो सकता है, सब नहीं ।

दिगम्बर जैन आम्नाय से संबंधित महानुभाव स्त्रियों को तीर्थङ्करों की मूर्तियों का स्पर्श नहीं करने देते, जबकि श्वेताम्बर जैन आम्नाय में स्त्रियाँ मूर्तियों पर चंदन लगाती हैं – दिगम्बर जैनमत की मान्यतानुसार स्त्री के शरीर में रहने वाले जीव की मुक्ति नहीं होती और श्वेताम्बर जैन बंधुओं का विश्वास है- स्त्रियों की आत्माएँ भी मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं। इन दोनों में एक असत्यवादी अवश्य है ।

श्वेताम्बर जैन मतानुयायी स्थानकवासी तथा दिगम्बर जैन मत से संबंधित तारण तरण पंथी मूर्तिपूजा का निषेध करते हैं। जैन मत में दिगम्बर आम्नाय का बीसपंथी-तेरापंथी और श्वेताम्बर आम्नाय का तीन थुई, चार थुई, स्थानकवासी वाला भेद विद्यमान है। इसी प्रकार ईसाई मत में मुख्यरूप से रोमन कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेण्ट एवं इस्लाम मत में सिया-सुन्नी परस्पर एक दूसरे की अनेक मान्यताओं से सहमत नहीं हैं । यही अवस्था बौद्धादि । यह सब ही सत्यवादी कैसे माने जा सकते हैं ?

मतानुयायियों की भी है पौराणिक मत के प्रमुख तीन संप्रदाय शैव, शाक्त और वैष्णव सैद्धांतिक रूप में धर्म एवं अध्यात्म संबंधी परस्पर विरोधी विचार स्वीकारे हुए हैं। स्वामी शंकराचार्य केवल एक ब्रह्म की सत्ता का समर्थन करते हैं, जीवों के अस्तित्त्व को नहीं मानते । किन्तु वैष्णव मतानुयायी ईश्वर से पृथक् जीवों की विद्यमानता पर विश्वास करते हैं। स्वामी शंकराचार्य, माधवाचार्य, राघवाचार्य, रामानुजाचार्य, बल्लभाचार्य आदि पौराणिकों के मान्य धर्मगुरु अनेक मान्यताओं में एक मत नहीं हैं। जब कि ये सभी मत-पंथ सत्य के समर्थक हैं, और एक दूसरे के विपरीत बोलते रहे तथा बोलते हैं।

वैदिक वर्ण व्यवस्था 

क्या यह हिंसा है ?

मुमुक्षु के लिये सत्य की भाँति अहिंसा का पालन करना भी अनिवार्य बताने वाले ऋषियों का दृष्टिकोण विशेष बुद्धि के अभाव में समझना बहुत कठिन । उदाहरणार्थ-मनुस्मृति अध्याय ८ श्लोक ३५० का अर्थ करते हुए महर्षि है दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के छटे समुल्लास में लिखा है-

“चाहे गुरु हो चाहे पुत्र आदि बालक हों चाहे पिता आदि वृद्ध, चाहे ब्राह्मण और चाहे बहुत शास्त्रों का श्रोता क्यों न हो जो धर्म को छोड़ अधर्म में वर्तमान, दूसरे को बिना अपराध मारने वाले हैं उनको बिना विचारे मार डालना अर्थात् मार के विचार करना चाहिये ।”

आगे ३५१ वें श्लोक का अर्थ करते हुए लिखा है- “दुष्ट पुरुषों के मारने में हन्ता को पाप नहीं होता…’ तत्पश्चात् श्लोक ३७१ तथा ३७२ का जो अर्थ किया उसका भाव है-व्यभिचारिणी स्त्री को कुत्तों से कटवा कर मरवा डालें तथा व्यभिचारी पुरुष को भस्म करवा देवें श्लोक ४२० वें के अर्थ में लिखा है- “राजा इस प्रकार सब व्यवहारों को यथावत् करता हुआ सब पापों को छुड़ाके परमगति मोक्ष सुख को प्राप्त होता है।”

सत्यार्थप्रकाश के दशम समुल्लास में महर्षि दयानन्द लिखते हैं- “यह राजपुरुषों का काम है कि जो हानिकारक पशु वा मनुष्य हों उनको दण्ड देवें और प्राण (से) भी वियुक्त कर दें।” महर्षि पतञ्जलि की मान्य ८१ प्रकार की हिंसा एवं महर्षि मनु की उक्त व्यवस्था का पारस्परिक मेल अव्यावहारिक व्यक्तियों को दिखाई नहीं देता |

