प्रार्थना
जब हम ईश्वर से प्रार्थना करना छोड़ देते हैं और जब मानव निराशा के अन्धकार में डूबता है तो मन चिल्ला उठता है कि भगवन्, मेरे में अब इतनी भी शक्ति नहीं रही कि मैं इन सांसारिक झंझटों और दुःखों को झेल सकूं, मैं टूट सा गया हूं इस विषय को किसी कवि ने दो ही शब्दों में कह दिया :-
मरजी चेतन की जब झख मारन की होय ।
मृगतृष्णा के नीर में वह चलयो बिन तोय।।
सहायता
मुझसे चिन्तन, उपासना, और प्रार्थना नहीं हो सकता। मेरा मन इतना अस्त व्यस्त है कि मेरा ईश्वर की ओर ध्यान ही नहीं जाता और न ही किसी की स्तुति में मेरा मन लगता है। मुझे जीने की कोई इच्छा नहीं इस अन्धकार में प्रकाश का कोई चिन्ह दिखाई नहीं देता, कहां जाऊं और क्या करूं ? कोई मार्ग दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसी स्थिति में एक ही आवाज सान्त्वना दिला सकती है और वह है मन अतः तू स्तुति कर उस प्रभु का और कह दे :-
जो नर दुःख में दुःख नहीं माने।
हर्ष शोक से रहे न्यारा,
नाहिं मान अपमाना ।
काम क्रोध जेहि परसे नांहि ।
ते घर ब्रह्म निवासा
इन्सान तब सोचता है कि ईश्वर तू ही है। मुझ दुःखी आत्मा, दीन की पुकार और कौन सुनेगा ? तुम्हें छोड़कर मैं कहीं नहीं जा सकता।
भगवन् मेरा सहारा तेरे सिवाय नहीं है।
आधार एक तू है बस दूसरा नहीं है ।।
जब मन में यह दिव्य शक्ति उत्पन्न होती है कि अब तो बस उस ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना ही है जो मुझे मानसिक संतुलन और शान्ति दे सकती है क्योंकि भगवत-प्रार्थना में अपार दिव्यता छिपी है जो मन को शान्त कर सकती है और उससे मानसिक क्लेशों का अन्त हो सकता है। सच्चे दिल से की हुई प्रार्थना से असम्भव कार्य भी आखिर सम्भव हो ही जाता है।
प्रार्थना से ही हमारे अन्तर यानी अन्दर का अंधेरा दूर हो जाता है और प्रकाश की ज्योति का दीपक टिमटिमाने लगता है, जगमगाने लगता है। मन भजनों के संगीत में थिरथिराने लगता है। उस लय और संगीत से आपके पैर भी थिरकने लगते हैं उनमें नाचने की शक्ति उभर आती है, जैसे बावरी मीरा श्रीकृष्ण की भक्ति में गाने लगी थी। सूरदास जी इक तारा लिये ईश्वर गुणगान में मग्न अवं आत्मविभोर हो गये थे।
मानव समाज के चार वर्ग
स्तुति के फलस्वरूप जब मन शान्त होता है तो अम्बर सतरंगी हो जाता है। सूर्योदय का भान होता है चन्द्रमा शीतलता हो जीवन सुलभ अनुभव कराता है। सभी प्राणियों के प्रति घृणा, द्वेष, वैर भाव भस्म हो जाते हैं। आपके हृदय की शुद्ध शक्ति जागृत हो जाती है।
प्रार्थना से जब हृदय में उस प्रभु के प्रति अगाध प्रेम होगा तो उदारता से दूसरों की सहायता के भाव उत्पन्न होंगे। ईश्वर से एकाकार हो आपको ऐसा प्रतीत होगा कि आपकी सभी इच्छाएं पूर्ण हो गई हैं और भटकना समाप्त हो जायेगा। भक्त भावविभोर होकर मस्ती से झूम उठेगा, प्रार्थना ही उसके जीवन में हिस्सा बनकर उसके मन में समा जाएगी और उसे आत्मविभोर कर देगी।
प्रार्थना से तन और मन दोनो ही स्वस्थ हो जाते हैं। जीवन की कठिन समस्याओं का अन्त हो जाता है। आवश्यकता है तो केवल दृढ़ विश्वास और श्रद्धा की। इसलिए आरती के आरम्भ में यही शब्द दुहराते हैं।
‘जो ध्यावे फल पावे, दुःख विनसे मन का
सुख सम्पत्ति घर आवे, कष्ट मिटे तन का ‘
सच्ची प्रार्थना से भक्त के मन की यही पुकार है
लाचार जिन्दगी को तेरा ही आसरा है
प्राणों में प्रेरणा का संचार कीजिये ।
तेरे बगैर दाता किस को कहां पुकारूं
सुन कर मेरी प्रार्थना मेरा उपकार कीजिये ।।
अतः हे ईश्वर सभी दर्शकों, श्रोताओं एवं पाठकगण के लिये मेरी यह प्रार्थना ह्रदय की गहराइयों से स्वीकार करो।
सहनशीलता