गायत्री मंत्र

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गायत्री मंत्र
                                                                                         गायत्री मंत्र

ओ३म्

ओ३म् परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ नाम है। जिस ने सारे संसार की रचना की है। वह अजर है, अमर है, सर्वव्यापक है, रक्षक है । इसमें परमात्मा के अनेक रूपों और गुणों को प्रकट करने की शक्ति है । ओ३म् शब्द में तीन अक्षर हैं-

अ, उ और म् । ये तीन अक्षर परमात्मा के तीन महान गुणों को प्रकट करते हैं। ‘अ’ परमात्मा की उस शक्ति का वाचक है, जिससे वह संसार को उत्पन्न करता है । ‘उ’ परमात्मा की उस शक्ति का नाम है, जिससे वह संसार की रहा करता है । ‘म्’ परमात्मा की शक्ति का नाम है, जिससे वह प्रलय करता है । इस प्रकार अ ब्रह्मा का वाचक है, उ विष्णु का और म् महेश का। जब हम ओ३म शब्द का उच्चारण करते हैं । तब हमारी वाणी भगवान् के इन गुणों को प्रकट करती है ।

अ के उच्चारण के लिए हमें अपना मुंह खोलना पड़ता है। इसी प्रकार अ सब भाषाओं की वर्णमाला का प्रथम अक्षर है। इस प्रकार यह सृष्टि की उत्पत्ति का प्रतीक है ।

उ का उच्चारण करते समय मुंह खुला रहता है और ओठ मुड़े हुए होते हैं। यह धारण, रक्षक और पालन का प्रतीक है । म् का उच्चारण करते समय ओठ बन्द करने पड़ते हैं। यह किसी तत्त्व की समाप्ति का प्रतीक है । इस प्रकार हमने जाना कि परमात्मा इस संसार का उत्पादक, रक्षक और प्रलयंकर है । परमात्मा का यह प्राकृतिक नियम अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता चला जायेगा।

भूः

गायत्री मन्त्र के प्रथम तीन शब्द भूः, भुवः और स्वः महाव्याहृतियां कहलाती हैं । ये परमात्मा की प्रकृति की द्योतक हैं। वे उस के एकत्व को प्रकट करती हैं।

भूः शब्द परमात्मा की सत्ता का द्योतक है । वह सृष्टि की उत्पत्ति के समय उपस्थित था, स्थिति के समय उपस्थित है और प्रलय के समय उपस्थित रहेगा । परमात्मा इस सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व भी उपस्थित था और उसके प्रलय के बाद भी उपस्थित रहेगा । परमात्मा में न तो कभी कोई परिवर्तन आता है और न यह कभी विफल या शोकातुर होता है उसकी अपरिवर्तित स्थिति सदा बनी रहती है ।

भूः प्राण का भी प्रतीक है। परमात्मा हमारा प्राणदाता और जीवन रक्षक है। वह हमारे शरीर में प्राणों का संचार करता है । हम इसलिए जीवित हैं कि उसने हमें जीवन दिया और जब वह जीवन ले लेगा, तब हम मर जायेंगे। हमारा जीवन परमात्मा के नियमों के अनुसार चल रहा है। हमारा भी कर्तव्य है कि हम उसकी दी हुई जीवनी शक्ति से अन्य जीवों के प्राणों की रक्षा करें।

हमें अन्य जीवों के प्राण हरण का पाप कभी नहीं करना चाहिए। प्राण देना और लेना जीवनदाता परमात्मा का काम है । भू का अर्थ भूमि भी है। हम इस भूमि पर पैदा होते हैं और इसी से हमारा पालन होता है । परमात्मा ने हमें प्राणदायिनी वायु दी और जीवन धारण करने के लिए पोषक तत्त्व दिये । इस संसार का उत्पादक और रक्षक होने के कारण परमात्मा भूः कहलाता है ।

भुवः

भुवः परमात्मा की पूर्व चेतना का द्योतक है। परमात्मा अनादि और अनन्त चेतन सत्ता है । वह अपनी और दूसरों की दोनों की सत्ता के प्रति सचेत है । सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणु में भी उसकी चेतना स्पन्दित होती रहती है। क्योंकि वह पूर्ण चेतन है, इसलिए वह संसार पर नियन्त्रण और शासन कर रहा है। उसकी चेतना विश्व के नियामक विधानों का नियमन करती है। वह पूर्ण चेतना सत्ता भुवः कहलाती है ।