हमारी दृष्टि में जैसे प्रजा का संरक्षण करने वाले राजा के लिये दुष्ट मनुष्यों तथा हानिकारक पशुओं को मारना मोक्ष प्राप्ति में बाधक नहीं है, वैसे ही देश, धर्म, संस्कृति की रक्षार्थ तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में असत्य का आश्रय लेने पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये ।

 

सत्य की उपयोगिता

जहाँ सर्वत्र छल-कपट का वातावरण हो वहाँ विशुद्ध सत्य का पालन हर व्यक्ति के लिये हितकर नहीं हो सकता। नीतिशास्त्र के आधार पर आर्य भजनोपदेशक श्री पं० प्रकाशचंद्र जी ‘कविरत्न’ने उचित ही लिखा है-

काँटे से ही काँटा विष से ही विष होता दूर,

कपटी कपट के ही चंगुल में आता है ।

कपटी से सीधेपन का जो व्यवहार करे,

वह ‘प्रकाश’ सर्वनाश अपना कराता है ॥

इतिहास साक्षी है असत्य का आश्रय लेकर ही माता देवकी ने श्रीकृष्ण एवं मेवाड़ की पन्नाधाय ने उदयसिंह के प्राण बचाये थे। हम उस सत्य को असत्य से भी अधिक अनिष्टकारी मानते हैं जो देश, धर्म, संस्कृति के लिये कोई संकट उपस्थित करे दे । महाभारत कर्णपर्व अध्याय ६९ में योगीराज श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं-

सर्वस्वापहारे तुं, वक्तव्यमनृतं भवेत्

  तत्रानृतं भवेत्सत्यं सत्यं चाप्यनृतं भवेत् ॥ ३३ ॥

तादृशं पश्यते बालों यस्य सत्यमनुष्ठितम् ॥ ३४ ॥

भवेत्सत्यमवत्तव्यं वक्तव्यमनुष्ठितम्

न सत्यानृते विनिश्चित्य, ततो भवति धर्मवित् ॥ ३५॥

” (दुराचारी हिंसक द्वारा) सर्वस्व हरण उपस्थित होने पर झूठ ही बोलना योग्य होता है (झूठ बोलना कर्तव्य बन जाता है) वहाँ पर झूठ सत्य और सत्य झूठ हो जाता है। जो सत्य का अनुष्ठान करना चाहता है, ऐसे बालक को सत्य का यही तत्त्व समझना चाहिये । यदि कहीं पर सत्य बात का न कहना ही ठीक हो तो वहाँ पर किये हुए सत्य को नहीं ही कहना चाहिये । इस प्रकार झूठ और सत्य के तत्त्व का निश्चय करके मनुष्य धर्मज्ञ होता है।”

सत्य की रक्षा के उपाय

इस ब्लॉग में व्यक्त किये गये विचार हो सकता है किसी को परस्पर विरोधी लगें, किन्तु गहराई से अध्ययन करने पर हमारी मूल भावना को समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी ।

हम ऐसा मानते हैं कि शारीरिक सुखों की कामना पूर्ण करने हेतु जो असत्य का आश्रय लेते हैं, वे पाप के भागी होते हैं, क्योंकि विषयासक्ति जीवात्मा के लिये बंधन का कारण है। हम जीवात्माओं को यह मानव तन अति शीघ्र बारंबार प्राप्त नहीं हुआ करता। हमें अपने इस अमूल्य अवसर का लाभ अवश्य ही उठाना चाहिये ।

असत्य बोलना पाप है और पाप का फल पापी को भोगना पड़ता है। अतः जिन कारणों से हमें असत्य बोलने के लिये विवश होना पड़े, उनसे बचना बुद्धिमानी है। अर्थात् यदि जीवित रहने के लिये हम भोजन करें, रसना की तृप्ति के लिये नहीं । तन ढकने के लिये वस्त्रों का उपयोग करें, तन को सजाने के लिये नहीं। सभी प्रकार के दुर्व्यसनों से बचें, गलत शौक कोई भी न रखें। अनावश्यक सामाजिक रूढ़ियों; बाहरी ठाठ-बाट (लोक दिखावे) झूठी शान के लिये व्यर्थ का व्यय न करें तो सत्य बोल कर भी हम संसार में जीवित रह सकते हैं।

