सुख दुःख में अन्तर
‘कोई तो तन मन दु:खी कोई चित्त उदास
एक एक दुःख सभन को सुखी संत का दास’
आज समाज में मनुष्य के मन में सुख और शान्ति न होने का एक मात्र कारण यही है कि वह अपने आपको स्वयं को भूला हुआ है। आज वह न स्वयं को पहचानता है न अन्य मनुष्यों के साथ अपने वास्तविक नाते को जानता है और न ही उस ईश्वर के प्रति समीप हो रहा है। आत्मकल्याण के मार्ग में सबसे बड़ा विघ्न है यानी बाधा वह है हमारे मन में राग और द्वेष ।
सुख और दुःख जीवन के दो पहलू हैं और हमें मानना होगा कि दोनों ही अस्थिर है। सुख के प्रति यदि हमारा राग है तो दुःख से हम द्वेष करते हैं। कौन सा ऐसा व्यक्ति है जो दुःखी होना चाहता है ? किन्तु मनुष्य वही है जो किसी भी परिस्थित में विचलित नहीं होता यानी घबराता नहीं। विकारों को वश में रख समभाव रखता है। हमारे ग्रन्थ इस धारणा को सिद्ध करते हैं,
‘जो नर दुःख में दुःख नहीं माने।
हर्ष शोक से रहे न्यारा नांहि मान अपमान ।
काम क्रोध जेहि परसे नांहि ते घर ब्रह्म निवासा । ‘
ईश्वर के सच्चे भक्त दुःख आने पर घबराते नहीं। माता कुन्ती से प्रसन्न होकर प्रभु ने कुछ मांगने के लिये कहा। कुन्ती ने कहा हे ईश्वर मुझे आप और दुःख देना चाहते हो तो दे दो। चकित होकर भगवान् ने कहा अब तो आप के सुखी होने के दिन आये हैं तो आप यह और दुःख क्यों मांग रही हैं? तब माता कुन्ती ने कहा कि भगवान :-
जब भी मेरे जीवन में कोई भी संकट आये हैं तब ही भावभक्ति की पुकार से आपने मेरे कष्टों को दूर किया है।
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सिमरन करे, तो दुःख काहे को होय ।।
सहायता
इन संसारिक सुखों में कोई भी अधिक समय तक प्रसन्न नहीं रह सकता किन्तु ईश्वर की शरण में रहकर उसकी कृपादृष्टि हम पर रहेगी तो मानसिक शान्ति और प्रसन्नता बनी रहेगी। उसकी शरण में जाते ही सांसारिक भय दूर हो जाते हैं और इन्सान शोकमुक्त हो जाता है। जब इन्सान निर्भय हो जाता है तो शुभ कर्म करने के लिये निःसंकोच होकर जीवन में उन्नति करता है।
मनुष्य उस प्रभु की कृपा पाने के लिये शारीरिक, वाचिक और मानसिक इन तीनों शक्तियों का पालन करता है। मन, वचन और कर्म से वह किसी को कष्ट नहीं देता। व्यवहार में सरलता लाने से वचन में सत्यता, तथा उसमें हर कष्ट को सहन करने की क्षमता आ जाती है। उसका स्वभाव भी निर्मल हो जाता है।
शान्त स्वभाव वाले व्यक्ति को क्रोध कैसे आ सकता है? यदि उसे क्रोध आता भी है तो अपने अवगुणों पर अपने अन्दर की बुराईयों पर और परिणामस्वरूप त्याग की भावना उठने पर शान्ति जैसी अमूल्य निधि की प्राप्ति होती है।
चाह गई चिंता मिटी मनवां बेपरवाह ।
जिस को कछु नहीं चाहिये
वह शाहन के शाह ।।
स्वाभिमान
हमारे मन की सभी बुरी भावनाएं और विकार कामनाओं से उत्पन्न होते हैं। हमारी इच्छाएं पूरी नहीं होती तो लोभ, लालच पीछा नहीं छोड़ता और उससे क्रोध और अशान्ति का जन्म होता है। परन्तु दुःख में शान्त रहने से त्याग की भावना आने में विलम्ब यानी की देर नहीं होता।
सहज मिलिया सो दूध बराबर ।
मांग लिया सो पानी ।
खींच लिया सो रक्त बराबर ।
कह गये नानक ज्ञानी ॥
सुख दुःख में अन्तर न समझने में मन में उथलपुथल और जीवन में खींचातानी बनी रहेगी। ऐसी दशा में शान्ति तो कोसों दूर भागेगी। सच्ची शान्ति का भागी वहीं है जो ईश्वर की छत्रछाया और कृपादृष्टि मांगता है।
सुख दुःख में अन्तर समझ कर ।
लगाली है जिस आत्मा ने यह डुबकी।
वही श्रेष्ठ बनकर जिया है जगत् में II
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