भुवः का अर्थ अपान भी है अपान का अर्थ है कष्टों और क्लेशों को दूर करने वाला। हम अपने चारों ओर कष्ट, क्लेश, मुसीबतें और विपत्तियां देखते हैं मानव जाति रोग, जरा और मृत्यु से परेशान है । भूकम्प, सूखा, बाढ़ आदि देवी विपत्तियों के कारण अनेक लोगों को अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ता है । मानव स्वयं भी अज्ञानवश प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करता है और फलस्वरूप उसे गम्भीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं।

इसी प्रकार काम, क्रोध और अहंकार सदृश पापों ने मानव को अवर्णनीय हानि पहुंचाई है । इन परिस्थितियों में प्रभु के प्रति आत्मसमर्पण से अपने कष्ट और क्लेश दूर करने में सहायता मिलेगी।

कष्ट और क्लेश केवल हमारे मन की अभिव्यक्तियां हैं। कष्ट की मात्रा और तीव्रता का अनुभव हमारे मन को ही होता है। इसी कारण हम कभी-कभी मानसिक रूप से अशान्त हो जाते हैं। कई बार हमारी कल्पना हमारे कष्टों और क्लेशों की जीव्रता बढ़ा देती है। जीवन में कोई उन्नति कर ले तो हम उससे ईर्ष्या करने लगते हैं। यदि भाग्य हमारा साथ न दे और हमें भौतिक पदार्थ प्राप्त न हो तो हम स्वयं को और अपने सम्बन्धियों को लेकर व्यथित हो जाते हैं।

आगे आने वाले अज्ञात भविष्य के बारे में सोच कर हम मूर्खतापूर्ण कल्पनाएं करने लगते हैं । और मानसिक रूप से दुःखित हो जाते हैं। यदि हम इन बातों को भिन्न रूप में लें तो हमें अपने दुःख दिखाई न देंगे। जीवन की इन घटनाओं के प्रति हमारे दृष्टिकोण में तभी परिवर्तन हो सकता है, जब हम हृदय से परमात्मा की भक्ति करें। हमारे कष्ट-क्लेश दूर करने के कारण ही परमात्मा भुवः कहलाता है।

वेदों में संपूर्ण विज्ञान

स्वः

स्वः प्रभु के आनन्द का प्रतीक है । परमात्मा को छोड़कर प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कष्ट, क्लेश, आपदाएं और बाधाएं अनुभव करता है। केवल परमात्मा को दैवी शक्ति प्राप्त है। मानव और अन्य प्राणियों को भी सुख की अनुभूति होती है लेकिन उनका सुख क्षणिक होता है- शाश्वत नहीं होता

जब मनुष्य को सफलताएं मिलती हैं, तब वह प्रसन्न और सुखी अनुभव करता है। वह खुशी से फूला नहीं समाता । मनुष्य को अपने धन, शक्ति और ज्ञान से का अहंकार हो जाता है। मनुष्य भौतिक सुख की तलाश में लगा रहता है और उनमें आसक्त हो जाता है लेकिन क्या यह सुख स्थायी होता है ? क्या यह कहा जा सकता है कि कष्ट और क्लेश अपने पीछे अपनी छाप नहीं छोड़ जाते ? जैसे दिन के बाद रात आती है और प्रकाश के बाद अन्धकार आता है, वैसे ही सुख के बाद दुःख आता है ।

लेकिन परमात्मा का आनन्द भिन्न प्रकार का है उसके आनन्द में आपदाओं और दुःखों का लेशमात्र भी नहीं । कारण यह कि वह पूर्ण है – उस में कोई कमी नहीं वह सर्वज्ञ है। पूर्णतः आनन्दमय है जिसे प्रभु के दैवी स्वरूप की अनुभूति हो जाती है, वह आनन्द में मग्न हो जाता है। प्रभु से जुड़ जाने पर सच्चा आनन्द प्राप्त होता है । उसी आनन्दमय प्रभु का नाम स्वः है । स्वः का अर्थ व्यान भी है। प्रभु सर्वव्यापक है सारा संसार उसके निरीक्षण में चल रहा है। इस संसार का नियामक और संचालक होने से परमात्मा स्वः है ।