अब रहा प्रश्न राज्यव्यवस्था के दोष का उसे दूर करने के लिये जनमत तैयार करें। भ्रष्टाचार उन्मूलन हेतु किये जाने वाले प्रयासों को हर प्रकार से पूर्ण समर्थन दें। यदि हम थोड़े कष्ट सहिष्णु बनें तो रिश्वत, असत्य जैसे पापों से अपने आपको बचा सकते हैं ।

वर्तमान के सामाजिक स्तर को देखते हुए अपने लिये उपर्युक्त अवस्था स्वीकारना सामान्य कार्य नहीं है, यह ठीक है; किन्तु सत्य रूपी पुण्य के समक्ष असत्य का आश्रय लेकर प्राप्त किये गये ठाठ बाट (भौतिक वैभव) सर्वथा तुच्छ है यह भी न भूलें । यदि कोई हमें गरीब कहे तो (हमारी दृष्टि में) कोई बुराई नहीं है, किन्तु बेईमान कहलाने से तो मर जाना ज्यादा अच्छा है।

 

हार्दिक निवेदन

जो सत्य बोलने के लिये श्रोताओं को प्रेरित करते हैं उन विद्वानों से हमारा निवेदन है- आप जहाँ तक हो सके अपनी आवश्यकताएँ कम से कम रखिये । अपने शरीर सुखों में सहायक किसी वस्तु की किसी से याचना मत कीजिये । जीवन में तप और त्याग को स्थान दीजिये। समय पर जो मिले उसीसे निर्वाह करें तो आपकी वाणी का प्रभाव अवश्य पड़ेगा। संबंधित व्यक्ति सत्य की महत्ता को स्वीकारेंगे।

जब आप अधिकाधिक मौतिक सुखों की चाहना रखेंगे तो उनकी पूर्ति के लिये वे ही आपका सहयोग कर पायेंगे, जिन की आय का स्रोत प्रायः असत्य पर आधारित होगा। यदि आप से तप-त्याग का जीवन व्यतीत नहीं हो सकता तो जिनसे धन प्राप्त करना चाहते हैं उनके समक्ष सत्य बोलने का उपदेश मत कीजिये; अन्यथा वह प्रवचन नहीं – प्रलाप होगा ।

जिन ऋषि-मुनियों ने ‘सत्य का समर्थन’ किया वे पूर्णतः स्वावलम्बी थे, उन्हें अपने जीवन यापन के लिये किसी के सहयोग की आवश्यकता नहीं रहा करती थीं । वे जंगलों में पर्णकुटियाँ बना कर रहते थे, कंद-मूल-फल का आहार करते थे । नदियों-स्रोतों का जल पीते थे, पालित गऊओं के दूध का सेवन तथा घृत से हवन करते थे। उनको भौतिक सुखों की तनिक भी आवश्यकता नहीं होती थी ।

आपको कार, स्कूटर आलीशान भवन, पंखे, पलंग, गदेले, दूध-फल- मेवा-मिष्टान आदि चाहिये तो आज के युग में ये सब कुछ असत्यवादियों से ही प्राप्त हो पायेंगे। माँसाहार को बुरा मानने वालों को चाहिये वे माँसाहारियों के घर का अन्न-जल ग्रहण न करें। जिससे कि उन्हें यह अनुभव हो उनका आहार दोषयुक्त है। इसी प्रकार असत्यवादियों को पापी बताने वालों का कर्त्तव्य है कि वे उनसे कोई भी सहयोग न लेवें।

जिससे कि उन्हें प्रतीति हो उनका असत्य बोलना अनुचित है। यदि इतना सामर्थ्य न हो तो केवल यही कहा करें ‘जहाँ तक हो सके मनुष्य असत्यरूपी पाप से बचें।’ अन्यथा जैसे नवीन वेदांती सिद्धांतरूप में संसार को मिथ्या स्वप्नवत् एवं व्यवहार में सत्य मानते हैं। वैसे ही उन महानुभावों को समझा जावेगा जो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये असत्यवादियों का यश गा के ‘सत्य का समर्थन’ करते हैं ।

