FAQ QUESTIONS

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ईश्वर एक, अनादि, निराकार और सर्वव्यापी चेतन तत्त्व (वस्तु) है जो इस जगत् का निमित्त कारण और सबका आधार है। ईश्वर सत्+चित् + आनन्द है, अनन्त स्वरूप है तथा शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाववाला है। वह सबसे महान् एवं सर्वशक्तिमान् है। जहाँ तक हम सभी अपनी कल्पना कर सकते हैं ईश्वर की सत्ता उससे अधिक है, अनन्त है। असंख्य सृष्टियाँ तथा आत्माएँ उसी एक परमेश्वर में निवास करती हैं और वह परमात्मा स्वयं इन सब में विद्यमान रहता है। ब्रह्माण्ड में कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ ईश्वर की सत्ता न हो। आ वरीवर्ति भुवनेष्यन्तः (01/164/31) जन्माद्यस्य यतः (वे० द० 1/1/2) क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः (योगसूत्र 1/24) अर्थात् जो अविद्यादि क्लेश, कुशल-अकुशल, इष्ट-अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष 'ईश्वर' कहाता है। अर्थात् जिससे इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होती है वह ईश्वर है।
सत्त्व, रज, तम इन तीनों गुणों की समान अवस्था अर्थात् साम्य अवस्था को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति कोई अलग तत्त्व नहीं है। साम्यावस्था वह है जब सत्त्व, रज, तम कार्यरूप में परिवर्तित नहीं होते बल्कि अपने मूल कारणरूप में स्थित रहते हैं। प्रकृति क्योंकि जड़ है, अतः स्वयं कुछ नहीं कर सकती। उन तत्त्वों में ईश्वर की प्रेरणा से उथल-पुथल होती है अर्थात् सत्त्व, रज, तम की साम्यावस्था भंग होती है और उसमें विषमता आने लगती है। यहीं से प्रकृति से सृष्टि-रचना का प्रारम्भ होता है। अजस्य नाभावध्येकमर्पितम् (ऋ० 10/82/6) और सबसे पहला कार्यरूप 'महत्तत्त्व' होता है, इसे बुद्धि कहते हैं। फिर महत्तत्त्व से अहंकार, अहंकार से पञ्चतन्मात्राओं और दस इन्द्रियों का निर्माण होता है। ग्यारहवीं इन्द्रिय 'मन' होता है। तन्मात्राओं से पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति होती है। मूल प्रकृति तथा उससे बने तेईस विकार होते हैं। इन तेईस विकारों को सृष्टि कहते हैं। मूल प्रकृति से बने सभी संभव दृश्य और अदृश्य पदार्थ सृष्टि के अन्तर्गत आते हैं, जैसे- महत्तत्त्व, अहंकार, पञ्चतन्मात्राएँ, ग्यारह इन्द्रियाँ और पञ्चमहाभूत प्रकृति के कार्य को ही सृष्टि कहते हैं। ईश्वर के सन्निधान से ही मूल प्रकृति कार्यरूप होके सृष्टि में परिवर्तित होती है और सृष्टि में परिवर्तन सदा होता रहता है। सृष्टि के पश्चात् प्रलय होती है। इस प्रकार ईश्वर सृष्टिरचना और प्रलय करता रहता है और यह अनादि चक्र चलता रहता है- यथापूर्वमकल्पयत् (ऋ० 1/190/3) भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् (ऋ० 10/121/1) श्वेताश्वर उपनिषद् (4/5) में लिखा है कि- अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां स्वरूपाः अर्थात् जो जन्मरहित सत्त्व, रज, तमोगुणरूप प्रकृति है, वही स्वरूपाकार से बहुत प्रजारूप हो जाती है, अर्थात् प्रकृति के परिणामिनी होने से अवस्थान्तर प्राप्त होता है; कूटस्थ सदा निर्विकार रहता है और प्रकृति सृष्टि में सविकार और प्रलय में निर्विकार रहती है। प्रकृति कारण है और उसके कार्य को ही सृष्टि कहते हैं। प्रकृति से बने सभी संभव दृश्य और अदृश्य पदार्थ सृष्टि के अन्तर्गत आते हैं, जैसे-पृथिवी-जल- अग्नि वायु आकाश अवकाश-सूर्य-चन्द्रमा-ग्रह-उपग्रह-तारे-नक्षत्रादि। प्रकृति गतिहीन तथा शान्त होती हैं और उसके मूल तत्त्व सत्त्व, रज और तमस् अपरिवर्तनशील होते हैं। सृष्टि ईश्वर के सान्निध्य से गति करती है और उसमें हर पल, हर क्षण परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन सृष्टि का अटल नियम है।
अजस्य नाभावध्येकमर्पितम् सृष्टि का निर्माता स्वयं ईश्वर है और आत्माओं को बनानेवाला कोई भी नहीं है। आत्माएँ अनन्त हैं और अनादि हैं। ये सदा से हैं, नित्य हैं और सदा। रहनेवाली हैं। इनका विनाश नहीं होता। सृष्टि का निर्माण और विनाश ईश्वर करता है, परन्तु आत्माएँ अजर-अमर - नित्य हैं। (ऋ० 10/82/6)
जी नहीं। भले ही ईश्वर सर्वशक्तिमान् है परन्तु वह एक भी आत्मा को न तो पैदा कर सकता है न ही मार सकता है क्योंकि आत्माएँ अनादि हैं। (अथर्व० 11/3/30)। अनादि उसे कहते हैं जिसका कोई आदि कारण न हो, इसी कारण उसका अन्त भी नहीं हो सकता। जो वस्तु उत्पन्न ही नहीं हुई है तो उसे कोई मार भी नहीं सकता अर्थात् उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। अमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः (ऋ० 1/164/30) ईश्वर सर्वशक्तिमान् है इसका यह अर्थ नहीं है कि वह जो चाहे कर सकता है। सर्वशक्तिमान् का मतलब है कि परमात्मा किसी की सहायता लिये बिना अपने कार्य स्वयं ही करता है, जैसे:- 1.सृष्टि की रचना करना, सृष्टि के नियम बनाकर उसको धारण करना तथा 3. सब मनुष्यों की अज्ञानता दूर करने के लिए वेद का ज्ञान प्रदान करना। 2.सब जीवों के कर्मो की न्यायपूर्वक फल-व्यवस्था करना और फल प्रदान करना । 3.सब मनुष्यों की अज्ञानता दूर करने के लिए ईश्वर किसी की सहायता नहीं लेता । इन सभी कामों के करने के लिए ईश्वर किसी की सहायता नहीं लेता।
ईश्वर, जीव और प्रकृति ये तीन अनादि तत्त्व हैं। इनमें परमात्मा और आत्मा चेतन हैं और जगत् बनाने की सामग्री अर्थात् प्रकृति अचेतन जड़ वस्तु है। परमात्मा एक है और सबका आधार है। आत्माएँ अनेक हैं। जड़ होने के कारण प्रकृति स्वयं कुछ नहीं कर सकती अर्थात् हरकत में नहीं आ सकती। परमात्मा सर्वज्ञ है, आत्मा अल्पज्ञ है और प्रकृति ज्ञानरहित है।