मूर्तियों में प्राण-प्रतिष्ठा
आज हम बात करने वाले हैं मूर्तियों में प्राण-प्रतिष्ठा के सन्दर्भ में, प्राण प्रतिष्ठा का अर्थ है- जड़ मूर्तियों में प्राण डालना अर्थात् उन्हें जीवित करना। क्या इससे मूर्तियाँ जीवित हो उठती हैं? यदि मनुष्य मूर्तियों में प्राण डाल सकता है तो वह मुर्दों को भी जीवित कर सकता है। मनुष्यों को मृत्यु से बचा सकता है। किन्तु यह मनुष्य का सबसे बड़ा भ्रम है कि वह मूर्तियों को जीवित कर देता है।
क्या मनुष्य स्वयं को परमात्मा से अधिक शक्तिशाली प्रामाणित करना चाहता है? प्राणों की प्रतिष्ठा स्वयं परमात्मा करता है और यहाँ ईश्वर के प्राणों की प्रतिष्ठा मनुष्य कर रहा है। इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है!?! ईश्वर और मनुष्य दोनों ही मूर्तिकार हैं। दोनों की कारीगरी में जमीन आसमान का फर्क है। ईश्वर प्राण-प्रतिष्ठा करता है तो मूर्तियाँ जीवित हो उठती हैं और मनुष्य की मूर्तियाँ जड़ ही रहती हैं।
ईश्वर की मूर्तियों में समानता नहीं होती, सब एक-दूसरे से अलग होती हैं और उसने लाखो नहीं अरबों नहीं अनगिनत संख्या में बनाई हैं परन्तु आज तक किसी एक की शक्ल-सूरत दूसरी मूर्ति से नहीं मिलती। एक ही माता-पिता की संतानें भी एक सी नहीं होतीं, उनमें भी बहुत अन्तर होता है। उसकी बनाई मूर्तियाँ हँसती हैं, रोती हैं, खाती-पीती हैं, बोलती हैं, प्रसन्न होती हैं, नाराज होती हैं, आपस में लड़ती-झगड़ती हैं, आपस में प्रेम भी कर बैठती हैं और अपना घर बसा लेती हैं। इससे उसकी सर्वज्ञता का पता चलता है। है ना प्रभु के लीला का कमाल !
मूर्ति पूजा पठनीय क्यों ?
दूसरी ओर मनुष्य भी मूर्तियाँ बनाता है परन्तु दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। मनुष्य की बनाई अनेक मूर्तियाँ एक ही साँचे से बनी होती हैं। इसलिये एक सी होती हैं। कार कम्पनी कार बनाती है तो सब एक सी लगती है। मनुष्य की बनाई जड़ मूर्तियाँ, जिनमें बड़े-बड़े पण्डित, नामी-गिरामी पण्डितगण, प्राण-प्रतिष्ठत करने का दावा करते हैं या एक प्रकार का ग ढोंग रचाते हैं फिर भी उनकी मूर्तियों में आज तक थोड़ी सी भी हरकत नहीं दिखाई दी है। मूर्तियाँ जड़ की जड़ ही रह जाती हैं।
जड़ वस्तु भला चेतन कैसे हो सकती है? यह मनुष्य की सब से बड़ी अज्ञानता का प्रतीक है। प्राण प्रतिष्ठा से यदि जीवन मिलता तो कोई प्राणी मरता ही क्यों? मरने के बाद तो ईश्वर भी मुर्दे में जान नहीं डालता तो क्या इन्सान भगवान् से भी अधिक ज्ञानी हो गया है जो वह मूर्तियों में जान डालकर उन्हें जीवित करना चाहता है? प्राण प्रतिष्ठा के बाद तो मूर्तियों को जीवित हो उड़ना जाना चाहिये और उन्हें जीवित प्राणियों की तरह व्यवहार करने लगना चाहिये परन्तु ऐसा नहीं दिखता है।
ईश्वर जब भी गर्भस्थ शिशु में प्राण-प्रतिष्ठा करता है तब उसके शरीर में तेजी से विकास होने लगता है और उसमें हल-चल भी प्रारम्भ हो जाती है लेकिन जब एक पण्डित मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठित करता है तो उसमें हलचल पैदा नहीं होती है इससे यही प्रमाणित होता है कि वह वास्तव में प्राण-प्रतिष्ठा नहीं होती, यह केवल मन को समझाने वाली बात होती है कि हमने मूर्ति को जीवित कर दिया है और वह अब ईश्वर बन गई है और उसकी पूजा की जा सकती है।
वास्तव में प्राण-प्रतिष्ठा करना पाखण्ड है, अपने भक्तजनों से धन ऐंठने का तरीका है। स्मरण रहे कि जड़ वस्तु में कोई भी प्राण प्रतिष्ठित नहीं कर सकता क्योंकि यह प्रकृति नियम के विरुद्ध है। भला जिसे स्वयं परमात्मा भी नहीं कर सकता, वह काम एक पण्डित कर सकता है? कदापि नही ! यदि मूर्तियों में प्राण-प्रतिष्ठित होते तो मन्दिरों से अनेक मूर्तियाँ चुराई नहीं जा सकती थीं या चोरी नहीं होतीं।
लोग प्रातःकाल की अमृत वेला में पहले स्वयं उठते हैं, नहा-धोकर बाद में मूर्ति को जगाने का ढोंग करते हैं। उसको भोग लगाते हैं। मालूम नहीं क्या-क्या करते हैं। स्वयं को धार्मिक दिखाने के लिए स्वयं ही अपने माथे पर मिक यानी टीका लगाते हैं। मूर्ति के भगवान् को जगाने के लिये घण्टियाँ बजाते हैं। शंख नाद आदि यन्त्र बजाते हैं। आप क्या समझते हो कि ईश्वर रात को सोता रहता है और आपके उठने पर ही जागता है? हम ईश्वर को नहीं स्वयं को मूर्ख बना रहे हैं।
नास्तिक या आस्तिक ?
