सुख और दुःख का चक्र

सुख और दुःख का चक्र

सुख और दुःख का चक्र

 

‘संत कबीर के यह शब्द – सुख और दुःख का चक्र को बहुत अच्छे से परिभाषित करते हैं :-

“देह धरे का दण्ड है सब काहू को होय

   ज्ञानी भुगते ज्ञान कर अज्ञानी भुगतै रोय”

यह शरीर धारण करके प्रारब्ध भोग सबको ही भोगना पड़ता है किन्तु अन्तर यही है कि दुःख को ज्ञानी ज्ञानपूर्वक सन्तोष से भोगता है और अज्ञानी रो-रो कर भोगता है। साधारण जन यही कहते हैं कि यह संसार दुःखों का घर है। हम स्वयं ही इस जीवन में अनुभव करते हैं कि हमें समय समय पर कभी सुख और कभी दुःख का अनुभव होता है।

“सुख दुःख हानी लाभ यश अपयश विधि हाथ’

उन्नति, अवनत्ति, सम्पत्ति, विपत्ति का मिला जुला जीवन मानव को जीना ही पड़ता है। यह सुख और दुःख मनुष्य के जीवन में एक पहिये के चक्र की तरह निरन्तर घूमते रहते हैं । बाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि

दुर्लभं हि सहा सुखम्

अर्थात् मनुष्य को हमेशा

सुख तो नहीं मिलता।

सुखिया ढूंढत मैं फिरूं, सुखिया मिलै न कोय।

जाके आगे दुःख कहूं, पहिले उठ के रोय ।।

इसलिये दुःख, कष्ट आने पर मुसीबतों का सामना करने झेलने के लिये धैर्य्य रखना आवश्यक है। अपने मन पर नियन्त्रण कर शान्तचित्त रहने का प्रयास कर आशावादी दृष्टिकोण रख कर यही सोच कि रात के घोर अन्धकार के बाद सूर्य अवश्य उदय होगा। धैर्य्य का सहारा ही है जो दुःखद परिस्थितियों में मानव को शक्ति प्रदान करता है।

वाणी का महत्त्व

यदि हम अपने धर्मग्रन्थों के पन्ने पढ़ें तो देखते हैं कि श्रीराम, श्रीकृष्ण, महात्मा बुद्ध, ईसामसीह, गुरु गोविन्द सिंह जी जितने भी अवतार और महापुरुष हुए हैं उन्होंने इस संसार में जन्म लेकर अनेक प्रकार के कष्टों और कठिन परिस्थितियों का सामना | किया है। धैर्य्य का फल हमेशा मीठा होता है। संत रहीम ने कितने सुन्दर शब्दों में प्राणीजात को शिक्षा दी कि

रहिमन विपदा हूँ भली, जो थोरे दिन होय ।

हित अनहित या जगत् में, जानि परत सब कोय |

दुःख के समय ही ईश्वर हमारी मनोस्थिति की परीक्षा लेता है। ऐसे समय में ही हमारे सगे-सम्बन्धियों और हितैषी मित्रों का पता चलता है। रामचरित मानस की यह पक्त्तियां इस सत्य को बतलाती हैं।

‘धीरज धर्म मित्र अरु नारी ।

आपद् काल परिखिअहि चारी ।।

महापुरुषों की यही शिक्षा है कि कठिनाईयां तो जीवन में आती ही रहेंगी किन्तु धैर्य्य से उनका सामना करना ही बुद्धिमानी के लक्षण हैं। एक मिट्टी भी पानी में गीली होकर आग में तप कर ही उसका कोई आकार बनता है और तभी मूल्यवान होती है। सोने को भी अग्नि में तपकर ही सुन्दर आभूषण बनते हैं। इसी प्रकार मनुष्य भी विषम पिरस्थितियों, कष्टों को सहकर ही परिपक्व होता है।

आप इस बात से सहमत होंगे कि अनुकूल समय सुख में तो प्रत्येक व्यक्ति आनन्दित और उत्साहित रहता है किन्तु जो प्रतिकूल परिस्थिति में भी शान्त रहे अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रखे वहीं व्यक्ति सफल और शान्त रह सकता है। दुःख के समय उस | भगवन् का स्मरण करे क्योंकि उसकी शरण में जाना और आश्रय लेना ही दुःख निवारण का सर्वश्रेष्ठ उपाय है।

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।

जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ।।

सुख और दुःख का चक्र
सुख दुःख में अन्तर

शुभ भावनाओं से ईश्वर का मनन चिन्तन न करना मानसिक दुविधाओं, क्लेशों और विपत्ति का कारण बन जाता है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही उपदेश दिया कि ‘तुम मुझमें चित्त लगा लो, मेरी शरण में आकर’ समर्पण करे तो फिर मेरी कृपा से सभी कठिनाईयों और द्वन्दों का अन्त हो जायेगा। अन्त में इतना ही कहूंगा कि :-

जीवन चलने का नाम है। लाख बाधायें हैं पग में।

लेकिन रुक सकते नहीं। समझ ले हे इन्सान।

अतः सुख और दुःख का चक्र तो हमेशा से चलता आ रहा है और हमेशा ही चलता रहेगा क्योंकि जो भी होता है किसी कारणवश ही होता है अतः उसे स्वीकार कर, स्वीकार कर और स्वीकार कर।

समय
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