आत्मचिंतन करने का मुख्य समय

आत्मचिंतन

आज हम बात करने वाले हैं कि आखिर आत्मचिंतन क्यों जरूरी है हमारे लिए :-

आत्मचिंतन
आत्मचिंतन

मुझमें समा जा इस तरह इस प्राण का जो तौर है।

जिसमें न फिर कोई कह सके मैं और हूं तू और है।

हम सबमें आन्तरिक चिंतन का अक्षय भंडार भरा हुआ है। | जब हम किसी सुन्दर डाली पर खिले हुए फूल को देखते हैं तो मन में आता है कि कितना अच्छा होता यदि हम भी ऐसे सुन्दर और आकर्षक होते। जब उपवन में अथवा जंगलों में मोरनी को सरलता से उसके पंखों के रंग बिरंगे रंग फैला मस्ती से आत्मविभोर देखते हैं तो मन में यही इच्छा होती है कि ऐसी मस्ती से बिना किसी चिंता के नाच सकें।

हमारे पावों की थिरकन हमारी आन्तरिक भावनाओं को व्यक्त कर सकें। जब किसी कवि की कविता या सुरताल से गाया हुआ संगीत, किसी भक्त का अन्तर हृदय से सुन्दर भजन सुनते हैं तो स्वभाविक है कि मन में इच्छा सी होती है कि काश ! हम भी हृदय को छूने वाले संगीत को लिख सकते और मधुर गायन कर सकते।

ब्रह्मचर्य क्या है ?

जब हम कृष्ण की बाल लीला, श्रीराम के पारिवारिक सम्बन्ध और पावन चरित्र पर ध्यान देते हैं, प्रहलाद की माता पिता के प्रति प्रेम और निष्ठा, दधिचि का देवत्व की रक्षा के लिये बलिदान, देश को स्वतन्त्रता दिलाने वाले शहीदों की वीरता की गाथाएं सुनते हैं, पढ़ते हैं तो हमारे मन ही मन यह तीव्र इच्छा जागती है कि काश ये सब चिन्तन, उत्तम गुण, चरित्र की विशेषताएं हम भी जीवन में प्रकट कर सकें।

हमारे भीतर हर गुप्त रूप से छिपी हुई आत्मशक्ति एक उच्च भावना को जन्म तो अवश्य देती है और श्रेष्ठता की ओर बढ़ने का संकेत देती है। किन्तु अब अपनी विचारधारा मोड़िये यदि हम किसी मन्द बुद्धि व्यक्ति को देखते हैं कि ईश्वर हमें इस तरह की मूढ़ता कभी भी न देना कि हम अपना मानसिक संतुलन खो दें। किसी कुरुप को देख बदसूरत भी नहीं होना चाहते, किसी अपाहिज को देख दया आती है, कि हम कभी भी ऐसे दुर्बल दीन न हों।

किसी रोगी को देख स्वस्थ रहने की ओर ध्यान करते हुए कभी रोग युक्त होना नहीं चाहते, कंस की तरह पीड़ा देने वाले नहीं बनना चाहते। सीता हरण करने वाले रावण के प्रति हमारे मन में सहानुभूति नहीं होती। दुर्योधन के लिये उसकी पराजय का कोई झुकाव मन में नहीं आता क्योंकि उसका कारण उनकी दुष्प्रवृत्तियां थीं।

किन्तु हमारी आत्मशक्ति इतनी प्रबल है कि हम अच्छाई की ओर बढ़ना तो चाहते हैं किन्तु भटक जाते हैं। हम अपने मनोस्थिति के मालिक हैं हमारे भीतर शक्ति है, बुद्धि है, विचार करने की शक्ति भी है। समझ में नहीं आता कि हर इन्सान में विद्वता तो है पर न जाने राह में क्यों भटक जाता है।

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अपने मन को टटोलें और हमेशा शुभकर्मों और अच्छी प्रवृत्तियों की ओर ध्यान लगाने की चेष्टा करें, हमारी आत्मशक्ति का वास्तिविक स्वरूप जो सत-चित और आनन्द का है उसे विकसित करें और जीवन में आत्मचिन्तन कर उल्लास और हर्ष लाएं । यह हमारी आत्मशक्ति ही है जो जो आत्म संतोष के सारे द्वार खोल देती है। जीवन की सामान्य गति में उत्साहपूर्ण जीने की कला सिखाती है। किसी कवि ने सच ही तो कहा है :-

जो अपनी हस्ती को मिटा चुके हैं,

वह खुदा को खुद ही में पा चुके हैं।

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