आनन्द
आनन्द का सम्बन्ध हमारे मन से है। हमारी पांचों इन्द्रिय हमें आनंद या दु:ख का अनुभव कराती हैं। प्रत्येक इन्द्रिय किसी न किसी रूप में हमारे सुख या दुःख से सम्बन्धित है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में तीन कार्यों की प्रधानता रहती है। प्रतिदिन सम्बन्धी कार्य, मनोरंजन और विश्राम कार्य करना कर्त्तव्य है तो विश्राम की आवश्यकता है किन्तु मनुष्य जीवन में अधिक से अधिक आनंद उल्लास और हंसी खुशी कैसे प्राप्त करे।
आजकल आप किसी से भी वार्त्तालाप करें तो अधिकतर लोग यही कहेंगे कि हमे आमोद प्रमोद के लिये समय ही नहीं मिलता। जीवन में इतने झंझट हैं कि दिन रात उन्हीं दुविधाओं में समय बीत जाता है। सांसारिक चिन्ताओं का भार और भौतिक इच्छा उन्हें इतना व्यस्त कर देती है कि वह निराश और उदासीन मुख लिये घूमते हैं और बात बात में अपनी आन्तरिक वेदनाओं का बखान करने लगते हैं इसलिये ज्ञानी लोगों का कहना है कि संसार में रहते हुए भी अधिक से अधिक आनंद हंसी खुशी पाने का प्रयास रखना चाहिये।
इस जीवन को आनन्दमय मानें क्योंकि:-
‘वह कौन सा मसला है जो हल हो नहीं सकता
हिम्मत करे इन्सान तो क्या हो नहीं सकता।
हमारा मानसिक आनन्द तो आन्तरिक है जो व्यक्ति उसे बाहरी वस्तुओं में ढूंढते हैं वह अज्ञानी हैं-
गुरुवाणी में ‘सब कुछ घर में वाहिर नाहि’ , इसलिये शान्ति, सुख प्राप्ति के लिये मन में निराशा, चिन्ता, हीनता की भावना प्रयत्न करें। जिनका लक्ष्य जीवन में प्रसन्नता और सुख शान्ति हैं वह अपने मन की स्थिति को वैसे ही अनुकूल कर अपने आस-पास के वातावरण को सुन्दर रूप में परिवर्तन कर लेते हैं। हम जितना सांसारिक वस्तुओं के मोह में बंधते हैं उतना ही अपनी आवश्यकताओं को बढ़ाते जाते हैं और जब उनकी पूर्ति नहीं होती तो मन निराश और उद्विगन रहता हैं।
वेदों में क्या है ?
मानना होगा कि धन कमाना जीवन की आवश्यकता तो है किन्तु उस धन का उचित उपयोग केवल जीवन के लिये तो है अतः जब व्यक्ति धन उपार्जन को ही जीवन का चरम लक्ष्य बना लेता है, और जब वह उनकी रात दिन चिन्ताओं का मुख्य कारण बन जाता तब वह उनके आन्तरिक सुख चैन को लुप्त कर लेता है। उसी स्थिति को संत कबीर ने कहा :
‘कबिरा मन पंछी भया, उड़ के चला आकाश ।
स्वर्ग लोक खाली पड़ा, प्रभु सन्तन के पास ||
‘फूलों की तरह हंसते मुस्कराते जीवन व्यतीत करें। सांसारिक प्रपंचों में न उलझकर जीवन में आशावादी दृष्टिकोण से आनन्द तत्व के साधक बनें और प्रतिक्षण यह सोचें कि यह जगत आनन्द स्वरूप है। इस भावना से जियें, हमारे दुख, क्लेश, व्यर्थ की चिन्तायें तो क्षणिक हैं वह अल्पकाल में परिवर्तित हो जायेगी और संभव हैं समाप्त भी हो जायेगी।
जो व्यक्ति सत् चित् आनन्द में स्थिर होकर जीवन व्यतीत करता है, वह अन्धकार से निकल आनन्द, उत्साह और आशाओं का प्रकाश लेकर जीता है। आनन्द की आराधना से मनुष्य आन्तरिक और बाहरी जीवन में आत्मविश्वास और आत्म सन्तोष से परिपूर्ण हो जाता है। तब उसे यह अनुभव हो जाता है कि | मनोविकार, मिथ्या के भय, चिन्ता, क्रोध, द्वेष के स्पर्धा से पीड़ित जीवन में आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती।
सुख और आनन्द में अंतर
आज से मन में निश्चय करें कि प्रत्येक स्थिति में, हर वातावरण में प्रसन्न रहने का प्रयत्न करें। विषम परिस्थितियां हमारे आनन्द में बाधक न हों अपने आदर्शों का पालन कर आनन्दमय जीवन व्यतीत करें। शान्ति पूर्वक बैठ हमेशा इस मन्त्र का ध्यान करें ‘अहं इन्द्रो न परा जिग्ये ‘
मैं शक्तिकेन्द्र हूँ मुझे जीवन में पराजय स्वीकार नहीं करनी। साधारण आभावों से मन को अस्त व्यस्त नहीं करना, ईश्वर की शक्ति में अखण्ड विश्वास हो । संघर्ष रुपी जीवन में | निराशा और दु:खित भावनाओं को दूर करके सर्वदा आशा और सफल होने की भावना जगानी है। आनन्द का झरना तो हमारे | मन के भीतर है हम उसे बहिर क्यों खोज रहे हैं ?
आनन्द श्रोत बह रहा है प्राणी
पर तू क्यों उदास है।
अचरज कि जल में रहके भी
मछली को प्यास है।
ब्रह्मचर्य क्या है ?
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