नियन्त्रित करता है। इस ब्रह्माण्ड में अनेक, अनगिनत असंख्य लोक-लोकान्तरों में परम पिता परमात्मा सदैव कार्यरत रहता है यानी कार्य करता रहता है। समस्त ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करता रहता है। कहीं निर्माण तो कहीं विनाश करता रहता है। प्रत्येक जीव के कर्मों का फल प्रदान करता रहता है। पल भर के लिये भी वह निष्क्रिय नहीं रहता। जब हम सोते हैं तो वही हम सब की रक्षा करता है।
क्या मूर्ति यह सब कार्य कर सकती है? क्या मूर्ति का भगवान् मूर्ति से बाहर आ सकता है?
हमने उसे मन्दिरों के भीतर कमरों में तालों में बन्द करके अपराधी की तरह रखा हुआ है। हम बाहर और वह अन्दर मनुष्य के मस्तिष्क पर आश्चर्य होता है! ईश्वर ऐसे मूर्तिपूजकों को सद्बुद्धि प्रदान करे ताकि वे सत्य मार्ग पर चलें और सच्चे शिव की तलाश करके उसे अपने मन-मन्दिर में बिठाएँ और जब चाहिये तब उसका दर्शन कर सकें। स्मरण रहे कि वह परमात्मा घट-घट में सदैव विराजमान है। दर्शन के लिये जरूरत है तो वह है मात्र ज्ञानचक्षुओं की! ज्ञान चक्षु खोलो और प्रभु प्यारे के दर्शन कर लो !
दार्शनिक दृष्टिकोण की बात करें तो मूर्तियाँ भी बहुत कुछ बताने का प्रयास करती हैं। किसी विषय को स्पष्ट करने में हमें अनेक पुस्तकों का सहारा लेना पड़ता है या उसके बारे में किसी व्यक्ति से जानकारी लेनी पड़ती है परन्तु एक मूर्ति को देखकर साधारण व्यक्ति भी उसके बारे में बिना बताए अनेक जानकारी प्राप्त कर लेता है। पूछने की जरूरत नहीं पड़ती। जैसे किसी देश का नक्शा देखकर उसकी सीमा इत्यादि के बारे में बहुत कुछ ज्ञान मिलने लगता है, वैसे ही एक मूर्ति या तस्वीर को देखकर उसके व्यक्तित्व के बारे में अनेक अनकही तथा अनसुनी बातों का पता चल जाता है।
इस बात से मूर्ति पूजा सिद्ध नहीं होती। पुराणों में वर्णित जैसे श्री राम अथवा श्री कृष्ण, जो हमारे पूज्य हैं, उनकी अपने घरों में मूर्तियाँ रखनी चाहियें, मूर्तिपूजा सजाकर रखनी चाहियें। इसमें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है परन्तु उन प्रतिमाओं की पूजा करना अनुचित है एवं अवैदिक कार्य है। उन तस्वीरो से शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। उनके चित्र को देखकर उनके पीछे छुपे चरित्र का अनुकरण करना ही उनकी सच्ची पूजा हो सकती है। धूप अगरबत्ती जलाने से नहीं!
जब हमारे घर पर कोई अतिथि आता है जब हम अपने घर की साफ-सफाई करते हैं वैसे ही हमें अपने मन की भी साफ-सफाई करनी चाहिये। जहाँ मन साफ होता है वहाँ ईश्वर का वास होता है और जहाँ ईश्वर का वास होता है वहाँ आनन्द ही आनन्द होता है।
हमने आँगन नहीं बुहारा, कैसे आएँगे भगवान् ?
मन का मैल नहीं धोया, तो कैसे आएँगे भगवान् ?
हर कोने कल्मष, कसायी की लगी हुई है ढेरी ।
नहीं ज्ञान की किरण कहीं है, हर कोठरी अंधेरी,
आँगन चौबारा अंधियारा, आँगन चौबारा अंधियारा,
आँगन चौबारा अंधियारा, कैसे आएँगे भगवान् ?
हृदय तुम्हारा पिघल न पाया, न देखा दुखियारा ।
किसी पंथ भूले ने तुमसे, पाया नहीं सहारा,
सूखी है करुणा की धारा, करुणामय स्वर नहीं तुम्हारा,
सूखी है करुणा की धारा, कैसे आएँगे भगवान् ?
अंदर के पट खोल देख लो, ईश्वर पास मिलेगा,
हर प्राणी में ही परमेश्वर का आभास मिलेगा,
इस पर हमने नहीं विचारा, इस पर तूने नहीं विचारा,
इस पर सबने नहीं विचारा, कैसे आएँगे भगवान् ?
मूर्तिपूजा का चलन