उपदेश आचरण से स्वीकारा हो तो ही प्रभावी होता है, अन्यथा जीवनभर कहते रहो कुछ भी लाभ नहीं होगा। आप उस डॉक्टर की कल्पना कीजिये- जिसका कुछ भी प्रभाव न हो वही ओषधि रोगी को निरंतर देता ही जावे, उसे क्या बुद्धिमान कहा जावेगा ? पाठक विचार करें।

एक ओर तो मन्दिर, धर्मशाला, अस्पताल, अन्नक्षेत्र, अनाथाश्रम आदि अथवा अपनी सुविधाओं के लिये लाखों रुपयों की माँग करें तथा दूसरी ओर कहें असत्य बोलना पाप है, तो हम आपको कहना चाहते हैं-आज के युग में सदा सर्वथा सत्य बोलने वाले आपको लाखों रुपये नहीं दे पायेंगे ।

संसार को सत्य का उपदेश करने वाले कम से कम में अपना निर्वाह करना सीखें, तब ही उनकी वाणी का प्रभाव हो सकता है। अन्यथा कोई भले ही अपने आपको सत्य प्रचारक मानते-बताते रहें: श्रोताओं के जीवन में तो कोई परिवर्तन नहीं आ पायेगा ।

विलासिता के कीचड़ में फँसे मानव समुदाय को तप, त्याग, संयम का जीवन जीने वाले उपदेशक ही निकाल सकते हैं, विलासी वक्ता नहीं । यमनियमादि का उपदेश करना जितना सरल है उतना आचरण से ‘अष्टाङ्गयोग’ की पुष्टि करना नहीं। किसी कवि ने ठीक ही कहा है-

कथनी मीठी खाण्ड सी, करनी विष की लोय ।

कथनी तज करनी करे, विष से अमरित होय ॥

इतना स्पष्ट लिखने अथवा कहने वाले निश्चय ही आलोचना के पात्र होते हैं। यह जानते हुए भी हम निवेदन कर रहे हैं आज के युग में वाणी का उपयोग करते समय हित-अहित को ध्यान में अवश्य रखना चाहिये ।

दान की महिमा – THE GLORY OF DONATION

क्या आपको अपनी मान्यता पर पूर्ण विश्वास है ?

छान्दोग्योपनिषद् पञ्चमं प्रपाठक ग्यारहवें खण्ड श्लोक ५ के आधार पर अनेक वक्ता अपने मनमाने ढंग से श्रोताओं के समक्ष कहते हैं कि महर्षि उद्दालक-महाराजा अश्वपति का आतिथ्य ग्रहण करने हेतु इसलिये तैयार नहीं हुए, क्योंकि राजा के कोष में पापियों का धन भी जमा होता है ।

यद्यपि महर्षि उद्दालक ने ऐसा नहीं कहा-फिर भी इस घटना के माध्यम से अपने प्रवचन को रोचक और प्रभावी बनाने वाले उपदेशकों से हम कह रहे हैं- यदि आप सचमुच ही यह मानते हैं कि पापियों का अन्न खाने से बुद्धि विकृत हो जाती है तो आपको असत्यवादियों से धन नहीं लेना चाहिये, क्योंकि आपकी दृष्टि में वे पापी होते हैं

 

सत्य संबंधी शास्त्रोक्त मान्यता

वेद, उपनिषदों, दर्शनों आदि आर्षकोटि के ग्रंथो में असत्य बोलने की पुष्टि कहीं भी नहीं है । वहाँ तो सर्वथा सत्य बोलने पर ही बल दिया गया है, किन्तु रामायण-महाभारत में अनेक स्थानों पर सत्य और असत्य (दोनों) का समर्थन मिलता है। अर्थात् सत्य की महिमा तथा असत्य की उपयोगिता (दोनों) का उल्लेख है ।

हमने इस पुस्तिका में जो विचार व्यक्त किये उनका संबंध वर्तमान के व्यावहारिक जीवन से है, शाश्वत मान्यता के साथ नहीं । आज अधिकांश मनुष्यों को अनेक बार प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, ऐसी स्थिति में देश, धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिये कभी असत्य का आश्रय लेते समय किसी के मनोबल का ह्रास न होने पावे, इसी भावना से युक्त होकर हमने यह पुस्तिका लिखी है ।

विशेष परिस्थिति में परोपकारार्थ असत्य बोलना आपद्धर्म है, धर्म नहीं । शास्त्रोक्त मान्यतानुसार धर्म तो सत्य बोलना ही है ।

 

