नैतिकता
आज हम बात करने वाले हैं नैतिकता की क्योंकि इस संसारिक जीवन में सभी मनुष्य किसी न किसी की कामना करते हैं। एक बार एक सिद्ध महात्मा ने वस्तु एक जनसमुदाय से अपनी अपनी इच्छा के अनुसार वर मांगने के लिये कहा। किसी ने एक महल जैसे बड़े से घर में रहने की इच्छा प्रकट की, किसी ने अपने खेतों में फसल और हरियाली मांगी।
किसी ने अपने व्यापार में असीम लाभ मांगा, किसी ने अपनी संतान का आज्ञाकारी होना चाहा और किसी ने शत्रुओं पर जीत और सच्ची मित्रता और प्रतिष्ठित सम्मान मांगा। किन्तु महात्मा को बहुत आश्चर्य हुआ कि किसी ने भी धर्माचरण जो सारी सम्पत्तियों में बड़ा धन हैं जिसके मिलते ही सब धन आपके पास स्वयं खिंचे चले आते हैं वह है हमारे जीवन में नैतिकता ।
नैतिकता की आधारशिला नीति है। उस सर्वशक्तिमय नाम की भक्ति चंचल मन को नियन्त्रित करके इच्छाओं का त्याग और नियमों के प्रति समर्पित होने की प्रेरणा देती है। सच्चा भक्त कहता है :-
हमारा धर्म हो सेवा,
हमारा कर्म हो सेवा ।
सदा इमान हो सेवा,
सफल जीवन बना देना ।।
वाणी का महत्त्व
वर्तमान में हम धर्म की नहीं मानव धर्म के अभाव को अनुभव कर रहे हैं। भिन्न भिन्न क्षेत्रों में अच्छे संस्कारों से मनुष्यः व्यवहार करता है उससे ही जीवन में नीति का नियमों का निर्माण होता है। यह तो आपको मानना ही होगा कि सृष्टि चक्र स्वयं नहीं चल रहा उसे चलाने वाली शक्ति कोई और है और उसका बोध होना ही नैतिकता का प्रथम चरण है।
‘मैं छत पर पतंग उड़ा रहा था।
हवाओं का दम आजमा रहा था।
पतंग खीचे जा रहा था वह मेरी ।
और मैं डोर अपनी बढ़ा रहा था।
खेल खेल में ही काटी पतंग उसने।
मुझमें ही कोई कमी थी वरना ।
इशारों में वो समझा रहा था ।।
सभी प्राणियों के लिये यह संसार एक सा है। इसमें कर्म, प्रतिष्ठा सुख दुःख स्वास्थ्य जीवन तत्व जैसी सम्पति बिखरी हुई है किन्तु प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने स्वभाव और मानसिक स्थिति के अनुसार सुखी और दुःखी होते हैं। हम सब अपने नोभाव, अपने स्वभाव अपनी रूचि और दृष्टिकोण के अनुसार अपना पृथक संसार रचा लेते हैं।
अपनी विचारशक्ति में उच्च आदर्शों, उच्च स्वप्नों उन्नतिशील विचार लाये और इन्हें अपने दैनिक जीवन और कार्यों में प्रत्यक्ष उतारने का प्रयत्न करे। अपने संकल्पों को दृढ़ बनाये। आप इनसे अज्ञात नहीं जब यह शब्द दुहराते हैं
‘जैसी करनी वैसी भरनी’
सुख दुःख में अन्तर
यदि हम निजी जीवन में सुख शान्ति चाहते हैं तो नियम से, दैवी वृत्तियों, प्रेम, दया, सहानुभूति, विनम्रता, सेवा, त्याग, और सहनशीलता को विकसित करें। गम्भीरता से विचार करें तो आध्यात्मिक उन्नति का आधार कोई भी भक्ति पूजा, अभ्यास या साधना तो है किन्तु उसके साथ दैवी गुणों का व्यवहार और सदाचार है। इसलिये कहा जाता है :-
अपने विचारों पर ध्यान कीजिये
यही आपके शब्द बन जाते हैं।
अपने शब्दों पर ध्यान दीजिये
क्योंकि यही आपका व्यवहार बन जाता है
अपने व्यवहार पर ध्यान दीजिये
यही आपकी आदतें बन जाती हैं।
अपनी आदतों पर ध्यान दीजिये
जो आपका चरित्र बन जाती है
अपने चरित्र पर ध्यान दीजिये
यही आपका भाग्य बन जाता है ।।
अतः हम सभी का अपने परिवार के प्रति, अपने समाज के प्रति, अपने राष्ट्र के प्रति अथवा देश के पति कुछ महत्वपूर्ण नैतिक कर्तव्य होते हैं जिन्हें निःसंकोच हमें पालन करने की बहुत जरुरत है जिस प्रकार हम प्रतिदिन २४ घंटे इस धरती से कुछ न कुछ लेते ही रहते हैं, पर उसे वापस नहीं करते जैसे :- शुद्ध वायु, जल, इत्यादि और इस वातावरण को प्रतिदिन दूषित तो करते हैं ।
पर कभी स्वच्छ करने का प्रयास नहीं करते अतः यह हमारा परम नैतिक कर्तव्य बनता है की हम जो भी चीजें इस प्रकृति से लेते हैं उसे साफ़ सुथरा रखने का प्रयास करें अन्यथा हम पाप के भागीदारी हैं।
भगवान या ईश्वर कौन सही ?
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