सत्संग से आन्तरिक सुख

सत्संग से आन्तरिक सुख

 

आज हम जानने वाले हैं क्या वाकय में सत्संग से आन्तरिक सुख की प्राप्ति हो सकती है या नहीं ?

दिल का हुजरा साफ कर जानां के आने के लिये।

ध्यान गैरों से उठा ईश्वर को बिठाने के लिये ।।

इस संसार में रहते हुए हमारी इच्छाएं और तृष्णा तो हिमालय पर्वत से भी बड़ी है यदि हमें हजार वर्ष भी उम्र मिले तो भी शायद हम उन्हें पूर्ण होता हुआ न देखें यह मानव जीवन अमूल्य है हम अपने मन के अधीन हो इन इन्द्रियों के भोगों में फंसे रहते हैं। जितने भी सम्बन्ध है सब का कारण हमारा शरीर है।

उस परमात्मा ने हमें यह देह जीवन मन सुख पाने और ज्ञान कर्म और भक्ति के समन्वय के लिये ही दिया है। इसलिये उसका स्मरण करना भी हमारा मुख्य कर्त्तव्य है। संत कबीरदास जी ने प्राणियों को यही सन्देश दिया :-

राम संदेशा भेजियो दिया कबीरा रोय।

जो सुख है सत्संग में सो बैंकुठ न होय ।।

इस प्रसंग में इतिहासकार बतलाते हैं कि जैसे ही संत कबीर के मुख से यह वचन निकले उनके नेत्र बन्द हो गये और आंखों से एवं मुख से, अश्रुधारा बहने लगे, उनकी यह दशा देख सब अचम्भे में पड़ गये। एक महात्मा से रहा नहीं गया और वह संत कबीर से प्रश्न कर बैठे कि आप इस तरह क्यों रो रहे हैं ? आप जैसे सन्तुष्ट संत को ऐसा कौन सा दुःख है।

मानव समाज के चार वर्ग

कबीरदास जी का यह उत्तर सभी दर्शकों के लिये विचार करने योग्य है – उन्होंने कहा कि मुझे राम का बुलावा आ गया है और मुझे अज्ञात बैकुण्ठ में जाना है। आसपास लोगों की जिज्ञासा और भी बढ़ गई कि इसमें आपके लिये दुःख की कौन सी बात है ? आप तो इस शरीर को और सांसारिक वस्तुओं को कोई भी महत्त्व नहीं देते।

तब उत्तर में संत कबीर ने कहा मेरे साथियों यह सत्य है कि इस नश्वर शरीर को त्याग करने में मुझे किंचित भी दुःख नहीं है । परन्तु सत्संग का जो आन्तरिक सुख मुझे यहां मिलता है वहां अकेले और अज्ञात स्थान में कहां से मिलेगा ? तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में इसी सत्य का समर्थन किया है :-

तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला इक्र अंग ।

तुले न ताहि सकल मिल जो सुख लव सत्संग ।।

सत्संग के असीम सुख से लोक परलोक की तुलना कभी नहीं की जा सकती। आप भी अनुभव कर सकते हैं कि अराधना के साधन करते हुए भी प्रभु को अपने से दूर समझते हैं किन्तु जब शान्तचित्त से सत्संग करते हुए वही ईश्वर अपने समीप मालूम होने लगते हैं।

एक करोड़पति से किसी सामान्य व्यक्ति ने प्रश्न किया कि आप आलीशान गद्दे तकिये छोड़ कर इस मैली कुचैली, दरी पर बैठकर सत्संग में आने का कष्ट क्यों करते हैं तो उन्होंने विनम्र भाव से कहा मैंने बहुत धन कमाया है, संतान भी योग्य है, देश विदेश भ्रमण भी किया, किन्तु आन्तरिक मन में वास्तविक आनन्द का अनुभव सत्संग में आकर ही मिलाता है, प्रभु की महिमा और उससे प्रीति रखने में सब ओर शान्ति और सुख ही मिलता है।

स्वाभिमान

खाते में भगवान् के जाता लिखा अश्वय है।

किया अगर सत्संग तो सुधर नाचे भविष्य है।।

इसका प्रभाव न केवल हमारे वर्त्तमान पर होता है किन्तु यह भविष्य को भी संवार और सुधार देता है। सत्संग यदि सच्ची श्रद्धा विश्वास और भावभक्ति से किया जाये तो मानसिक सुख, शान्ति और यह जीवन कल्याणकारी हो जाता है। आज भी मेरी यही प्रार्थना है

ऐसा दान मिले संतों से, बन जाये वरदान यही ।

छूट जाय सब कुछ पर छूटे, रसना से हरिनाम नहीं ।।

सत्संग से आन्तरिक सुख अथवा सत्संग के द्वारा ही आन्तरिक सुख की प्राप्ति अवश्य होती है रामायण में वीर हनुमान जी युद्ध के समय भी प्रभु श्री राम जी का सत्संग किया करते थे और उनसे ज्ञान अर्जित किया करते थे उन्होंने अपन सम्पूर्ण जीवन ही  श्री राम जी की सेवा में, अगम्य एवं अटूट भक्ति में लगा दिया,

असल में जिस भी मनुष्य ने सत्संग की महिमा को पूर्ण रूप से, सद्भाव से समझ लिया वास्तव में वही मनुष्य सत्संग से आन्तरिक सुख को प्राप्त कर सकता है अतः हम सभी के लिए भक्ति भाव का सात्विक उदाहरण हैं भक्तिवीर हनुमान जी जिन्होंने सत्संग की महिमा को समझते हुए सत्संग से ही आन्तरिक सुख को प्राप्त किया 

सत्संग की महिमा

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