मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का पावन चरित्र आज लाखों वर्षों बाद भी जन-जन को प्रेरणा व मार्ग दर्शन कर रहा है, इसका सर्वातिशय कारण है उनका वैदिक-मर्यादामय समस्त जीवन । बचपन से लेकर जीवन पर्यन्त उनके जीवन के जब हम किसी भी भाग पर दृष्टिपात करते हैं तो उनके जीवन में कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं मिलता।

चाहे उनका विद्यार्थी जीवन हो, या गृहस्थ, चाहे प्रशासन का रूप हो, या क्षत्रिय रूप, अथवा पिता-पुत्र, पति-पत्नी, राजा प्रजा, स्वामी सेवक, गुरु-शिष्य या भ्रातृ रूप हो, सर्वत्र एक नियमित आदर्श जीवन मिलने से ही उनके नाम के साथ मर्यादा पुरुषोत्तम नाम जुड़ा है, जो उनके पावन उज्ज्वल जीवन का परिचायक है।

उनके इस विशेषण को आज तक कोई महापुरुष सर्वांश में नहीं अपना सका है। इसलिए महर्षि वाल्मीकि ने नारद मुनि से जब यह पूछा- “ इस मर्त्यलोक में कौन ऐसा महापुरुष है कि जो पराक्रमी, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी, दृढ़वती, सच्चरित्र, परोपकारी, विद्वान्, शक्तिमान् जितेन्द्रिय समदर्शी, तथा अकुतोभय आदि गुणों से सम्पन्न हो ।

” तब इसके उत्तर में नारद जी ने कहा—-भगवन् ! यद्यपि आपने जिन सद्गुणों का कथन किया है, उनका किसी व्यक्ति में समन्वित रूप में मिलना अति दुर्लभ है, पुनरपि इक्ष्वाकुवंश में राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम ही आजकल ऐसे दिव्यगुणों से सम्पन्न हैं, जिनकी विमल धवल यशः पताका मर्त्यलोक में सर्वत्र निर्विरोध फहरा रही है।

श्रीराम साक्षात् धर्मावतार तपस्वी, त्यागी जितेन्द्रिय, समुद्र के समान गम्भीर, विष्णु के समान पराक्रमी, हिमालय की भांति धैर्यवान्, धर्म के रक्षक वेद वेदांगों के विद्वान्, धनुर्विद्या के पारंगत, सत्यवादी, सब के प्रति समता रखने वाले, हृष्ट-पुष्टाँग प्रजा के धर्मपूर्वक रक्षक, सज्जनों को प्रिय किन्तु शत्रुओं का मानमर्दन करने वाले आर्य पुरुष है। “

हम श्री राम के चित्र के नहीं, चरित्र के पुजारी बनें – आज उस महापुरुष की जन्मभूमि की दुर्दशा तथा श्रीराम के वंशजों की मनोव्यथा का कारण है कि श्रीराम के भक्तों एवं अनुयायियों के अपने कुत्सित आचरण तथा महान् पराक्रमी शूरवीर क्षत्रिय श्रीराम के निर्बल भक्तों के द्वारा राम की प्रतिमा को लेकर अकिंचन व असहाय बना देना, ऐसे कर्मठ दिग्विजयी सम्राट् के नाम पर भिक्षावृत्ति करना एवं उनके मंदिरों की रक्षार्थ याचना करना यह स्पष्ट करता है कि श्रीराम के भक्तों ने चित्र को ही अपनाया है, चरित्र को नहीं।

यदि उनके चरित्र को अपना कर राम के भक्त अपने को यथार्थ में राम जैसा बनने का प्रयास करें तो इस धरातल पर किस व्यक्ति की शक्ति है कि जो श्रीराम के प्रति स्वप्न में भी दुर्भावना रख सके, किसकी माता ने उसे दूध पिलाया है कि जो श्रीराम की जन्मभूमि व उनके भक्तों के प्रति कुदृष्टि से देख भी सके, और कौन अपने को शूरवीर समझता हुआ श्रीराम के भक्तों को ललकारने का दम्भ या दुस्साहस कर सकेगा।

