मूर्तिपूजा या ईशउपासना
इस मूर्तिपूजा का शीर्षक ‘मूर्तिपूजा या ईशउपासना’ पढ़ते ही हमारे अनेक पाठकवृन्द के मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार के प्रश्न उत्पन्न हो गए होंगे। मूर्तिपूजा और ईश्वरोपासना इन दोनों शब्दों को अलग-अलग क्यों लिखा गया है? क्या दोनों शब्दों के अर्थों तथा मान्यताओं में अन्तर है? इस ब्लॉग में इन्हीं विषयों की पौराणिक और वैदिक दृष्टिकोण की संक्षेप में व्याख्या की गई है।
पिछले अनेक वर्षों से अनेक लोगों की ऐसी मनः स्थिति बन चुकी है- ‘मूर्ति की पूजा करने से ईश्वर की पूजा हो जाती है जो एक गलत परम्परा, गलतफहमी तथा अन्धविश्वास को जन्म देती है। आज कुछ लोगों के स्वार्थ के कारण अनेक लोग भ्रमित हो रहे हैं इसलिये वर्तमान में मूर्तिपूजा के विषय में लिखना अत्यन्त आवश्यक है।
हम यहाँ पर स्पष्ट करना चाहते हैं तथा हमारे मूर्तिपूजक पाठकवृन्द से निवेदन करते हैं कि हम मूर्ति निन्दक नहीं हैं या किसी भी मूर्ति का खण्डन नहीं करते अपितु सही मायनों में मण्डन करते हैं। इस ब्लॉग को पूरा पढ़ने के पश्चात् ही हमारे प्रिय पाठकगण स्वयं निर्णय कर सकते हैं कि जो मूर्तिपूजा करते हैं वे सही हैं या गलत।
यह संगीन विषय है इसलिये बुद्धिपूर्वक एवं तर्कपूर्ण इस ब्लॉग को लिखा गया है। निर्णय आपका है। सत्य को ग्रहण करना प्रत्येक मनुष्य का धर्म है और इसके विपरीत सत्य को जानते- मानते हुए भी असत्य का साथ देना पाप ही नहीं अपितु महापाप की श्रेणी में आता है।
मूर्तिपूजा अलग है और ईश्वरोपासना अलग किन्तु दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं। विश्व के सभी मत-मतान्तर तथा धर्मप्रेमी महानुभावों को अनिवार्य रूप से उपरोक्त विषयों की जानकारी होनी चाहिये अन्यथा अज्ञानता के कारण आज लोग अनेक प्रकार के अन्धविश्वासों में फँसे हुए रहेंगे।
एक ओर विश्व के अधिकांश लोग बड़ी श्रद्धा और प्रेम से मूर्तिपूजा अर्थात् मूर्ति या प्रतिमाओं की पूजा करते हैं और दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं जो मूर्तिपूजा का पुरजोर विरोध करते हैं। अब उनमें से कौन सही है और कौन गलत इसका निर्णय तो वे ही लोग कर सकते हैं जिनका जिनके ऊपर विश्वास होता है।
मूर्तिपूजा पठनीय क्यों ?