परमात्मा ने सूर्य बनाया, तारे बनाये, अनेक नक्षत्र बनाये । ये सब परमात्मा की शक्ति के सहारे चल रहे हैं। इन देवी शरीरों का नियामक स्व: है अर्थात् वह परमात्मा जो सत, चित्, आनन्द है ।

तत्सवितुः

तत् का अर्थ है वह । तत् उसे कहते हैं, जिसकी चर्चा हो चुकी हो । विचार शक्ति का भी प्रतीक है । तत् यह है जिसका हमने विचार किया और जिसे हम जानते हैं । प्रभु को सब जानते हैं । जिसे मैं जानता हूं और जिसका स्मरण करता हूं, वही तत् है ।

सवितुः गायत्री मन्त्र में यह शब्द परमात्मा के लिए व्यवहृत हुआ है । इसी कारण इस मन्त्र को सावित्री मन्त्र भी कहा जाता है । संसार को पैदा करने की ईश्वरीय शक्ति का नाम सविता है प्रभु सर्वव्यापक है । इस संसार को उत्पन्न करने और प्राणियों को सद्बुद्धि देने की उनकी शक्ति का नाम सविता है ।

प्रकृति इस संसार का उपादान कारण है । जब प्रकृति सुषुप्ति और प्रलय की अवस्था में थी, तब ईश्वरी शक्ति ने ही उसमें हलचल पैदा की। यह शक्ति इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिए उत्तरदायी है ।

इस शक्ति से मानव में कुछ कर गुजरने का उत्साह पैदा होता है । सांसारिक जीव खाली और निष्क्रिय नहीं बैठ सकते । मानव को यह सृजनशक्ति वरदान में प्राप्त हुई है । इसी सृजनशक्ति के बल पर मानव ने कलात्मक वस्तुएं तैयार की। एक ओर मानव ने काव्य रचे, साहित्य रचा, कलाकृतियाँ तैयार की, गगनचुम्बी अट्टालिकाएं खड़ी की और दूसरी ओर कुछ ऐसी मशीनें तैयार कीं जिन पर उसका पूर्ण नियन्त्रण है ।

सब वैज्ञानिक सफलताएं इसी शक्ति से मिली हैं । सत्य और असत्य में, अच्छे और बुरे में व पाप और पुण्य में विवेक का भी नाम सविता है ।


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वरेण्यम्

वरेण्यम् का अर्थ है वरने योग्य किसी को वर लेना तथा अपना बना लेना । जो अतिश्रेष्ठ हो । वह वरेण्यम् कहलाता है । इस संसार में वरने योग्य कौन से हैं ? हम मोह के वश में होकर चाहते हैं कि संसार की सब भौतिक समृद्धियां हमें प्राप्त हो जायें । कभी-कभी तो हम उन्हें प्राप्त करने को अधीर हो उठते हैं । जिन पदार्थों से हमारी इन्द्रियों को सुख मिलता है, वे हमें अच्छे लगते हैं ।

लेकिन हमें अच्छे लगने वाले ये पदार्थ अनित्य हैं। उनसे मिलने वाला सुख अस्थायी है । हमारी कामना के योग्य तो भगवान् हैं । उसे प्राप्त करने के बाद हम शाश्वत आनन्द प्राप्त कर सकते हैं । वह अतिश्रेष्ठ है-उससे अधिक श्रेष्ठ कोई नहीं । वह भगवान् वरेण्यम् है ।

एक बार उसे चरने के बाद हम सदा के लिए उसके हो जाते हैं। हम उसी के लिए जीते हैं और उसी के लिए मरते हैं। तब हम और भगवान् अलग-अलग नहीं रहते । एक बार उसे बरने के बाद हम अपने आप को पूर्णतः उसके अर्पित कर देते हैं। वह हमारी जीवन यात्रा का सञ्चालन करने लगता है।

एक बार जब हम यह सोचकर आनन्दित हो जाते हैं कि हमारा भार उस पर है, तब जीवन के सब भय और शंकाएं दूर हो जाती हैं। वह कल्याणकारी परमात्मा हमें हमारे अन्तिम लक्ष्य की ओर ले जाता है और हम आशापूर्ण दृष्टि से उसकी ओर देखते हैं । परमात्मा हमें जिस स्थिति में भी रखेंगे, हम उसी में सन्तुष्ट रहेंगे हम अपने सब विचार और कार्य प्रभु को अर्पित करते हैं, क्योंकि प्रभु वरेण्यम् हैं।