जिस श्रीराम ने समुद्र को पार करके भी दंभ के बीज रावण जैसे पराक्रमी के भी उसी की जन्मभूमि पर दांत खट्टे ही नहीं किये, प्रत्युत उसके अनुयायियों को भी समूल नष्ट कर दिया था किन्तु आज उनके भक्तों की अपनी ही जन्मभूमि पर यदि दुर्दशा हो रही है, तो मात्र कारण है कि श्रीराम के चरित्र की पूजा न करना। आओ उनके पावन जन्म दिवस पर जहां अपनी हीनता व दुरवस्था पर मिलकर विचार करें, वहाँ श्रीराम के पावन व प्रेरक जीवन चरित्र से भी कुछ सीखें। आर्य जगत् के प्रसिद्ध कवि श्री राधेश्याम एडवोकेट श्रीराम के प्रति गुणस्तवन करते हुए लिखते हैं-

राष्ट्र-पुरुष थे, विश्वविजेता मर्यादा पुरुष उत्तमम,

महामनुज थे, सत्यम् शिवम् सुन्दर से भी सुन्दरतम

रविकुल के रवि बनकर तुमने,

युगस्रष्टा ! हे युग परिवर्तक ! !

नष्ट किया था भूतल-तम, भारतसुत । हे दशरथ नन्दन !

तुम उत्तम से भी उम !

आर्य पुत्र ! हे वेद पथिक !

राम तुम्हारा शत अभिनन्दन ॥

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम

श्री राम स्थितप्रज्ञ थे- संसार में हम देखते हैं कि जब कभी हमारी इच्छापूर्ति में कोई छोटा मोटा भी आघात उपस्थित करता है, तो हम उसके प्रति कुपित ही नहीं प्रत्युत मरने-मारने को भी तैयार हो जाते हैं। किन्तु श्रीराम असाधारण योगीसम स्थितप्रज्ञ थे। जो बड़े से बड़े कष्ट के समय में भी लेशमात्र विचलित नहीं होते थे। इसीलिए महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं-

न वनं गन्तुकामस्य त्यजतश्च वसुन्धराम्

सर्वलोकातिगस्येव लक्ष्यते चित्तविक्रयः

॥ वा. रा. अयो. सर्ग १९ ।।

आहूतस्याभिषेकाय विसृष्टस्य वनाय च ।

न मया लक्षितस्तस्य स्वल्पोऽप्याकारविभ्रमः ।

अर्थात् जिस समय श्रीराम को राजतिलक के लिए बुलाया गया तथा जिस समय उनको १४ वर्ष के वनवास के लिए कहा गया, ऐसे हर्षविषाद के समय में भी श्रीराम की मुखाकृति में कोई अन्तर नहीं था अर्थात् न तो युवराज बनने की खुशी और न ही वनवास जाते समय किंचिदपि विषाद के चिह्न थे। ऐसा सुख-दुःख में समता से रहने वाला व्यक्ति पूर्ण वेदज्ञ व स्थितप्रज्ञ ही हो सकता है।

राष्ट्र भक्त श्रीराम-सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक कितने राजा हो चुके हैं. और भविष्य में भी होते रहेंगे, किन्तु जब कोई आदर्श राज्य या प्रशासन की बात करता है तो सर्वप्रथम अग्रगण्य श्रीराम का नाम बड़े आदर से लेता है, इसका मुख्य कारण राम का प्रजावात्सल्य, प्रजानुरञ्जन तथा जन भावना का आदर करके प्रजा को सर्वात्मना पुत्रवत् संरक्षण देना तथा असुरों का संहार करके सज्जनों की रक्षा करना है।

उनके राज्य की कुछ प्रमुख विशेषताएं रामायणानुसार निम्नलिखित हैं, जिनको आज भी यदि अपनाया जाये तो रामराज्य अब भी बन सकता है।

(१) श्रीराम के राज्य में कोई चोर डाकू या हिंसावृत्ति वाला मनुष्य नहीं था, कोई भी मनुष्य किसी का अनर्थ चिन्तन नहीं करता था। और कोई भी मनुष्य अपने से छोटों का प्रेतकर्म दाहक्रिया नहीं करता था अर्थात् सभी पूर्णायु सुख से जीवन बिताते थे ।

