एकाग्रता

एकाग्रता

आज हम बात करने वाले हैं एकाग्रता की आज सुबह यह गजल सुनते हुए कि ‘मन के मत पर मत चलियो ये जीते जी मरवा देगा‘ ध्यान इस विषय पर चला गया कि यह कितना सत्य है कि मानव मन इतना चंचल है कि प्रत्येक क्षण यहां से वहां क्यों भटकता है?

प्राचीनकाल से ही हमारी हिन्दू संस्कृति में, हमारे ऋषि मुनियों ने इस तथ्य को भलीभांति जानने और मन की क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं को एकाग्र करने के हमें कई उपाय भी बताये। तो एक शब्द ‘एकाग्रता’ (Concentration ) इस विषय पर आज कुछ विचार प्रस्तुत कर रहा हूं।

मानव मन की तुलना एक वानर बन्दर से की है। आप देखेंगे कि एक बन्दर किसी एक स्थान पर अधिक समय के लिये नहीं टिकता एक शाखा से दूसरी पर, कभी ऊंचे तो कभी नींचे, वैसे ही हमारा मन एक विषय पर स्थिर नहीं रहता। क्षण भर में ही अनेक विषय हमारे मन स्तर पर आते हैं।

कई बार उल्टे-सीधे, विरोधी भावनाएं भी होती हैं ओर उनमें परिवर्तन आने की गति भी वही प्रचण्ड होती है।

धर्म का स्वरुप

यह हमारा मन केवल अपने अनुसार ही चलना चाहता है वह अपनी इच्छाओं, अपनी आवश्यकताओं को सहज से ही पहचान लेता है और उसके अनुकूल ही कार्य करता है। पूर्व हो या पश्चिम उत्तर हो या दक्षिण, भारत में हो या वह किसी अन्य देश में, कहीं भी किसी अवस्था में स्थिर नहीं होता पर ऐसा क्यों है?

उसका मुख्य कारण है – आलस्य, आलसी व्यक्ति में सजगता कम होती है मन में उत्साह न होने के कारण इन्सान निराश रहता है और परिश्रम स्वरूप उसकी इन्द्रियों की क्षमता भी कम हो जाती है।

 

आलस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।

अधनस्य कुतो मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम।।

एकाग्रता
एकाग्रता

अर्थात् आलसी के पास विद्या कहां ? विद्या बिना धन किस काम है। निर्धन के मित्र नहीं बनते और इस समाज में मित्रों के बिना आनन्द की प्राप्ति नहीं होती। दूसरा शत्रु है निरर्थक बोलना, यदि हम गम्भीरता से सोचें कि दिन भर में हम क्या बोल रहे हैं तो हमारी अधिकतर बातें उद्देश्हीन होती हैं।

भर्तृहरि जी ने अधिकतर ही तो कहा कि कुछ न कुछ व्यर्थ की बातों में उलझ कर अधम लोग दूसरों की निन्दा और औरों की चर्चा में लगे रहते हैं। मध्यम चरित्र के लोग घटनाओं बदलती ऋतु, और मौसम के बारे में वार्त्तालाप करते हैं और उत्तम स्तर के लोग अपने संकल्पों आदर्शों आत्मस्तर पर उन्नति के विषय में बोलते हैं।

उपकार

कम बोलने के अभ्यास से वाणी में शक्ति ओर मन की ऊर्जा का विकास होता है। माना कि यदि हम बाहर बोलना भी कम कर दें किन्तु मन ही मन निरर्थक विचार आते रहे तो वह ओर भी हानिकारक है इससे न तो ज्ञान बढ़ता है और न ही अपने लक्ष्य पर केन्द्रित हो सकते हैं

एकाग्रता का अन्य शत्रु है बिना उद्देश्य के कार्य करना, जिनका जीवन में कोई महत्त्व, कोई अर्थ और कोई भी लाभ नहीं होता। हमारी कई आदतें ऐसी बन जाती हैं कि बिना आवश्यकता के हम उन्हें दुहराते हैं और उन आदतों को बदलना एक समस्या सी बनकर रह  जाती है।

एकाग्रता का सबसे बड़ा शत्रु वह है जब इन्सान किसी भी विशेष वस्तु या व्यक्ति में अत्यधिक लगाव और आसक्ति रखता है। उसके मन पर संकुचित विचारों का प्रवाह चलता रहता है। मैं और मेरा भाव इतना प्रबल हो जाता है कि स्वयं से और दूसरों से शत्रुता भी मोल ले लेते हैं।

जब किसी की प्राप्ति की इतनी तीव्र इच्छा जिसे लोभ या अधिकार का नाम दे सकते हैं, जिसे पाने के लिये आपके मन में जलन, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि भावनाएं जन्म लेती है।

ऐसे विकार मन की स्थिरता में बाधा बनते हैं किन्तु सर्वजनों में अपनापन लाकर दूसरों के दु:ख में दुःखी ओर सुख में सुखी होते हैं तो मानसिक पवित्रता और एकाग्रता आने लगती है।

मन में यह भावनाएं जगायें कि ईश्वर अनन्त हैं, इससे प्रेम का विस्तार होता है। समाज के चन्द व्यक्तियों के प्रिय बनने के | स्थान पर यदि भगवान में आस्था रखें मन को एकाग्र कर इन शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें तो जीवन की हर चुनौती में हंसते हंसते सफल हो सकेंगे।

संयम

अन्त में दर्शकों को इस पर विचार करने के लिये कहूंगा की:-

नीले – झील के इस पर तो शबनमी ख्यालों का मीलों लम्बा सफर है।

आंखों के असीमित दायरों में उज्जवल चांदनी के ख्वाब हैं।

रौशनी की डोर से नाजुक हसीन राहें हैं

पर उस पार खुली आंखों से हमें देखना होगा।

 

भंवर में डूबती जिन्दगी को कस के तट से बांधना होगा। मन को एकाग्रता से स्थिर कर उस पार के सच को हंस हंस कर अपनी बाहों में भरना होगा।

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