तपस्या
तप अथवा तपस्या ही इस सृष्टि का मूल कारण है! प्रजापति ब्रह्मा ने तप से ही इस संसार की रचना की। जब चारों ओर गहरा अंधकार था। और चारों ओर पानी ही पानी था तब ब्रह्मा जी ने तप से ही समस्त संसार की सृष्टि की रचना की। तपस्या की महिमा और गरिमा से हमे अवगत होना चाहिए क्योंकि तप मन की वृत्ति के अनुसार लौकिक और अध्यात्मिक दोनों प्रकार के सुखों को प्रदान करने वाली है।
इसलिये कहा गया है ‘तपो मूलम्, महत् सुखम्’ और ‘तपसा लभ्यते सर्वम्’। तपस्या से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् इस सांसारिक जीवन में जो भी कष्ट और कठिनाईयां हैं, जो भी दुर्लभ है, दुर्गम है वह तप संयम से सिद्ध किया जा सकता है। तप मानव को सर्वोत्तम बलशाली बनाता है और मनोकामनाएं भी पूर्ण करता है।
वेदों में विज्ञान
भारत की संस्कृति का संपूर्ण इतिहास तपस्या की साधना से भरा हुआ है। भारतवर्ष के इतिहास में ऋषि-मुनियों की लम्बी सूची है जैसे पतंजलि, गौतम, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, शंकराचार्य हुए। स्वार्थ से हटकर जब मनुष्य दूसरों के परोपकार के लिए अपना तन मन धन अर्पित करता है तो यहीं से तप आरम्भ हो जाता है।
तपस्या के लिये मेरा अभिप्राय घर परिवार को त्याग कर वन में चले जाने से नहीं है, तप के द्वारा मनुष्य अपने मन पर संयम कर उस ईश्वर पर ध्यान लगा सकता है। इससे अपने मन के मैल को दूर करके साधना से अध्यात्मिक शक्ति को प्राप्त कर सकता है।
भगवद्गीता में तपस्या के तीन रूप बतलाये गये हैं।
तपस्या के तीन रूप
- सात्विक तपस्या : जो तप निःस्वार्थी बनकरअपने लाभ की इच्छा न करके मनुष्यों द्वारा भगवान् में मन लगाकर श्रद्धा और विश्वास से की जाये उसे ही सात्विक तप कहते हैं।
- राजसिक तपस्या : जो तप अहंकार में आ कर अपना सम्मान सत्कार पाने की इच्छा से की जाती है ऐसे आयोजनों को राजसी तप कहते हैं।
- तामसिक तपस्या : मूर्खतावश जब दूसरों को हानि पहुंचाने के लिये, दुःख देने के लिये जो कर्म किये जायें वह तामसिक तपस्या का रूप है।
किसी कवि ने सच ही कहा :
इंसान शैतान और हैवान, एक जाति के ही हैं नाम
प्रायः ये तीनों ही, हर एक व्यक्ति में है विराजमान
रावण ने अपने तपोबल से भगवान् शिव से शक्ति के रुप में वरदान तो ले लिया किन्तु उस शक्ति का प्रयोग किया सीता हरण का पाप करके । हिरण्यकश्यप ने भगवान विष्णु से अमरता का वरदान प्राप्त किया और अंधकार में आकर भक्त प्रहलाद को दुःख दिया। आदरणीय भीष्म पितामह तपोवल से कौरवों और पांडवों के गुरु हुए किन्तु अन्त में तीरों की शैय्या पर लेटे हुए अपने पापों की गिनती कर रहे थे।
महाभारत में तप की महिमा का वर्णन कई बार आया कि ‘नास्तिसत्य समं तप’ अर्थात् ‘सत्य मेव जयते’ सत्य ही तप का दूसरा नाम है। ‘सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप’ किन्तु फिर भी इन्सान क्यों विलासता को आवश्यकता मान मन मानव जीवन का मान घटाते हो। अपनी असीम इच्छाओं के बढ़ते बन्धन में क्यों अपने हाथ और बढ़ाते जाते हो। इसलिये प्रत्येक मानव का कर्त्तव्य है वह तप करे।
तप के कई प्रकार
- शारीरिक तप
- वाणी का तप
- मानसिक तप
प्रथम – हमें यह अमूल्य जीवन और यह शरीर मिला है। इससे ईश्वर, गुरूजनों, माता-पिता की सेवा, मन, वचन और कर्म में पवित्रता लाना ही शारीरिक तप है। दूसरा- वाणी का तप – कटु वाणी से किसी को भी न सताना, दुःखी आत्माओं को सांत्वना देना, सच बोलना, प्रिय बोलना और हितकर बोलना ही वाणी का तप है। तीसरा- मानसिक तप, मन की प्रसन्नता, शांति मौन, आत्मसंयम और आपकी भावनाओं की पवित्रता ही मानसिक तपस्या है। अन्त में इतना ही कहना चाहूँगा कि :-
इस जिन्दगी के लाखों मुश्किलें, हमें खुद ही हल करनी होंगी।
लक्ष्य तक पहुंचने के लिये, धीरे तपस्या करनी होगी ।।
तूफानों में भी आशा दीप जलाना होगा
निराशाओं को जीवन से भगाना होगा
हंसते हंसते इस जीवन को तपाना होगा।
गायत्री मंत्र की महिमा
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