भर्गः

भर्गः का अर्थ है उज्ज्वल प्रकाश । तेज स्वरूप । जिस शक्ति से परमात्मा पापों और कष्टों को मिटाते हैं, वह भर्गः कहलाती है। परमात्मा की शुद्ध, निर्दोष और पापनाशी महिमा भर्गः है । भगवान् ज्योतियों की ज्योति है । यदि एक साथ हजारों सूर्य उदित हो जायें तो भी उसके प्रकाश का मुकाबला नहीं कर सकते । परमात्मा पूर्ण रूप से शुद्ध है । वह सर्वज्ञ है ।

जब सोने को आग में तपाया जाता है, तब वह तप कर शुद्ध हो जाता है और अपने शुद्धतम रूप में बाहर आ जाता है। सच्ची प्रार्थना से हमें प्रभु की मिलती है। हमारी आत्मा में वह ज्योति पहले से है, लेकिन उसमें कान्ति नहीं । वह ज्योति अज्ञान और दूषित विचारों के कारण यह कान्ति अशुद्ध हो गई है । भ्रम और आध्यात्मिक अज्ञान ने हमारी आत्मा को ढका हुआ है ।

हम चाहते हैं कि हमारा वह प्रकाश पूरी कान्ति के साथ चमके । हम इसे शुद्ध बनाना चाहते हैं । हम चाहते हैं कि हमारी आत्मा का प्रकाश परमात्मा के अनुपम प्रकाश में लीन हो जाये । उसकी उपासना से ही हम उसके समीप पहुंच सकते हैं ।

हम अन्धकार की दुनिया में भटक रहे हैं। पापों ने हमारी इन्द्रियों को अपने वश में कर रखा है परिणाम यह है कि हमें सन्मार्ग दिखाई नहीं देता । हम सच्चे प्रकाश से दूर चले गये हैं । हमारी आत्मा की कान्ति पर मैल चढ़ चुका है । हमें पता ही नहीं कि हम किधर जा रहे हैं ? हमारे पैर डगमगा रहे हैं ।

हमारी आत्मा को प्रकाश की आवश्यकता है । हमारी आत्मा पर जो धूल जम गई है उसे साफ करने की आवश्यकता है । आत्मा का वह प्रकाश, वह पवित्रता तभी आ सकती है, जब हमारे हृदयों में भर्गः हो, कान्तियुक्त प्रकाश हो । प्रभु प्रकाश से हमारी आत्मा फिर प्रकाशित होगी और अन्धकार सदा के लिए दूर होगा। जिस भक्त को प्रकाश मिल चुका है, वह शुद्ध जीवन बितायेगा । वह व्रत लेगा कि उसके मन, वचन, कर्म निष्पाप हों ।

देवस्य

देव शब्द के अनेक अर्थ हैं । हमारी सब भारतीय भाषाओं में देव शब्द का व्यापक प्रयोग होता है । सामान्य भाषा में यह परमात्मा का सरल और प्रसिद्ध नाम हैं । जिस व्यक्ति में भी असाधारण गुण हों, जिस का व्यक्तित्व असाधारण हो, उसे हम देव नाम से पुकारते हैं लेकिन हमारा एकमात्र देव भगवान् है । वह देवों का देव हैं । वह सब प्राणियों की आत्माओं में निवास करने वाला परमात्मा ही एकमात्र देव है । हम गायत्री मन्त्र में उसी परमात्मा अथवा देव का स्मरण करते हैं ।

देव वह है, जो उदार हो, जो प्रकाश दे, जो दूसरों को ज्योतित करे, जिसके जीवन में हलचल हो, जो प्रशंसनीय हो और आनन्दित रहता हो । परमात्मा में ये गुण हैं, इसलिए वह देव कहलाता है । परमात्मा के अनेक गुणों और के कारण हमने अनेक देवी-देवताओं को जन्म दिया । परमात्मा के ये शक्तियाँ उसकी विभिन्न सत्ताओं अथवा अस्तित्व के रूपों के वाचक नहीं ।