हमारा अनुभव

मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है यह अपने हित अहित का ध्यान अवश्य रखता है, किन्तु अल्पज्ञ होने के कारण कर्तव्याकर्तव्य का पालन कभी-कभी ठीक से नहीं कर पाता, और शास्त्रोक्त मान्यताओं को समझने में भूल हो जाने से दुविधा में पड़ जाता है।

इस संसार में आज लगभग सभी विषय विवादास्पद बने हुए हैं, अर्थात् विद्वान् अधिकांश मान्यताओं में एक मत नहीं हैं। ऐसी स्थिति में किसी मान्यता को निश्चित करने के लिये हर व्यक्ति से समर्थन नहीं मिल सकता ।

जगत् में हम जो कुछ देख रहे हैं अथवा अपने व्यावहारिक जीवन में हमने अब तक जो प्रत्यक्ष अनुभव किया उसके आधार पर ये विचार व्यक्त किये है। इन विचारों से सबका सहमत होना आवश्यक नहीं है। मन-वचन-कर्म की समानता के साथ हम अपने स्तर पर वैदिकधर्म प्रचार कार्य कर रहे हैं, और जब तक जीवन है करते रहेंगे, यह हमारा दृढ निश्चय है।

वास्तविकता पर आधारित हमारे इन विचारों को अनेक साथियों ने उपयोगी बताया है। हमें अपने आप पर पूर्ण विश्वास है, कि हमने अन्यथा कुछ नहीं लिखा। वास्तव में जो हो रहा, उसीका उल्लेख किया है। 

स्वाध्याय

स्वस्थ-चिंतन

धर्म-अध्यात्म के साथ सत्य का घनिष्ठ संबंध है, हमारे विश्वास के अनुसार इस मान्यता से कोई असहमत नहीं हो सकता । भूमण्डल पर जितने मत-पंथ, संप्रदाय हैं उनसे संबंधित गुरु, आचार्य, विद्वान्, संत-महात्मा आदि कभी यह नहीं कहते कि कल्याण के अभिलाषी मनुष्यों को असत्य बोलना चाहिये ।

अब विचारणीय यह है कि जब कोई भी मत-पंथ असत्य का समर्थन नहीं करते फिर अधिकांश मनुष्य सत्य क्यों नहीं बोलते। और तो और जो अपने आपको धर्म-अध्यात्म से संबंधित मानते हैं वे भी झूठ बोलते पाये जाते 1 क्या कोई दावे के साथ यह कह सकता है कि मन्दिरों, चर्चों, मस्जिदों, गुरुद्वारों में जाने और तीर्थों पर स्नान करने वाले सभी व्यक्ति पूर्ण सत्यवादी हैं। नहीं तो माना जावेगा की सत्य बोलने का उपदेश पुस्तकों तथा वाणी तक सीमित है, इसका आचरण से कोई संबंध नहीं है।

हम यह मानते हैं कि धरती पर ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो कभी सत्य न बोलता हो । अर्थात् सत्य बोलना सबके लिये अनिवार्य है। किन्तु अधिक व्यक्ति सत्य के साथ झूठ भी बोलते हैं, ऐसा क्यों ?

इस पुस्तिका में उन कारणों पर उत्तमता से प्रकाश डाला है, जो मनुष्य को असत्य बोलने के लिये विवश करते हैं। केवल इतना कह देना कि सत्य बोलना चाहिये पर्याप्त नहीं है। जब तक सत्य बोलने में आने वाली बाधाओं को दूर करने के उपाय नहीं बताये जायें तब तक मनुष्य सत्यवादी नहीं हो सकता ।

अपने धर्मगुरुओं- आचार्यों से यह सुनकर और अपने मान्य ग्रंथों में यह पढ़कर कि असत्य बोलना पाप है, फिर बहुत व्यक्ति झूठ क्यों बोलते हैं ? इस ब्लॉग से यह जाना जा सकेगा।

आश्चर्य तो यह है कि ‘सत्यमेवजयते’ का उपदेश करने वाले आज के अनेक वक्ता स्वयं झूठ बोलते हैं। अर्थात् कथनी और करनी की असमानता वाले तथाकथित विद्वानों को इस समय कमी नहीं है। ऐसी स्थिति में श्रोता सत्य ही बोलेंगे यह विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता। मनुष्यों को सत्यवादी बनने के लिये क्या करना चाहिये, हमने यह इस ब्लॉग में बता दिया है । 

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