(२) पूर्ण युवावस्था में विवाह होने से कोई पुरुष असमय में नहीं मरता था, अतः वैधव्य दुःख किसी को न था, सर्पादि का किसी को भय नहीं था और कोई भी मनुष्य व्याधियों से पीड़ित नहीं था।

(३) सभी मनुष्य धर्म परायण रहते थे, अतः किसी प्रकार का उपद्रव न होने से सब प्रसन्न एवं सन्तुष्ट रहते हैं। और पारस्परिक प्रेम व सहृदयता इतनी अधिक थी कि वे कभी परस्पर कलह-रत नही हो पाते थे।

(४) यज्ञादि कार्यों के अनुष्ठान से समय पर वर्षा होती थी, अतः कभी भी अकाल या दुष्काल न होने से देश धनधान्य से पूर्ण रहता था।

(५) चारों वर्ण तथा आश्रम अपने-अपने कर्मों में सदा सन्नद्ध एवं जागरूक रहते थे, और लोभ क्रोधादि दुष्प्रवृत्तियों से बचकर सभी धार्मिक होते थे ।

सत्य बोलना सीखो 

महाकवि तुलसीदास भी राम-राज्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं-

दैहिक, दैविक, भौतिक तापा,

रामराज्य नहि काहहु व्यापा ।

सभी नर करिहिं परस्पर प्रीति,

बसहुँ सदा श्रुतिरत नीति ॥

सब गुणज्ञ, पण्डित, सब ज्ञानी,

सब कृतज्ञ नाहि कपट स्यानी ॥

अल्पमृत्यु नाहिं कवनेहु पीरा,

सब सुन्दर सब विरुज शरीरा ॥

नहि दरिद्र कोऊ दुःखी न दीना

नहि कोऊ अबुध न लच्छन हीना ॥

इससे स्पष्ट है कि श्रीराम के राज्य में साम्राज्यवाद तथा प्रजातन्त्र के सभी दोषों का अभाव था। श्रीराम के सच्चरित्र, वीरता न्यायप्रियता आदि गुणों का ही ऐसा प्रभाव था कि किसी आसुरीवृत्ति वाले मनुष्य का दुष्कर्मों में रत होने का साहस ही नहीं होता था ।

पितृ भक्त श्रीराम

विश्व के इतिहास में श्रीराम की पितृ भक्ति जैसा उदाहरण मिलना अतीव दुर्लभ है। श्रीराम प्रतिदिन प्रातः सायं अपने माता-पिता को सादर प्रणाम करके उनका शुभाशीर्वाद प्राप्त करते थे और जब कभी बाहर से आते थे, तब भी चरण स्पर्श करके प्रणाम करते थे, इसके कतिपय प्रसंग पढ़िए-

(१) स प्राञ्जलिरभिप्रेत्य प्रणतः पितुरन्तिके ।

नाम स्वं श्रावयन् रामो ववन्दे चरणौ पितुः ॥

 

जब राजा दशरथ ने राज्याभिषेक के लिए श्रीराम को सुमन्त (बा० रा० अयो० ३-३२) के द्वारा बुलवाया था, तब श्रीराम ने करबद्ध होकर अपने पिताजी के चरण स्पर्श करते हुए प्रणाम किया था। (२) इसी प्रकार १४ वर्ष तक बनवास के लिए जाते हुए भी श्री राम प्रणाम करते हैं :-

स पितुश्चरणौ पूर्वमभिवाद्य विनीतवत् ।

 ततो ववन्दे चरणौ कैकेय्याः सुसमाहितः

॥ बा० रा० अयो० १८/२ ।।

(३) सुन जननी सोई सुत बड़भागी, जो पितु मात वचन अनुरागी ॥

तनय मातु पितु तोषण हारी, दुर्लभ जननी सकल संसारी ॥

(४) प्रातः काल उठिके रघुनाथा।

माता-पिता गुरु नावहिं माथा ||

 

