देवभाव

देवभाव

आज हम बात करने वाले हैं देवभाव के बारे में, इस संसार में कई धर्म हैं। उन धर्मों के भिन्न भिन्न आधार और मान्यताएं हैं। हिन्दू धर्म का जब गम्भीरता से अध्ययन करें तो यह सिद्ध होता है कि यह उपयोगितावाद के आधार पर खड़ा है क्योंकि इसमें प्रत्येक क्यों के प्रश्न का उत्तर आपको मिल सकता है किन्तु सबसे मुख्य इसकी आधारशिला है वह है देवत्व भावना की है।

देव शब्द का अर्थ है दुति, चमकने वाला, आस्तिक विचारों का स्रोत तथा देवताओं की तरह निरन्तर, आगे बढ़ने की प्रेरणा देने वाला है। इस विशाल संसार में जितने भी प्राणी हैं उन्हें तीन वर्गों में विभाजित कर सकते हैं। एक तो है देवता तुल्य, दूसरे मानव और तीसरी श्रेणी में आसुरी प्रवृत्ति रखने वाले दानव आते हैं जिनमें अनीति, अधार्मिक विचार, और जो अपने विचारों में केवल अपना संकुचित स्वार्थ देखते हैं।

दया

मनुष्य वह है जो हानि लाभ, उदार अनुदार, अपना पराया इन दोनों पक्षों में अन्तर देखता तो है किन्तु कभी कभी ईर्ष्या, द्वेष के भावना भी उसके मन में पनपती रहती है। उसकी सबसे उत्कृष्ट स्थिति है देवभाव की जिसके आने से मनुष्य धन्य और सुखी हो जाता है। मनुष्य स्वभाव के जितने भी गुण हैं चाहे वह प्रेम हो, दया का हो, करुणा, मित्रता, सहानुभूति, साहस, धैर्य्य, उदारता, इन सब का समावेश उसके हृदय में आ जाता है।

वह यह समझने लगता है कि वह ईश्वर का अंश है। यह शरीर नश्वर है, आत्मा अमर है, देवत्व भाव रखने वाला अन्दर से पवित्र और शुद्ध है। परिणामस्वरूप ऐसा व्यक्ति जीवन के संसारिक आकर्षणों और भौतिक लालसाओं में उसकी रूचि कम होती जाती है। देवत्व से उसकी आन्तरिक अभिलाषा यही होती है कि वह न केवल दिखावे के लिये किन्तु आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर हो। जो ऐसी विचारधारा रखते हैं और अध्यात्मिक उन्नति की योजना बनाते हैं वह उतना ही स्वयं को भक्तिरस से, सत्संग से ईश्वर के निकट पाते हैं।

देवभाव
देवभाव

निश्चय मानिये, कि हम सब में कहीं न कहीं किसी रूप में यह देव भावना का गुण छिपा हुआ है। आवश्यकता है तो उसे विकसित करने की, प्रार्थना करो :-

ऐसा निर्मल मन हो मेरा, कर्म हो सब मंगलकारी।

हो स्वप्न में भी मानव रात्री न हो अन्धियारी ।।

दीप बनो तुम ऐसे जग में राह दिखलाने वाला हो।

कभी अन्धेरा पास न आये चारो ओर उजाला हो ।।

देवत्व भाव मन में विकसित हो। उस भगवान् पर दृढ़ विश्वास और अटल आस्था मनुष्य को मानसिक शक्ति देती है। स्वभाविक है मन में प्रश्न उठता है कि जिज्ञासा होती है कि देव गुण को कैसे विकसित करें। इसमें स्थान है पहला ‘सत्य’ भावना का। महात्मा गांधी सत्य के सिद्धान्त के इतने पुजारी थे कि उनका कहना था कि सत्य को जान लेने के पश्चात् कुछ नहीं रह जाता। श्रुति कहती हैं- असतो मा सद्गमय। दूसरा है ‘न्याय’ का भाव । अन्याय की भावना कलुपित मन के विकार है।

तीसरा है ‘उदारता’- उदारता से मनुष्य न केवल स्वार्थी हो अपनी उन्नति ही नहीं दूसरो की उन्नति में भी प्रयत्नशील और प्रसन्न होते हैं जिससे जीवन में निखार आ जाता है। देवत्व भावना से मन की शक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि सांसारिक क्लेश, परेशानियां, दुविधाएं दूर हो मानसिक संतुलन हो कर चित्त स्थिर और शान्त हो जाता है।

सत्संग से आतंरिक सुख 

किन्तु यह सब गुण केवल प्रदर्शन, मात्र, दिखावटी हो तो उनका कोई महत्त्व ही नहीं। जब तक बुद्धि में शुभचिन्तन की प्रधानता न हो। इसलिये देव भावना मन में विकसित करने के लिये मेरा ईश्वर से बस यही एक प्रार्थना है। अतः हे प्रभु देवत्व की भावना हम सभी मनुष्यों के भीतर जगाए रखना इसी भावना के साथ मैं ईश्वर को शत शत नमन करता हूँ।

दिल में दया उदारता, मन में प्रेम अपार ।

हृदय में धीरज, वीरता, सबको दो करतार ||

हमारा जीवन सत्य पर ही आधारित हो

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