अब अन्धविश्वासी कौन है और कौन नहीं ? यह भी बड़ा प्रश्न है। इसके लिये आर्ष-ग्रन्थ का ही सहयोग लेना पड़ेगा क्योंकि उनके स्वाध्याय बिना सत्य असत्य का निर्णय नहीं हो सकता। स्वाध्याय करने से ही ठोस प्रमाण मिल सकते हैं। तब तक हमें किसी पर भी विश्वास नहीं करना चाहिये। संसार के प्रायः सभी सुशिक्षित एवं सभ्य लोगों का मानना है कि
वेद सब सत्य विद्याओ का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों अथवा श्रेष्ठ लोगों का परम धर्म है। प्राचीन ऋषियों का मानना है कि वेद ईश्वर प्रदत्त होने से स्वतः प्रमाण पुस्तकें हैं क्योंकि जितनी भी अन्य पुस्तकें हैं, वे सभी किसी न किसी मत, मजहब, पन्थ इत्यादि के लोगों की देन हैं।
मनुष्य कितना भी महात्मा या विद्वान क्यों न हो जाए. उसके कार्यों में कहीं न कहीं त्रुटी रह ही जाती है क्योंकि जीव स्वभाव से ‘अल्पज्ञ’ है। हमें सब से पहले एक ऐसा प्रमाण सामने रखना होगा जिसकी बातें हर काल में एक सी रहती हैं अर्थात् कालान्तर में परिवर्तित नहीं होतीं। हमें ऐसे एकमात्र प्रमाण की आवश्यकता है जिस पर सब मनुष्य पूर्णरूपेण विश्वास करें।
सर्वविदित है कि विश्व के अधिकांश विद्वान, महानुभाव अपने-अपने मत-मतान्तर के बन्धन के कारण अपने बनाए गए तथाकथित धार्मिक ग्रन्थों को ही प्रामाणिक मानते हैं और दूसरे मतों का खण्डन करते हैं। इतिहास गवाह है कि मात्र वेद को छोड़कर, प्रायः सभी तथाकथित धार्मिक पुस्तकों में समय-समय पर फेर-बदल होता रहा है, उनमें अनेक बार सुधार किया जाता है और आगे भविष्य में भी परिवर्तन होने की सम्भावना है।
इसी से प्रमाणित होता है कि जैसे-जैसे मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि होती है वह अपने ग्रन्थों में सुधार करता रहता है। ईश्वर सर्वज्ञ है अतः उसकी कृति में परिवर्तन क्यों कर हो सकता है? परमात्मा अनादि काल से सृष्टि बनाता रहा है और बनाता रहेगा अतः उसकी रचना में कोई कमी नहीं होती और न ही उसमें कभी सुधार की आवश्यकता पड़ती है क्योंकि सुधार की आवश्यकता उसमें पड़ती है जब उसमें कोई कमी हो परन्तु सर्वज्ञ ईश्वर की रचना पूर्ण है।
जो-जो वस्तुएँ सृष्टि में समस्त जीवों के हित, उपभोग आदि के लिये चाहिये अथवा मनुष्य के कल्याण को ध्यान में रखकर ही रचना की है। व्यक्ति अल्पज्ञ है इसलिये पूर्ण होने की इच्छा करता रहता है। पूर्ण में ही आनन्द होता है इसलिये वह हमेशा आनन्द की तलाश में लगा रहता है। वेद कहते हैं कि ‘ईश्वर‘ ज्ञान का पूर्ण स्रोत है।
ईश्वरीय ज्ञान को भी ‘वेद’ कहते हैं जिसमें ईश्वर की बताई वाणी है। ईश्वरीय वाणी होने से वेद अन्तिम प्रमाण के रूप में जाने और माने जाते हैं अतः अन्य जितने भी वेदानुकूल ग्रन्थ है उन को भी प्रमाणित माना जाता है परन्तु वेद स्वतः होने से अन्तिम प्रमाण माना जाता है। इसलिये वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है अतः वेद का पढ़ना पढ़ना और सुनना सुनाना सब (श्रेष्ठ लोगों) का परम धर्म है।
मनुष्य ईश्वर की प्रेरणा से ही ज्ञान प्राप्त करता है। यह सत्य है कि ईश्वर स्वयं किसी अन्य की रचना नहीं करता। सृष्टि के आदिकाल में परमात्मा पुण्यात्माओ के हृदय में ज्ञान की ज्योति जगाता है और कालानार उस ईश्वरीय ज्ञान को लिखित रूप में सुरक्षित किया जाता है। इश्वरीय ज्ञान को ही ‘वेद’ का नाम दिया गया है। वेद का शाब्दिक अर्थ होता है। ज्ञान] ईश्वर सब का है और हम सब ईश्वर के हैं।