पितृ भक्ति की परीक्षा

वचनों से बन्धे राजा दशरथ से महारानी कैकेयी कहती है कि एक वरदान में श्रीराम को बनवास और दूसरे वरदान में भरत को युवराज बनाया जाये। उस समय राजा दशरथ की दशा बहुत दयनीय हो गई थी। क्योंकि वे प्राणप्रिय राम को अलग करना नहीं चाहते थे और अपने वचनों का भी पालन करना चाहते थे।

पिता के मुख से किसी प्रकार का आदेश न पाकर किन्तु खिन्न देखकर कैकेयी से श्रीराम जो कुछ कहते हैं, वह सब उनकी पितृ-भक्ति की दृढ़ता का परिचायक ही नहीं, प्रत्युत उनकी कठिन अग्नि परीक्षा का भी समय होता है। श्रीराम कहते हैं—

अहं हि वचनाद्राज्ञः पतेयमपि पावके ॥

भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे ॥

अर्थात् मैं अपने पिता के आदेश से अग्नि में कूद सकता हूँ, भयंकर विष खा सकता हूँ और सागर में भी छलाँग लगा सकता हूँ। इसलिए माता कैकेयी ! मुझे पिताजी के आदेश को तुरन्त बताओ और इससे भी बड़ी परीक्षा का समय तब आता है कि जब पुत्रस्नेह के कारण माता कौशल्या राम को वन में जाने से मना करती हुई कहती है कि है राम ! क्या तुम अपनी माता की आज्ञा का पालन नहीं करोगे। उस समय तो अयोध्या में राज-विद्रोह पैदा होने के आसार ही बन गये थे किन्तु नीतिज्ञ श्रीराम ने माता को समझाते हुए यह कहकर शान्त किया-

“नास्ति शक्तिः पितुर्वाक्यं समतिक्रमितुं मम । “

अर्थात् पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन करना सामर्थ्य से बाहर है और हमारे कुल की जो प्रतिष्ठा है, मैं उसी का अनुसरण अवश्य करूँगा-‘पूर्वैरयमभिप्रेतो गतो मार्गोऽनुगम्यते ।‘ और राजघराने में धधकते हुए विद्रोह को शान्त करके पिताजी के कठोर आदेश का ही पालन किया। राजघराने में पले, जिसने कभी दुःख देखा ही नहीं था,

उसका हिंसक जन्तुओं से व्याप्त, सुखसुविधाओं से सर्वथा रहित तथा तपस्वी भेष में १४ वर्ष तक वन में रहना यद्यपि बहुत ही कठोर कार्य था पुनरपि पिताजी की आज्ञापालन के सामने सब कष्टों को नगण्य समझकर श्रीराम ने पितृ-भक्ति का पालन किया। क्या आज कल के पुत्र अपने प्राचीन आदर्श को छोड़कर पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव वश पितृ-भक्ति से विमुख होकर श्रीराम के भक्त कहलाने के अधिकारी कहला सकते हैं?

भ्रातृ भक्त श्रीराम

श्रीराम की भ्रातृ-भक्ति भी पितृभक्ति के समान आदर्श तथा अनुकरणीय है। संसार में पैतृक सम्पदा पर भाई-भाई में प्रायः झगड़े होते रहते हैं। और राज्य सत्ता के लिए तो भाई-भाई में खूनी क्रान्तियाँ हुई हैं। परन्तु श्रीराम के जीवन में राज्य सत्ता तुच्छ है, और भ्रातृ स्नेह सर्वोपरि है, इसी कारण मन्थरा के बहकाने पर माता कैकेयी ने जो राजघराने में राजविद्रोह के बीज बोये थे, उनके दूरगामी दुष्परिणामों को दूर करने में श्रीराम को भ्रातृस्नेह के कारण ही सफलता मिली थी।

वेद में “स नो वन्धुः “ कहकर परमेश्वर को भी भ्राता के समान ही सुखदायक माना है, किन्तु वर्तमान के भाई-भाई के कलह को देखकर तो वैदिक उपमा भी व्यर्थ दिखाई देती है। श्रीराम ने वैदिक आदर्श को “मा भ्राता भ्रातरं दिशन् “ ॥ अथर्व० ॥ जीवन में क्रियान्वित करके ही भ्रातृस्नेह को कठोर परीक्षा की घड़ी में भी नहीं छोड़ा। इसीलिए यह प्रसिद्ध है कि राम भरत ने चक्रवर्ती राज्य को भी ठोकर मार कर भ्रातृस्नेह में लेश मात्र भी बाधा नहीं आने दी। श्रीराम के जीवन से भ्रातृ स्नेह के कतिपय प्रसंग पढ़िए-

