आन्तरिक शान्ति

आन्तरिक शान्ति

 

आज बात करने वाले हैं आन्तरिक शान्ति की :- इस वैज्ञानिक आधुनिक युग में सभी इतने व्यस्त हैं। प्राणी अपनी रोज ही समस्याओं में जूझ कर यह सांसारिक जीवन यापन कर रहे हैं। इस भाग दोड़ में किसी के पास मनन व चिन्तन का समय ही नहीं कि वह शान्त मनसे अपने हृदय से अपनी आत्मा की आवाज सुने ।

मानव समाज के चार वर्ग

कारण स्पष्ट है कि यह सांसारिक वस्तुएं सुन्दर और आकर्षित दिखाई देती है। विषयों में अपनी इन्द्रियों की सन्तुष्टि करते हुए हम धनी और समृद्ध तो हो सकते हैं किन्तु आन्तरिक शान्ति और सुख से वंचित होकर, भीतर से एक खोखला सा जीवन बिताते हुए समय व्यतीत करते हैं।

वश होयेगी जब इन्द्रियां

न भोग में तब जायेंगी।

स्वाधीन होकर चित्त के अन्तर्मुखी हो जायेंगी । ।

संतों ने भी इसी तथ्य को बतलाया कि इन्द्रियों से विषयों में सुख ढूंढने वाला भोगी है और जो दुःख में समभाव रहे वह त्यागी है।स्वाभाविक है कि मानव अपने आपको ही कर्त्ता मानता है उस चक्कर में पड़कर उसे शुभ, अशुभ, सत्य, असत्य का आभास ही नहीं होता। अधर्म के मार्ग पर चलने से भयभीत भी नहीं होता। संत कबीर जी ने सरल शब्दों में इस जीवन के विषय में कहा है :-

नदिया गहरी नाव पुरानी

केहि विधि पार तू हौवे रे।

कहे कबीर सुनो भाई साधो,

व्याज धोवे मूल मत खोवो रे ।।

वस्तुत: आन्तरिक शान्ति का आधार-धर्म ही जीवन का मूल है क्योंकि

अधर्म की टहनी कभी फलती नहीं

नाव कागज की कभी चलती नहीं

जीवन में मनुष्य चाहे धनी, समृद्ध हो जाये, अपनी शत्रुओं पर विजय भी पा ले परन्तु समूल नष्ट हो जाता है। यदि सत्कर्म नहीं करता। मनुष्य के जीवनमें उसके अच्छे किये हुए कर्म ही धर्म हैं और बुरे कर्म ही अधर्म हैं। ऐसे ही अशुभ कर्मों के परिणाम स्वरुप हमारे धर्मग्रन्थों में कई उदाहरण हैं। महाभारत में धर्म अधर्म का अन्तर बताने के लिये गृहस्थ में युद्ध, दुष्प्रवृत्तियों और सत्प्रवृत्तियों का प्रतीक है।

सहायता

गीतामें धर्मक्षेत्र और कुरूक्षेत्र का वर्णन है, श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को बताया कि युद्ध का परिणाम ठीक नहीं होता किन्तु उसके बुरे कर्मों अविवेक और स्वार्थ राज्य लालसा की प्रवृत्ति से कौरववंश का नाश हुआ। जैसे जैसे हमारी इच्छाएं बढ़ती जाती है हमारी आन्तरिक शान्ति समाप्त हो जाती है। रहीम जी ने कितना सुन्दर लिखा है :-

बड़े पेट के भरन में रहीम दुःख बाढ़ि ।

या ते हाथी हरि के दिये दांत द्वे काढ़ि ।

आन्तरिक शान्ति
आन्तरिक शान्ति

अर्थात् बड़े पेट भरने के लिए बड़े कष्टों का सामना भी करना पड़ता है। सफल घुड़सवार वही है जो निश्चित स्थान पर सरलता से पहुंच सके। जो मनुष्य संयम कर इन्द्रियों पर विजय पा लेता है वह शान्त स्वभाव का हो जाता है। जब भी मन में गलत और अशुभ विचार आये उन्हें बदलने का प्रयास करे।

बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो भूतकाल के सामने मस्तक झुका देता है और आने वाले भविष्य और वर्त्तमान का उत्साह से स्वागत करता है। सुख दुःख आशा, निराशा में मानसिक संतुलन बनाये रखता है। अपने जीवन की बागडोर ईश्वर को समर्पण कर निर्मल हृदय से अत्मिक बल प्राप्त करता है।

शुभ दिन है वह आत्म समर्पण के

न सोचने के न डरने के

बड़े भाग्यशाली होंगे वे मानव

जो मन प्रभु चरणों में धर जायेंगे।

अतः मैं, मेरा, कह कर शान्ति को न खोयें, स्वभाव से दया, प्रेम, उदारता, सहानुभूति, सहनशीलता के गुण अपनायें। भगवान् को अर्पित किये हुए कर्म ही इस जीवन में शान्ति पाने की आधारशिला है। किसी शायर ने सच ही तो कहा है :-

अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़।

एक मिट जाने की हसरत अब दिले विस्मिल में है ।।

मानव जीवन को सुन्दर और सुलभ बनाने और आन्तरिक शान्ति पाने का सरल सा मार्ग है।

नाम का तेरे फकत हमको सहारा हो गया।

हर मरज की तू दवा और तू ही चारा हो गया।।

चाहे तारो, चाहे मारो, हर तरह हाजिर हूं मैं

जान और दिल देकर तुम्हें

बिल्कुल तुम्हारा हो गया ||

अतः आप सभी का शुभचिन्तन और मानसिक शान्ति के लिये ईश्वर से प्रार्थना करता हूं।

दयालुता

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