यही सब का माता पिता, मित्र और सखा है अतः उसका प्रदान किया हुआ ज्ञान मनुष्य मात्र के लिये हैं, उसे किसी देश-विशेष, जाति विशेष या मनुष्य-विशेष के लिए नहीं है। वेद सब का है और मनुष्य मात्र के लिये है। वेद मात्र हिन्दुओं का नहीं अपितु वेद पर सब का समान अधिकार है।
हम सब परमात्मा को किसी न किसी रूप में मानते ही हैं। हम उसे ईश्वर कहकर पुकारें या ‘अल्लाह’, ‘वाहेगुरु कहें या ‘गॉड’ उससे उस परमात्मा में कोई अन्तर आने वाला नहीं है। वह एक ही विशेष वस्तु (चीज, शै, पदार्थ या शक्ति) के अनेक पर्यायवाची नाम हैं। स्मरण रहे कि परमात्मा को आज तक किसी ने भी अपनी आँखों से देखा नहीं है और न कभी देख सकता है, कारण कि वह परमात्मा दिखने वाली चीज नहीं है।
दिखने वाली प्रत्येक वस्तु साकार अर्थात् आकार वाली होती है। साकार वस्तु का कोई न कोई रूप, रंग, तथा परिमाण होता है। जिसका आकार नहीं होता वह वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती। अब आप ही सोचें कि ऐसी कितनी वस्तुएँ हो सकती हैं जिनका आकार, प्रकार, रूप, रंग नहीं होता है और यदि होता भी है तो इनती सूक्ष्म स्थिति में होता है कि इन चर्म चक्षुओं से देखा नहीं जा सकता।
यदि यन्त्रों की सहायता से देखने का प्रयास भी करें तो भी अनेक वस्तुएँ विद्यमान हैं जो आधुनिक यन्त्रों से भी नहीं दिखतीं जैसे बैक्टीरिया आदि। वस्तुओं के न दिखने के और भी अनेक कारण होते हैं जिनकी चर्चा हम आगे करेंगे। यहाँ आपकी जानकारी के लिये बता दें कि वास्तव में ईश्वर और जीव दोनों चेतन वस्तुएँ होती हैं। ईश्वर “अद्वितीय“ यानी एक होता है और जीव “असंख्य“ अनेक होते हैं’ प्रकृति जड़ होती है और उससे बनी सृष्टि की अनेक वस्तुएँ सूक्ष्म तथा स्थूल होती हैं।
मूर्तिपूजा के कारण गुलामी
“चेतन वस्तुएँ स्वभाव से निराकार होती हैं तथा स्थान नहीं घेरती और जड़ वस्तुएँ आकार वाली होती हैं तथा स्थान घेरती हैं। परन्तु इन में भी अनेक वस्तुएँ अत्यन्त सूक्ष्मावस्था में होने से हमें आँखों से दिखाई नहीं देतीं हैं। विज्ञान कहता है कि जो सब से छोटी वस्तु होती है उसका विभाग नहीं होता।
चेतन वस्तु में सब से छोटी जीवात्मा होती है और सब से बड़ा ‘परमात्मा’। जड़ प्रकृति में सब से छोटा परमाणु तथा सब से बड़ा आकाश होता है। ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों को अनादि कहते हैं क्योंकि इनका निर्माण नहीं होता या इन तीनों का निर्माता नहीं होता। ईश्वर, जीव और प्रकृति में दो वस्तुएँ पूर्ण होती हैं। ईश्वर सर्वज्ञ होने से पूर्ण होता है और प्रकृति जड़ता में पूर्ण होती है।
ईश्वर सब के बारे में सबकुछ जानता है इसलिये पूर्ण है। और प्रकृति न अपने बारे में, न ही दूसरों के बारे में कुछ जानती है इसलिये वह अज्ञानता में पूर्ण होती है। रही बात जीव की तो वह चेतनता के कारण कुछ-कुछ जानता है, ज्ञान रखता है। जीव प्रकृति की ओर जाता है और उसमें अज्ञानता बढ़ती है जिसकी वजह से दुःखी होता है और दूसरी ओर यदि वह अपनी बुद्धि का प्रयोग करके ईश्वर की उपासना करता है तो उसे अधिक ज्ञान प्राप्त होता है जिससे वह आनन्द की अनुभूति करता है।
मुझे ‘मूर्तिपूजा या ईश्वरोपासना’ लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली? जहां देखो वहीं लोग प्रायः किसी न किसी मूर्ति के आगे हाथ जोड़े खड़े रहते हैं और कुछ न कुछ माँगते ही रहते हैं। क्या कोई मूर्ति मनुष्य की माँगों को पूर्ण कर सकती हैं? यदि हाँ तो हम उस सच्चिदानन्द स्वरूप ईश्वर की पूजा क्यों करें? और यदि नहीं तो लोग व्यर्थ में अपना अनमोल समय क्यों गँवा रहे हैं?