(१) श्रीराम को वनवास से वापिस लाने के लिए भरत को ऋषि-मुनियों तथा सेना के साथ आता देख लक्ष्मण के मन में सन्देह पैदा हो जाता है और वह श्रीराम से अपने भावों को प्रकट करता हुआ वृक्ष पर चढ़कर कहता है-मुझे लगता है कि भरत को राज्य का लोभ हो गया है और सेना लेकर हमें वन में भी जीवित छोड़ना नहीं चाहता। श्रीराम लक्ष्मण को बहुत समझाते हैं कि हे लक्ष्मण । भरत के प्रति ऐसा सन्देह बिल्कुल मत करो, तुमने भरत को समझा ही नहीं है। श्रीराम बोले-

स्नेहेनाक्रान्तहृदयः शोकेनाकुलितेन्द्रियः ।

द्रष्टुमभ्यागतो ह्येष भरतो नान्यथागतः ॥

( वा० रा० अ० ९७/११)

हे लक्ष्मण ! भरत हमारे वनवास से दुःखी तथा अत्यधिक स्नेह से विह्वल होकर हमारे पास आये हैं। और यदि तुम्हें राज्य की लेशमात्र भी इच्छा हो तो मैं भरत से कहकर तुम्हें राज्य दिलवा देता हूँ। अपने भाई पर इतना अधिक विश्वास तथा स्नेह श्रीराम के विना किसका हो सकता है ?

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम

(२) इसी प्रकार रावण के साथ युद्ध होने पर रावण की शक्ति से लक्ष्मण के मूर्छित होने पर श्रीराम अतीव विह्वल होकर कहते हैं—

अयं स समरश्लाघी भ्राता मे शुभलक्षणः ।

यदि पंचत्वमापन्नः प्राणैर्मे कि सुखेन वा ॥

नहि युद्धेन मे कार्य नैव प्राणैर्न सीतया ।

भ्रातरं निहतं दृष्ट्वा लक्ष्मणं रणपांसुषु ॥

किं मया दुष्कृतं कर्म कृतमन्यत्र जन्मनि ।

येन मे धार्मिको भ्राता निहतश्चाग्रतः स्थितः ॥

बा० रा० युद्ध० ॥

अर्थात् यह मेरा भाई लक्ष्मण कुशल योद्धा तथा शुभ लक्षणों से सम्पन्न है और यदि यह मर गया तो मैं जीवित रहकर भौतिक सुखों का क्या करूंगा ? इस युद्ध भूमि पर लक्ष्मण को इस प्रकार पड़ा देखकर मेरे जीवित रहने एवं युद्ध करने से कोई लाभ नहीं है। ऐसा मैंने कौन सा दुष्कर्म पूर्व जन्म में किया था, जिसके फलस्वरूप मेरा धार्मिक भाई मेरे सामने इस प्रकार निश्चेष्ट पड़ा हुआ है। संसार में इससे बढ़कर भ्रातृप्रेम क्या हो सकता है ?

देवभाव

दृढ़ प्रतिज्ञ श्रीराम

यद्यपि सूर्यवंशी राजाओं की ही यह परम्परा रही थी कि ‘प्राण जायें, पर वचन न जाहि ।’ राजा हरिश्चन्द्र को अपने वचनों का पालन करने के लिए ही राज पाट छोड़कर चण्डाल के घर नौकरी करनी पड़ी थी। श्री राम ने भी अपने जीवन में सदा ही वचनों का पालन बड़ी दृढ़ता से किया। भाई भरत के अनेक गुरुजनों व ऋषियों को साथ लेकर श्रीराम को वापिस लाने के लिए चित्रकूट में जाने पर श्रीराम ने जो उन्हें उत्तर दिया है वह संसार के इतिहास में अद्वितीय है।