ये तो उसके गुणों के वाचक हैं इन गुणों के आधार पर अन्य पदार्थों को भी देव नाम दिया गया है लेकिन उनमें प्रभु की दैवी शक्ति अथवा शुद्ध चेतना नहीं । सूर्य और चन्द्रमा गुण और प्रकाश देते हैं, इसलिए वे देव कहलाते हैं लेकिन वे अपने प्रकाश के लिए परमात्मा के प्रकाश पर निर्भर करते हैं। वायु चलती है और देव कहलाती है । दानशील व्यक्ति भी देव कहलाता है। माता, पिता, गुरु और विद्वान्-ये सब देव कहलाते हैं। लेकिन इन सब देवों का महादेव एकमात्र परमात्मा है ।

गायत्री मन्त्र का देव स्वप्रकाशित, आनन्दमय, सर्वज्ञ और सर्वव्यापक भगवान् है । वह देव सविता- उत्पादक हैं, वरेण्यम्-अतिश्रेष्ठ है और भर्गः- प्रकाशों का प्रकाश है। हम सदा उसी देव का स्मरण करते हैं। वह हमें दैवी शक्ति दे सकता है और हमारा पथ-प्रदर्शक है ।

धीमहि

धीमहि का अर्थ है हम प्रभु के ज्योतिर्मय रूप का ध्यान करते हैं-उस पर विचार करते हैं । जब हम आसन लगाकर प्रार्थना करते हैं, तब हम प्रभु का विचार करते । प्रभु पर अपना ध्यान केन्द्रित करने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने मन से सब विचार निकाल दें और शान्त हो जायें । मानसिक शान्ति हमें प्रभु की शक्ति अनुभव करने योग्य बनाती है । हमारा मन बहुत चंचल है और भटकता रहता है ।

हम चिरकाल से प्रार्थना करते आ रहे हैं, फिर भी यह इधर उधर भागता है । बहुत तेजी के साथ इधर उधर के विचार हमारे मन में आते हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम चंचल मन पर नियन्त्रण करें। प्रार्थना के समय मन में केवल भगवान् का विचार आना चाहिए । यदि हमने उसे वरने योग्य माना है और उसकी सृजनात्मक शक्ति को समझा है तो हमारे लिए अपना ध्यान उस पर केन्द्रित करना कठिन न होना चाहिए ।

यह मानव का स्वभाव है कि वह किसी प्रिय लक्ष्य की ओर आकृष्ट होता है । छात्र का ध्यान अध्ययन पर रहता है और कलाकार का ध्यान अपनी कलाकृति पर । खेल के मैदान में खिलाड़ी का ध्यान खेल पर केन्द्रित रहता है। यह आत्म- केन्द्रिता दैवी विचार की कुञ्जी है। यदि हमने सही तौर पर गायत्री मन्त्र का अर्थ समझा है और परमात्मा की महिमा का अनुभव किया है तो हमारे लिए स्थिरतापूर्वक ध्यान करना सम्भव होगा ।

ध्यान करते समय हमें अपने परिवेश को पूर्णतः भुला देना चाहिए । हमारी चिन्ताएं हम से दूर रहें। सांसारिक बातें हमें अपनी ओर न खीचें लोभ और भय हमारे पास न आयें । जब हमने अपना सर्वस्व प्रभु को अर्पित कर दिया है, तब हम संसार की भयानक बातों की चिन्ता क्यों करें ? हमारी स्थिति तो वैसी होनी चाहिए, जैसी किसी निर्वात स्थल पर रखे दीपक की होती है । इसी प्रकार मानसिक शान्ति और सुखासन प्रभु पर ध्यान केन्द्रित करने में सहायक होंगे ।

धियो

धिय का अर्थ है बुद्धियों को । हमने परमात्मा की शक्ति को अनुभव कर लिया । हमने उसे अपने हृदय में बिठा लिया । अब मांगने को बचा ही क्या है ? अब हम उससे क्या मांगें ? हम उससे किस प्रकार की सहायता चाहते हैं? क्या हम उससे धन मांगें ? क्या हम उससे राज्य और प्रभुता मांगें ? क्या हम उससे यह मांगें कि हमारे कष्ट-क्लेश दूर कर दो ? लेकिन एक बार जब हमने उसे पा लिया, तब इन भौतिक पदार्थों का कोई महत्त्व नहीं ।

