चिन्ता

चिन्ता

क्या चिन्ताओं से आज तक कोई समस्या हल हुई है ?

प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी प्रकार की चिन्ता से पीड़ित रहता है। यदि हम गम्भीरता से विचार करें तो हमारी मानसिक अशान्ति का मुख्य कारण इच्छाओं की पूर्ति जब नहीं होती तो मन चिन्ता से व्याकुल हो जाता है। किसी प्रकार की हानि, कुछ भी अशुभ, अहित, अनिष्ट की आशंकायें मन में उठती ही रहती है। भविष्य को सोच सोच कर निराश होना चिन्ता का मूलकारण है । चिन्तित व्यक्ति हमेशा यही सोचता है कि पता नहीं आगे क्या होगा ?

व्यापारी सोचता है कि पता नहीं मेरे व्यापार में लाभ होगा। या मुझे हानि ही उठानी पड़ेगी। बेरोजगार को बेरोजगारी की चिन्ता सताती है कि यदि मेरी नौकरी छूट गई तो मेरा और मेरे परिवार का निर्वाह कैसे होगा ? अन्य मनुष्य रात दिन इस चिंतन में है कि मैंने इतने बड़े घर, कार अन्य आवश्यकताओं के लिए इतना ऋण (उधार) लिया है उसे कब और कैसे चुका पाऊंगा।

संयम

दूसरी ओर अधिक धन होने पर यह चिन्ता (लालच) होती है कि उसे किस ओर लगाया जाये कि वह और भी बढ़ सके। राजनीति के क्षेत्र में नेताओं को चिंतित है कि कहीं यह सत्ता, हमारी कुर्सी हम से छिन न जाये। हर देश की सरकार को चिंतित है कि विरोधी दलों व अन्य देशों से अपनी सुरक्षा कैसे की जाये। स्वभाविक है कि मन में प्रश्न उठता है कि इन चिन्ताओं की जंजीरों से कैसे मुक्त हों ?

अपने भीतर के आत्मबल को जगाकर अशुभ बातों की चिन्ता न करें भविष्य में क्या होगा ? इसे तो कोई नहीं जानता इसलिए उस विचार में डूब कर समय नष्ट करना मुर्खता है।

कह रहा है आसमां यह सब समां कुछ भी नहीं

पीस दूंगा एक गर्दिश में जहां रहता कुछ भी नहीं

हमारा वर्त्तमान तो हमारे पुरुषार्थ में है। यदि मनुष्य इसे भूत भविष्य की चिन्ताओं में नष्ट करे तो अपने सुनहरे वर्त्तमान को खो देगा और समय रेत की भांति हमारी अंगुलियों से निकल जायेगा।

ऐसा सोच मन में विचार आता है कि मनुष्य को विषय में सोचना चाहिये । दूरदर्शी होना भी इन्सान का एक गुण है। सोच विचार करना तो उचित है, हमारा कर्त्तव्य है किन्तु चिन्ताओं की चिंगारियों में चिरकर अपने को झुलसाना नहीं है। कहते हैं ‘चिन्ता चित्ता समान‘ मानसिक मृत्यु के रूप में यह जो चिन्ताएं हैं इनसे बचना चाहिये। आप ही बताईये चिन्ता करने से लाभ ही क्या है? चिन्तित व्यक्ति जैसे परिणाम चाहता है वैसा हो गया तो उसने अपना समय नष्ट किया और यदि वैसा न हुआ तो जैसा कि वह चाहता है तो उसमें उसका कुछ वश नहीं।

चिन्ता
चिन्ता
वेदों में क्या है ?

चिंतित रहने से मानव की स्मृति भी दुर्बल हो जाती है। उसका विवेक यानी बुद्धि मंद अथवा कमजोर पड़ जाता है उसकी निर्णय शक्ति ठीक तरह से काम नहीं करती वह मन लगाकर परिश्रम और पुरुषार्थ भी नहीं कर पाता और दुविधाओं और उलझनों में जकड़ा रहता है। हमें समझना यही है कि जीवन में उतार चढ़ाव तो आते ही रहते हैं। निश्चिन्त होकर कर्म करने से मनुष्य को सफलता प्राप्त होती है।

हे भगवान् मुझे चाहे कश्ती न दे

किनारा न दे

किन्तु इक हौसला तो दो

ईश्वर के भजन, उसमें विश्वास से ही संसारिक चिन्ताओं से मुक्ति मिल सकती है। भगवन् के स्वरूप का चिन्तन ही एक पुरुषार्थ है जो मानसिक दुःखों का निवारण कर देता है। चिन्ताओं से व्याकुल मन जब इधर उधर भागता है, डावांडोल होता है उस समय केवल भक्ति से, भगवत् चिन्तन से, मन एकाग्र हो जाता है और मानसिक शान्ति भी प्राप्त होती है। इसलिये जीवन में सदा ईश्वरीय स्मृति में आनन्दित रहकर अपने कर्त्तव्यों को निभाते हुए कार्यरत रहना होगा।

अन्त में इतना कहूंगा :-

संयम, साधना, यम, कहे उत्तम आगम ग्रन्थ।

आत्मा के कल्याण के है यह पावन पन्थ ||

मुर्दे को भी देत है कपड़ा पानी आग ।

जीवत नर चिन्ता करे ताको बड़ा अभाग

हम चिन्तित होकर अभागी न बनें। संत कबीर ने इसे कितने सरल शब्दों में कह दिया :-

मन की आटी अटपटी झटपट लखे न कोय।

मन की खटपट जो मिटे चटपट दर्शन होय ।।

आत्मचिंतन


सफल और सुखी होना आपके हाथों में है

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