लक्ष्मीश्चन्द्रादृतेपाद वा हिमवान् वा हिमं त्यजेत् ।

अता सागरी वेलां न प्रतिज्ञामहं पितुः ॥

श्रीराम कहते हैं—“चाहे लक्ष्मी चन्द्र’ का, हिम हिमालय का और समुद्र अपनी सीमाओं का परित्याग कर देवे, परन्तु मैंने जो अपने पिता जी के सामने प्रतिज्ञा की है, उसको नहीं छोड़ सकता। मैं अपने प्राणों को, भाईयों को तथा पत्नी को छोड़ सकता हूँ किन्तु जो प्रतिज्ञा की है उसको नहीं छोड़ सकता। ” परन्तु आज उसी राम के वंशजों की स्थिति विपरीत ही है, पिता-पुत्र का भाई-भाई का पुत्र माता का, भाई-बहन का तथा छोटे बड़े का परस्पर विश्वास समाप्त प्राय: है किसी के वचनों का किसी को विश्वास ही नहीं है।

इसीलिए लिखित प्रमाण पत्रों पर साक्षी करवा कर भी वचनों से मुकर जाते हैं और अविश्वास के कारण ही घर-घर में प्रत्येक सदस्य का अपना-अपना अलग-अलग ताला भी लगा रहता है पुनरपि घर में मूल्यवान् वस्तु न रखकर बैंकों के लाकरों में जा पहुँचे हैं। पुनरपि अविश्वास जन्य दुःख दावानल से सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई है।

 

धनुर्धर श्रीराम

संसार में दुर्बलों के सहायक बहुत कम मिलते हैं। दुर्बलता तो मानो मानवता के लिए अभिशाप है। “देवो दुर्बलघातकः ” के अनुसार निर्बल व्यक्ति की प्रकृति भी सहायता नहीं करती। “वीर भोग्या वसुन्धरा” के अनुसार समस्त संसर के भौतिक सुखों का भी भोग निर्बल व्यक्ति कभी नहीं कर सकते । क्षत्रिय स श्रीराम ने शारीरिक शक्ति तथा शस्त्रास्त्रों की विद्या में निपुण होकर ही आसुरीवृत्ति वाले असुरों का संहार किया था और ऋषि महर्षियों के यज्ञों में होने वाले उपद्रवों को शान्त किया था। इसीलिए रामायण में लिखा है-

महोरस्को महेष्वासः गूढजत्रुररिंदमः ।

आजानुबाहुः सुशिराः सुललाटः सुविक्रमः ॥

बा० रा० वा० १/१०

न बाह्वोः सदृशे वीर्ये पृथिव्यामस्ति कश्चन ।

त्रिषु लोकेषु वा राम ! न भवेत् सदृशस्तव ॥

बा० रा० वा० २२ ।९३ ॥

अर्थात् श्रीराम ने पूर्ण ब्रह्मचर्यादि सद्वतों का पालन करके शरीर का ऐसा सुदृढ एवं बलवान् बनाया था कि उनके समान वीरता, धनुषधारी, विशालवक्षस्थलादि गुणों वाला इस भूलोक में उनके समान कोई नहीं था। श्रीराम ने उस समय के महान् वैज्ञानिक महर्षि विश्वामित्र से जिन शस्त्रास्त्रों का प्रशिक्षण लिया था, उनका वर्णन रामायण में इस प्रकार मिलता है-

धर्म-चक्रं ततो वीर ! कालचक्रं तथैव च ।

विष्णु चक्रं तथात्युग्रमैन्द्रमस्त्रं तथैव च ॥

वज्रमस्त्रं नर श्रेष्ठ शैवं शूलवतं तथा ।

अस्त्रं ब्रह्मशिरश्चैव ऐषीकमपि राघव ॥

बा० रा० बा० २७/५-६ ॥

हे राम ! मैं तुझे समस्त दिव्य अस्त्रों का प्रशिक्षण देता हूँ, जिनमें धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र, अत्युग्र ऐन्द्र अस्त्र, वज्रास्त्र, शिव के श्रेष्ठ शूल, ब्रह्मशिरा, तथा ऐषीक आदि है। इसी प्रकार आगे अनेक शस्त्रों व अस्त्रों का वर्णन किया गया है यद्यपि इन शस्त्रास्त्रों की परिभाषा करना वर्तमान में सम्भव नहीं है परन्तु यह तो स्पष्ट है कि श्रीराम क्षात्र धर्म की रक्षा के लए वीर, पराक्रमादि से सम्पन्न होकर शास्त्रास्त्रविद्या में भी निपुण थे।