तब हमें क्या चाहिए, जो हम प्रभु से मांगें । गायत्री मन्त्र में हम परमात्मा से श्रेष्ठ बुद्धि मांगते हैं । बुद्धि के ही कारण मानव अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है । आप बुद्धि के सहारे समृद्धि प्राप्त का सकते हैं इसलिए हमें परमात्मा से श्रेष्ठ युद्धि मांगनी चाहिए । यदि हम में बुद्धि है तो हमारे लिए भौतिक समृद्धि प्राप्त करना सरल हो जायेगा ।

बुद्धि मांगने का एक अन्य कारण यह है कि हम में विवेक होना चाहिए, हम में इतना विवेक होना चाहिए कि हम सत्य और असत्य में और बुरे से अच्छे में पहचान कर सकें, पाप और पुण्य को समाप्त कर सकें । श्रेष्ठ बुद्धि के सहारे हम अपनी नियति को पा सकते हैं । इस के अभाव में समस्याएं पैदा होती हैं । मनुष्य अज्ञानान्धकार में भटकता रहता है-उसे सच्चा प्रकाश दिखाई नहीं देता । बुद्धि से उसका अज्ञान संशय दूर हो जाते हैं ।

उपनिषदों में बुद्धि को आत्मारूपी रथ का सारथि कहा गया है । बुद्धि के सहारे मनुष्य उन्नति के शिखर तक पहुंचता है । बुद्धि के बिना मनुष्य बिना पतवार की नौका के समान है । जब हमारी जीवनरूपी नौका संसाररूपी समुद्र के तूफानी थपेड़ों से क्षत-विक्षत हो जाती हैं, तब बुद्धि ही इसके प्रधान चालक का काम करती है-ऐसी बुद्धि के लिए प्रार्थना करना गायत्री मन्त्र का सार है ।

यो नः प्रचोदयात्

यः का अर्थ है जो परमात्मा । हम अच्छी बुद्धि के लिए उस परमात्मा से प्रार्थना करते हैं ? जो वरने योग्य है और सब दोषों से मुक्त है ।नः का अर्थ है हमारी । हम गायत्री मन्त्र में किसकी बुद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं? न केवल अपनी बुद्धि के लिए, अपितु हम में से प्रत्येक की बुद्धि के लिए। हम केवल अपने लिए जीवित नहीं, अपितु एक-दूसरे के लिए जीवित हैं । हमें केवल अपनी उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिए । तात्पर्य यह है कि नः में हमारे सब साथी सम्मिलित हैं और हम सब के लिए प्रार्थना करते हैं ।

बुद्धि केवल – साधन है । मनुष्य इसका सदुपयोग कर सकता है और दुरुपयोग भी । वह दुष्ट भी हो सकता है । वह दूसरों को दुःख पहुंचा सकता है। घमण्डी हो सकता है । यही कारण है कि हम भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि वह हमारी बुद्धियों को सही दिशा में सञ्चालित करे । यदि परमात्मा पर हमारा विश्वास सुदृढ़ है तो हम उसकी इच्छा के विरुद्ध नहीं जायेंगे । हम घमण्डी नहीं हो जायेंगे।

सद्बुद्धि के अतिरिक्त प्रभु पर हमारा विश्वास होना चाहिए । बुद्धिहीन मनुष्य के अन्धविश्वासी हो जाने की सम्भावना बनी रहती है। मनुष्य अल्पज्ञ है और उसका ज्ञान सीमित है । उसकी बुद्धि उसे धोखा दे सकती है । परमात्मा सर्वज्ञ है और वही हमारी बुद्धियों को प्रेरणा दे सकता है । वही हमें पवित्रतर आदर्शों के लिए प्रेरित कर सकता है ।

यदि हमारी बुद्धि पवित्र है तो हमारे विचार भी पवित्र हो जायेंगे । हम सत्यमानी, सत्यवादी और सत्यकारी बनेंगे और सदा अच्छे कार्य करने के लिए प्रयत्नशील रहेंगे । इससे हमारा मन हमारे विचार और हमारे कार्य सदाचार की कसौटी पर खरे उतरने वाले होंगे। हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि वह हमें सद्बुद्धि दे और हमारे विचारों को पवित्र करे ।

वेदों में क्या है ?

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