व्यवहार में राग और द्वेष
कहा जाता है व्यवहार में राग और द्वेष का न होना ही हमारे लिए सबसे उत्तम है यह हमारे जीवन का सत्य है कि मनुष्य एक समाजिक प्राणी है। प्रत्येक मानव के शरीर की इन्द्रियों में कहीं न कहीं यह राग और द्वेष छिपा रहता है। इन्सान का कर्त्तव्य है कि वह इनके वश में न हो क्योंकि यह दोनों ही कल्याण मार्ग और मानसिक सुख शान्ति के महान् शत्रु है।
इस समाज में, परिवार में रहते हुए आपका अपने स्वजनों से यानी अपने ही लोगों से कैसा व्यवहार है ? यह बहुत महत्त्व रखता है। स्वजन या परिवार से मेरा आशय है उसमें आपके माता-पिता, सास-ससुर, भाई-बहिन, भाभी, जेठानी- देवरानी, ननद आदि और दूसरे सभी सम्बन्धी भी।
भगवान के दर्शन
इन से आपका सम्पर्क होता है इसलिए इनके साथ हमारा व्यवहार दो ढंग से होता है सरल शब्दों में अच्छा या बुरा ! अच्छे व्यवहार का अर्थ है जिनसे सम्बन्ध रखकर आपको सुख सुविधा, सम्मान, प्रेम और प्रसन्नता मिलती है। बुरे व्यवहार से अर्थ है जो आपकी आलोचना, आपका तिरस्कार, आपकी अवहेलना करते हैं, आपको अपमान, ईर्ष्या की दृष्टि से देखते हैं।
इसका परिणाम क्या होता है कि जो स्वजन आपसे प्रेम पूर्वक व्यवहार करते हैं तो आप उनसे राग के बन्धन में फंस जाते हैं उनकी आपको जरुरत महसूस करते हैं, मिलने की चाह रखते हैं, उनसे बिछुड़ने का भय लगा रहता है उनके वियोग होने पर दुःख, चिन्ता मन में अशान्ति हो जाती है दूसरी ओर द्वेष से, बुरे व्यवहार से, आपके मन में किसी न किसी रूप में क्रोध पनपता रहता है,
उनसे बदला लेने और बुरे विचार ही अन्दर आपको अशान्त रखते हैं और नाराजगी के जाल में उलझाए रहते हैं। इसलिये यह दोनो प्रवृत्तियां राग और द्वेष मनुष्य की मानसिक अशान्ति के कारण हैं कल्याणकारी शान्ति पाने के लिये मनुष्य का कर्त्तव्य है कि उनको वश में करने का प्रयत्न करें। संत कबीर ने इसे दो ही शब्दों में कह दिया :-
अपने उरझे उरझिया दीखै सब संसार ।
अपने सुरझे सुरझिया यह गुरु ज्ञान विचार । ।
कृतज्ञता
यह मानव मन का उलझन में ही सारा संसार उलझा हुआ है। अपने सुलझाने से और ज्ञान के विचार से ही यह सुलझती है। ईश्वर ने आपको यह शक्ति दी है कि शान्त मन से विचार करके आप राग और द्वेष से मुक्त रह सकते हैं। अपने मन और मस्तिष्क में यह गूढ रहस्य जानना होगा कि कोई भी स्वजन न तो कभी सुख देता है और न ही आपकी अनुमति के बिना आपको दुःख दे सकता है।
दुख के रूप
- शारीरिक
- आर्थिक
- मानसिक
दुःख के तीन ही रुप हैं, शारीरिक, आर्थिक और मानसिक। आप मानेंगे ये मानसिक दुःख, मन में अशान्ति, चिन्ता, तनाव, परिणाम से ही Depression, Heart-attack आदि असाध्य रोगों का कारण बन जाते हैं। आपके मन में यह द्वंद्व आने वाली राग द्वेष की प्रवृत्ति को दूर करना होगा क्योंकि रामचरित मानस में तुलसीदास जी ने भी प्राणीजात से कहा-
करम प्रधान विस्व करि राखा ।
जो जस करई सो तस फलु चाखा।।
काहू न कोऊ सुख दुःख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ।।
यही विधि का विधान है। इसलिए स्वजनों से प्रेमपूर्वक व्यवहार करें और आपका अहित सोचने वालों के प्रति भी करुणा की भावना रक्खें। हृदय से मलिनता छोड़ सबके लिए ईश्वर से प्राथना करे:-
हे ईश सब सुखी हों।
कोई न हो दुःखारी ।।
सब हो नीरोग भगवन्
धन धान्य के भण्डारी ।
सब भद्र भाव देखें
सन्मार्ग के पथिक हों।
दुःखिया न कोई होवे
सृष्टि में प्राणधारी ।।
अन्त में राग द्वेष की दुविधा से मुक्ति पाने का सरल सा उपाय है। संत कबीर जी ने प्राणियों को दिया है
संसार में प्रीतड़ी, सरै न एको काम।
दुविधा में दोनो गये, माया मिली न राम ||
दान की महिमा
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