और आज उनके भक्तों की क्या और कैसी दयनीय दशा है ? इसका वर्णन करते हुए भी अतीव खेद होता है: भौतिक सुखों के प्रति आसक्ति ने समस्त वैदिक मर्यादाओं को ध्वस्त कर दिया है। बालविवाह, सहशिक्षा, अनमेल विवाह तथा फिल्मी नाच गानों से आज राम भक्तों को शारीरिक बल से खोखला एवं अस्थि पिंजर ही बना दिया है। वैदिक शिक्षणालयों, अखाड़ों व ब्रह्मचर्य की शिक्षा के अभाव में आज के युवक युवावस्था से पूर्व ही बूढ़े दिखाई देने लगे हैं। 

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम

शस्त्रास्त्रों के प्रशिक्षण की बात तो बहुत दूर, घरों में लाठी, डण्डों का भी अभाव हो गया है और पौष्टिक आहार न मिलने तथा मांस-मदिरादि कामोत्तेजक पदार्थों का आहार बढ़ने से राम के वंशजों की जो दुर्दशा हो रही है, उसकी क्या कथा कहें, इन्हें कहीं मुसलमान, कहीं ईसाई, और कहीं अपने ही भाई सिख मार-काट रहे हैं और ये बिचारे चित्र के पुजारी ‘राम-राम’ की रटन्त करते हुए “मरा मरा” ही कहने लगे हैं। क्या वीर राम के भक्तों की यह कायरता उनके चरित्र की पूजा न करने से ही नहीं है ?

उपसंहार

हम बड़े ही सौभाग्यशाली हैं कि हम ऐसे आदर्श, सच्चरित्र, महान् पुरुष के वंशज और उसके अनुयायी हैं। इसीलिए प्रति वर्ष उनकी स्मृति में रामनवमी पर्व बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं, किन्तु उनके मर्यादित, संयत आदर्श चरित्र से परिवार, समाज तथा राष्ट्र के लिए कोई प्रेरणा, व चेतना नहीं लेते और वर्तमान के पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय स्तर पर पदे-पदे व्याप्त अशान्ति, संघर्ष, असंतोष के लिए कोई समाधान भी नहीं खोज पाते ।

श्रीराम का पावन चरित्र उनके अनुकरणीय गुण कर्म, स्वभाव तथा आदर्श तो सार्वकालिक, सार्वदेशिक, तथा सार्वजनिक जीवनों के लिए अनुपम एवं उपयोगी है। वे आज भी उतने ही उपयोगी हैं, जितने श्रीराम के समय लाखों वर्ष पूर्व थे। उनके जाज्वल्यमान आदर्श वर्तमान में भूले भटकते हुए, लक्ष्यहीन एवं अशान्त हुए भारतीयों के लिए प्रकाश स्तम्भ हैं।

श्रीराम के जीवन की पद्धति, आदर्श राजनीति और जनजन में व्याप्त प्रीति हमारी वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान देने में पूर्णत: समर्थ हो सकती हैं।

अतः पाश्चात्य सभ्यता की अन्धभक्ति से प्राप्त भोग-विलास एवं अनैतिकताओं के कारण व्याप्त वर्ग संघर्ष, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रियवाद आदि विषैले व विघटित करने वाले विचारों को नष्ट कर आत्मीयता, विश्वबन्धुच, सर्वसम्भाव, प्राणियों में सद्भावना आदि संघटन, एकता व प्रेम के भाव उत्पन्न करने में श्रीराम जन्म दिवस से प्रेरणा लेंगे और श्रद्धासहित भक्तजन श्रीराम के चरित्र को अपनाकर अपने, परिवार समाज व राष्ट्र का कल्याण करने का सत्प्रयास करेंगे।

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