सरलता

सरलता

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सरलता

सरलता आत्मा की स्वभाविक प्रवृत्ति है। ‘सत्य’ और ‘सरलता’ का घनिष्ठ सम्बन्ध है उसी प्रकार कपट और झूठ का। ‘सत्य’ का अर्थ है कि जिस रूप में है उसी ढंग में उसे जानना और ‘सरलता’ का अर्थ भी वही है जैसे भीतर आपका अन्तःकरण है वैसा ही आपका बाहरी व्यवहार भी। किन्तु | दुर्भाग्यवश यही माना जाने लगा है कि छल, कपट और झूठ के बिना संसारिक व्यवहार नहीं चलता।

किन्तु वास्तविकता तो यह है कि यदि हम एक दूसरे पर विश्वास न करें तो यह कैसा व्यवहार है ? यहां मैं सरलता का अभिप्राय उस भोलेपन से या | समझ बूझ से रहित होने से नहीं किन्तु माया छल, कपट, झूठ, निन्दा, घृणा से है।

किन्तु आजकल जब भी टी.वी. में, समाचार पत्रों में अथवा | रेडियो पर जब कुटिलता भरी कहानियां और किस्से सुन-सुन कर मन व्यथित सा हो उठता है। आज की संसारिक दशा का यथार्थ रूप सोते जागते आंखों के सामने आता है तो मन बार-बार अपने आप से ही प्रश्न पूछने लगता है कि आज मानवता, दानवता के स्तर पर क्यों उतर आई है?

ब्रह्मचर्य क्या है ?

चाहे कोई भी स्थिति हो चाहे वह धन सम्पत्ति पाने का लोभ हो, किसी से द्वेष, वैर विरोध हो, झूठा सम्मान पाने की आकांक्षा हो यह सब मानसिक कुटिलता का ही स्वरूप है। आज के समाज (मनसा, वाचा, कर्मण) इस सरलता का आभाव हम सब अनुभव कर रहे हैं, लोग अन्दर से कुछ और, तथा बाहर से कुछ और, आपके सामने कुछ और पीठ पीछे कुछ और, कहना कुछ और। उन सभी को दूर करने के यह सरल से उपाय हैं।

आप इसे मुर्खता से, नासमझी से व्यवहार या विवेक बुद्धि का प्रयोग न समझें क्योंकि संत कबीर ने सरल शब्दों में यह बता दिया :-

सुख का सागर सील है, कोई न पावे थाह ।

सरलता बिन साधु नहीं, द्रव्य बिना नहीं साह ||

जैसे धन के बिना कोई साहूकार नहीं कहलाता वैसे ही सरलता के बिना जीवन में साधु बनने की क्षमता नहीं होती। उसको पाने के लिए हम शारीरिक सरलता लायें। व्यवहार में ऐंठ अकड़ न रखें। दूसरी है वाणी की सरलता किसी की निन्दा न करें, उल्लाहने भरे शब्द, धिक्कार पूर्ण वचन या ऐसे शब्दों का प्रयोग न करें। जिससे किसी का मन अशान्त व दुःखी हो ।

तीसरे चरण पर है मानसिक सरलता छल-कपट, ईर्ष्या द्वेष, घृणा अहंकार, अधैर्य, अनष्ट चिन्तन यह सब तामसिक प्रवृत्तियां ही मन में सरलता को । नहीं आने देती इसलिये अन्तःकरण की निर्मलता और सरलता का बहुत महत्त्व है।

इस प्रसंग में महाराजा पुण्डरीक की एक कहानी है कि वह धन्यधान्य, ऐश्वर्य और संसारिक सुखों से परिपूर्ण हो गये तो उनके मन में कुटिलता आने लगी कि मैं तो मानव जाति में सबसे श्रेष्ठ हूँ और मेरे सामने सभी झुक जाते हैं। एक दिन वह मन्दिर में प्रवेश करने लगे तभी मन्दिर के द्वारपाल ने उन्हें रोक दिया और कहा कि जब तक तुम ईश्वर की प्रिय वस्तु अर्पण नहीं करते आप अन्दर नहीं जा सकते।

क्रोध से अहंकार भरे ऐंठ से उन्होंने अपने कर्मचारियों को आदेश दिया कि हीरे-मोतियों के थाल, चांदी की मुरली लाई जाये! परन्तु तब भी उन्हें अन्दर प्रवेश करने के लिए मना किया कि यह कैसा आडम्बर है ? मन्दिर के बाहर एक निर्धन अपाहिज और दुःखी व्यक्ति बैठा था। महाराजा पुण्डरीक को उसे देखते दया सी आई और उसके पास जमीन पर बैठकर सरल मन से उसे सान्त्वना देने लगे और द्वारपाल से उन्हें अन्दर आने के लिए प्रार्थना की।

तब उन्हें भगवान् की लीला का अनुभव हुआ और समझ में आया कि ये भक्त अब तुम वास्तव में ऐसी भेंट लाये हो जो संसार में किसी भी मूल्य से खरीदी। नहीं जा सकती वह है शुद्ध, निर्मल, उज्जवल, दयावान अन्तःकरण। सरलता के बिना मनुष्य की आत्मा शुद्ध नहीं हो। सकती और अशुद्ध आत्मा धर्म का पालन अथवा आराधना नहीं कर सकती।

आत्मचिंतन करने का मुख्य समय
सरल स्वभाव वाले व्यक्ति पर ही भगवान् प्रसन्न होकर कृपा करते हैं। गीता में ‘आर्जवम्’ शब्द का प्रयोग करके श्रीकृष्ण अर्जुन को शरीर और इन्द्रियों सहित अन्तःकरण की सरलता का उपदेश दे रहे हैं। रामचरितमानस में संत तुलसीदास ने भी इसका समर्थन करते हुए कहा :-

निर्मल मन सो मोहि भावा मोहि कपट छल छिद्र न पावा

‘सरल मन’ कला ही ईश्वर स्मरण कर सकता है।

रामायण में भी यही बताया कि ‘भोले भाव मिलै रघुराया’ परन्तु यह सरलता केवल प्रदर्शनमात्र और दिखावे की नहीं हार्दिक होनी चाहिए।

गजब का दावा है पापियो की

अजीव जिद्द पर अड़े हुए हैं,

बेकार झगड़ों पर तुल रहे हैं

अधर्मी इन्सान, किन्तु भगवान है प्रेमी

इसी भरोसे पर जी रहे हैं।

इसलिये मेरी यही प्रार्थना है कि मन वाणी और कर्मों में सरलता लाकर अपना जीवन सुखी शान्त करें।

 

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