प्रेम की परिभाषा
प्रेम की परिभाषा:- वैसे तो आज Valentine का त्यौहार है। यह है तो पश्चिमी सभ्यता का उत्सव पर आप देखते हैं कि आज कल भारतवर्ष और अन्य देशों में भी इसका बोलबाला है। इसी विचार श्रृंखला में सोच कर आज के विषय पर ध्यान गया कि इस ढाई अक्षर प्रेम में कितना रहस्य छिपा हुआ है। फिर ध्यान गया संत कबीर के वचनों पर
पोथी पढ़ पढ़ कर जग मुआ, पंडित भयो न कोय।
ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ॥
हम सब इस बात से परिचित हैं कि शब्द LOVE प्रेम की भाषा वास्तव में गूंगों की भाषा मानी गई है। सारे संसार की भाषाएँ अगर उल्टपुल्ट कर देखी जाये तो इस एक शब्द की पूरी परिभाषा नहीं मिलती। समस्त देशों का इतिहास और साहित्य उठा कर देखें तो Romeo juliet, हीर-रांझा हो, सस्सी – पून्नू हो, Poetry हो, संगीत हो, सूफी कलाम हो, या गज़ल हो, सभी में इस शब्द की चर्चा अनेक रंगों में दिखाई देती है।
स्वाभाविक है कि मन में प्रश्न उठता है कि यह है क्या? सच्चा प्रेम सहज और स्वाभाविक होता है क्योंकि प्रेम का यथार्थ रूप कामना रहित है। इच्छा पूर्ति, प्रलोभन और कामनाओं से उसकी वास्तविकता का अन्त हो जाता है। प्रेम सूक्ष्म से भी सूक्ष्मत्तर है। यह अनुभव किया जा सकता है इसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।
यदि यह सच्चे और पवित्र भावना से हृदय से किया जाये तो प्रकाश की तरह बढ़ता है, कभी कम नही होता। ऐसा प्रेम तर्क-वितर्क और वाद विवाद का विषय नहीं होता । यह तो हुआ प्रेम का वास्तविक स्वरूप किन्तु विडम्बना तो यह है कि इस माया रूपी भवसागर में अडचन आ जाती है तो मन की । संकीर्णता, ईर्ष्या, द्वेष, वाणी में कटुताई और कठोरता आदि।
प्रेम करना सीखो
समाज में व्यक्ति का यह स्वभाव है कि वह अपने बदले दूसरों की ओर ज्यादा दृष्टिपात रखता है। दूसरों का धन, दूसरों की उन्नति, दूसरों के यश और गौरव से ईर्ष्या करने लगता है। यही कारण है कि समाज में, सहयोगियों के प्रति आपसी प्रेम का अभाव यानी कमी दिखाई देता है। किन्तु इस संसार के भंवर में गोते लगाने वालो के लिये प्रेम एक ऐसी नौका है जिसे पाकर शान्त मन से आप एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुंच सकते हैं।
यह प्रेम चाहे भक्त और भगवान् में हो, गुरू और शिष्य में हो, पति-पत्नी में हो, प्रेमी और प्रेमिका में हो, माता-पिता के प्रति या संतान सम्बन्धीजन के लिए हो, यदि वह स्वार्थरहित है तो इससे अहंकार, अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष, जैसे अवगुण स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं। प्रेम की परिभाषा को कई अर्थों में विभाजित किया गया है, इसका सीमा अपार है, प्रेम में वह शक्ति है की यह किसी भी बंधनों को तोड़ सकती है
धर्मपालन करने वालों के लिये इस अक्षर प्रेम को महत्त्व देने की आवश्यकता है क्योंकि भक्त का अपने भगवान् से अपने इष्ट देवताओं के प्रति निःस्वार्थ प्रेम रखना अनिवार्य है। सच्चा प्रेम कामना रहित होता है और आदर्शों को सामने रखकर किसी के प्रति विरोधी भी नहीं होता।
प्रेम
दीप से दीप जलाते चलो।
प्रेम की गंगा बहाते चलो।।
ईश्वर के प्रकृति की रचना से इन्सान को कितना कुछ प्राप्त है। गुलाब के फूलों को ही देखिये यह काटों की झाड़ियों में लिपटा हुआ भी सुगन्ध देता है। कमल का फूल कीचड़ में रहता हुआ खिलखिलाता है। किसी ने क्या सुन्दर कहा है :-
प्रेम तो हृदय की वस्तु है कथनी में आवे नहीं
सके न कोई तोल
यह तो हमारे मन की मलिनता है जो सच्चा प्रेम करने में बाधक बनती है। किन्तु यह सम्बन्ध है बड़ा नाजुक रहीम जी ने कितने सुन्दर शब्दों में इस सम्बन्ध का महत्त्व समझाते हुए मानवजन को शिक्षा दी है।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय ।
टूटू से फिर न जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाय ।।
समन्वय ही इसका वास्तविक स्वरूप है और इसी भावना में जीवन के आदर्श निहित है। किसी कवि ने दो ही शब्दों में यह सार कह दिया।
सागर सावन देता है मधुबन खुशबू देता है।
दिल वह दिल है जो औरों को धड़कन देता है ।।
जीना उसी का जीना है।
जो औरों को प्रेम से जीवन देता है ।।
वस्तुतः प्रेम की परिभाषा को सभी विद्वानों ने लगभग एक जैसा ही बताया है की यह निश्चल है, अटूट है, असीमित है, इसमें कितने ही रहस्य छुपे हुए हैं, यह स्वाभाविक है, और यह कामना रहित है। इसीलिए सच्चे और सात्विक प्रेम को हर प्राणिमात्र द्वारा अत्यंत पसंद किया जाता है।
अतः आप सभी को मेरा प्रेम भरा नमस्कार
आनन्द
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