मैंने बहुत सोचा और अपनी लेखनी इसी कार्य में लगा दी। हो सकता है मेरी इस पुस्तक से कुछ लोगों को मार्गदर्शन मिल जाए और वे सत्य मार्ग पर चलने का प्रयास करें। मेरी इच्छा रही है कि जितना स्वाध्याय करके मैंने जो कुछ ज्ञान प्राप्त किया है उसे दूसरों तक पहुँचा सकूँ ताकि वे भी अन्धविश्वास का मार्ग त्यागकर वापस सत्य सनातन वैदिक मार्ग पर लौट आएँ। लोगों को सत्य और असत्य के बारे में कुछ जानकारी मिलेगी तो ही उनका जीवन सफल हो सकेगा।
बात करें कर्तव्य और धर्म की तो कर्तव्य और धर्म में थोड़ा अन्तर होता है। कर्तव्यों के दायरे में पारिवारिक और सामाजिक नियम आते हैं और धर्म की परिधि में कर्त्तव्यों के अतिरिक्त आध्यात्मिक विषय भी सम्मिलित होते हैं। आजकल के मनुष्य मात्र धन को ही सब कुछ समझकर महत्त्व देते हैं। धर्म के मर्म को जानने में किसी को रुचि नहीं है। कोई समझना नहीं चाहता। किसी के पास समय नहीं है।
आर्ष-ग्रन्थों का स्वाध्याय भूतकाल की बातें रह गई हैं। बिना सोचे-समझे किसी भी मूर्ति के आगे झुकने, माथा टेकने से वह समझता है कि अपने मनुष्य होने का कर्त्तव्य निभा दिया है जिससे परमात्मा प्रसन्न होकर उसकी सब मुरादें पूर्ण कर देंगे। ईश्वर ने मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी बनाया और उसी सर्वश्रेष्ठ प्राणी ने, जहाँ देखो वहीं, ईश्वर को एक मज़ाक का विषय बनाया हुआ है।
इस नजारे को देखकर बहुत दुःख होता है। इतना पढ़-लिख कर डिग्रियाँ प्राप्त करके भी स्वयं को सुसंस्कारित नहीं कर पाया है। स्वयं को सभ्य समझने वाला आज का मनुष्य अपने ही निर्माण के बारे में कुछ नहीं जानता। है ना सबसे बड़े आश्चर्य की बात! संसार को बने लगभग दो अरब वर्ष होने को हैं फिर भी वह न तो अपने बारे में और न ही अपने परमेश्वर के बारे में जानता है।
आखिर हमने आज तक क्या सीखा? मैं यह नहीं जानता कि सब मनुष्य इस विषय से प्रभावित होंगे परन्तु इतना अवश्य समझ सकता हूँ कि जितने भी महानुभाव इस विषय को अच्छी तरह से पढ़ेंगे उनको अवश्य ही ईश्वर के विषय में कुछ-कुछ जानकारी प्राप्त होगी। मैंने इस विषय को वेद तथा अनेक आर्ष ग्रन्थों के प्रमाण देकर सजाया है ताकि कोई शंका न रह जाए।
वास्तव में ईश्वर को पूर्णरूपेण जानना या समझना किसी भी प्राणी के बस की बात नहीं है परन्तु अपने जीवन को सफल बनाने के लिये, मनुष्य कहाने के लिये तथा परमात्मा का सुपात्र बनने के लिये यह विषय उपयोगी होगी। प्रभु चाहेगा तो हम सब की मनोकामनाएँ पूर्ण होंगी और परम प्रिय मित्र परमात्मा के वास्तविक साक्षात्कार होंगे।
विज्ञान और धर्म
देवी-देवता जैसे हमारे जीवित माता-पिता, भाई-भगिनी, पति-पत्नी, मित्र, गुरु, आचार्य, विद्वान्, अतिथि, सन्यासी, साधु, सन्त, महात्मा, मस्त, मौला, फकीर के सामने जाने या किसी मन्दिर, मस्जिद, गिरिजे, गुरुद्वारे आदि में जाने से पहले निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण बातों पर भी विचार करें-
वैष (अपनी संस्कृति के अनुसार पहनावा, भूषा (किन-किन आभूषणों की आवश्यकता है), भाषा (अपनी मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा का प्रयोग), भोजन (मनुष्य की प्रकृति के अनुसार प्राकृतिक भोजन), भजन (ईश्वर की बनाई जीवित मूर्तियों की पूजा एवं ईश्वरोपासना), भावना (छल-कपट रहित निष्कलंक और निर्मल मनःस्थिति), श्रद्धा (सत्य-धारणा) आदि ।
अंत में ईश्वर की कृपा सदैव सब पर बनी रहे। अनेकानेक शुभ कामनाओं सहित………….
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