ईश्वर हमारे भीतर ही है

ईश्वर हमारे भीतर ही है

आज हम जानने वाले हैं की ईश्वर हमारे भीतर ही है जैसे कि हम किसी भी धर्म में विश्वास और आस्था रखते हैं किन्तु हमें इस तथ्य को भली भांति अपने को समझाना होगा कि जिस ईश्वर को हम खोज रहे हैं जो हमारे मन के सुख और शान्ति का कारण है वह हमारे अन्दर ही समाया हुआ है। वह किसी Laboratory या प्रयोगशाला में नहीं जिसमें (Research) अनुसंधान या खोज करके तभी हम उसे पा सकते हैं?

क्यों भटकता फिर रहा तू ए तलाशे यार में।

रास्ता शाहरंग में है दिलबर पै जाने के लिए।।

जो भगवान् चौबीस घंटे हमारे भीतर विद्यमान् है हम उसकी खोज में बाहर क्यों भटकते फिर रहे हैं ? जिस परमात्मा ने सारी सृष्टि की रचना की है, जो हमें जीवन देता है, इसकी रखवाली भी करता है, वह तो हमारे शरीर के अन्दर ही विद्यमान है, हम उसे बाहरी आंखों से खोजने का प्रयास क्यों कर रहे हैं ? संत कबीर ने इसे कितने सरल शब्दों में कहा है :-

ज्यों तिल माही तेल है

जो चकमक में आगि ।

तेरा साईं तुझ में जागि सके तो जाग ||

मूरख लोग न जानहि बाहिर ढूंढन जांहि

सहायता

हम इन्सान मूर्ख हैं जो हम उसे अपने भीतर ढूंढने के बदले बाहर ढूंढने का प्रयत्न करते हैं। उसकी खोज में हम मन्दिर मस्जिद, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों में जाते हैं उसका कारण यही है कि हमारे और मालिक के बीच भ्रम का पर्दा है इसलिये हमें वह साक्षात् दिखाई नहीं देता।

‘साहिब साहिब क्या करे

साहिब तेरे पास रे’

कभी मन में यह विचार करते हैं कि वह नीली छतरी लिये आकाश की असीम ऊंचाई पर छिपा हुआ है किन्तु जो वास्तविक भक्त है जिसमें ईश्वरीय प्रेम जाग चुका है वह इन भ्रमों और झंझटों में नहीं फंसते। संत कबीर ने इस भ्रम को दूर करने का प्रयत्न इन चन्द शब्दों में ही कर दिया है :-

कांकर पत्थर जोरि के मस्ज़िद लई चुनाय ।

तां चढ़ मुल्ला बांग दे क्या बहिरा हुआ खुदाय ।।

मुल्ला चढ़ किलकारियां अलख न बहिरा होय ।

जेहि कारन तू बांग दे सो दिलहीं अन्दर होय ।।

ईश्वर बहरा नहीं जो अपने भक्तों की पुकार न सुने वह अपने भीतर ही है जिसे जागरूकता से, सच्ची भक्ति से उसे प्राप्त किया जा सकता है। बुल्लेशाह भी प्राणीमात्र को यही सन्देश दे रहे हैं कि :-

वेद कुरान पढ़ पढ़ कर थक्के ।

सजदे करदयां घिस गये मथ्थे।

न रब तीरथ न रब मक्के।

जिन पाया तिन दिल विच बसे।

यही हमारी देह ही ईश्वर के रहने का स्थान है। वेदों में प्रमाण भी है कि ईश्वर सर्वव्यापक है, वह हर जगह विद्यमान है, ऐसी कोई भी जगह नहीं, जहाँ वह न रहता हो।   

वाणी का महत्त्व

‘हर मंदिर एह शरीर है’

ईश्वर हमारे भीतर ही है

हम अपने धार्मिक स्थानों को अपनी इष्ट मूर्तियों को कितना सजाते संवारते हैं, फूलों की वृष्टि करते हैं, किन्तु जो आत्मा इस शरीर के अन्दर है, हममें समाया हुआ है, उसमें बुरे विचार, ईर्ष्या, द्वेष, पाप और गलत कार्य करते रहते हैं। स्वाभाविक है कि हर एक व्यक्ति के मन में प्रश्न आता है कि यदि ईश्वर की सत्ता हमारे अन्दर ही है तो हमें वह साक्षात् नज़र क्यों नहीं आता ?

हमारे अन्दर ऐसी कौन सी रुकावट या बन्धन है जो हमें उससे मिलाने में बाधक बनता है ? उसका सरल सा उत्तर है कि जब तक हमारे अन्दर अहंकार की ‘मैं और मेरे’ की भावना प्रधान है तब तक वह ईश्वर हमें साक्षात नजर नहीं आ सकता। ईसामसीह ने यही तो कहा है कि वह सच्ची ज्योति (Eternal light) प्रत्येक मनुष्य को प्रकाशित करती है।

जिसके न तो कोई बुरा है न अच्छा, सब प्राणी अपने अपने कर्मों के अनुसार यह जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हम इसी जीवन में मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं यदि हमारे अन्दर से अहंकार मिट जाये। गुरूनानक देव जी कहते हैं

जीवन मुक्त सो आखिये । जिस विच होये जाई ॥

यह हमारा अहम् और मोह ही है जो हमें बन्धन में बांधता है।

अन्त में मैं बस इतना ही कहूंगा कि :-

जीव न जाने राम को

राम जीव के पास ।

सब घटि माहैं रमि रहया

सोई बूझे राम को जो रामस्नेही होय ।

अर्थात जो वास्वविक भक्त है, अपनी आत्मा के साथ एकाग्र होकर अपने ईश्वर को आखिर पा ही लेता है।

क्या आप भी ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं ?

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