संयम
आज हम जानने वाले हैं संयम के विषय में अथवा संयमता के विषय में, आज के इस भौतिकवादी युग में मानव क्यों दुःखी है जिसका मुख्य कारण इस बढ़ती हुई प्रगति के साथ ऐसे आकर्षण हैं कि जो मनुष्य को अपनी ओर खींचते चले जा रहे हैं अपनी निजी समस्याओं से आक्रान्त व्यक्ति जीवन व्यतीत कर रहा है। क्योंकि
‘दाम बिना निर्धन दुःख तृष्णावश धनवान् ।
कहूँ न सुख संसार में सब जग देखयो छान
वेदों में संपूर्ण विज्ञान
यदि आप किसी भी कारणवश दुःखी हैं तो आप इसका दोष अपने भाग्य, अपने कुकर्मों और किसी और व्यक्ति पर क्यों मढ़ना चाहते हैं। आप क्यों क्रोधित और असन्तुष्ट रहते हैं। अपनी इच्छाओं को कामनाओं को क्यों बढ़ावा दे रहे हैं इन सबका उत्तर यदि है तो वह है एक शब्द ‘संयम’। आज इसी एक शब्द पर अपने विचार रख रह हूं।
संयमी मनुष्य के जीवन में सबसे मूल्यवान वस्तु है जिसे पाकर मनुष्य धीर, गम्भीर और निश्चल हो जाता है। मन का संयमता ही शान्ति का पूर्ण स्थान है। इसके आने से इन्सान के मन में धन-दौलत, सेवक, वेशभूषा, आभूषण, प्रशंसा आदि दूसरों के सहारे की आवश्यकता नहीं रहती। इसको पाकर मनुष्य आत्म अधिकारी और सन्तुष्ट रह सकता है और दूसरों पर निर्भरता को छोड़ कर स्वावलम्बी और शान्ति प्राप्त कर सकता है।
सुकरात एक मस्त फकीर के रूप में रहता है जो हमेशा ही प्रसन्न रहता था। किसी व्यक्ति ने उससे प्रश्न किया कि आपके सदाबहार खुशी का कारण क्या है? उसने हंस कर उत्तर दिया कि दुनिया में इतनी आकर्षण वाली वस्तुएं हैं किन्तु मैं उन सबके बिना बड़ी अच्छी तरह से निर्वाह कर रहा हूं। जैसे-जैसे हमारी इच्छाएं बढ़ती है हमारी मानसिक अशान्ति भी बढ़ती चली जाती है। संत रहीम जी ने इस बात को पुष्टि करते हुए कहा है :-
बड़े पेट के भरन है रहीम दुःख वाढ़ि ।
या ते हाथी है हरि कै दिये दांत द्वे काढ़ि ।।
बड़े पेट के भरने के कारण ही हाथी के आगे के दांत बाहर निकले हुए हैं।
वेदों में क्या है ?
संयमता के दो मुख्य प्रकार
- इन्द्रिय संयमता
- प्राण संयमता
अतः संयमता ही है जो जीवन में सुखी होने का कारण बनता है। संयमता भी दो प्रकार के होते हैं एक है इन्द्रिय संयमता और दूसरा है प्राण संयमता ! हमारी यह पांच इन्द्रियां जो विषयों के पीछे भागती रहती हैं। अन्त में हमें सुख नहीं दे सकती क्योंकि ज्ञान और सुख तो हमारी आत्मा के गुण है इन्द्रियों के वश में असंयमी रहकर तो इस जीवन की घड़िया यूं ही बीत जायेगी।
हम यह भी जानते हैं कि इन इन्द्रियों जिव्हा रस, कर्ण रस, इन सब पर नियन्त्रण करना कठिन है किन्तु असंभव नहीं ।
विपत्तियां, दुःख, संकट जीवन में आते ही हैं इसलिये मनुष्य अपनी आत्मस्वभाव के संयम से सुरक्षा करें तो विपत्ति का समय शान्ति के साथ बीत जायेगा। कभी मन में असंयम आ भी जाये तो दृढ़ बन मन को शान्त रखने का प्रयास करें। हमसे यदि दोष हो भी जाये तो प्रायश्चित करें और संताप को दूर भगा कर प्रसन्न रहने का प्रयत्न करे। संत कबीर ने इसका समर्थन करते हुए कहा है :-
बहुत गई थौरी रही व्याकुल मन मत होय ।
संयम सबको मित्र है करी कमाई न खोय ||
संयमता से ही हमारा आत्मबल बना रहता है। संयमता से ही बुद्धि में विवेक जागृत होता है, इससे ही मन में राग, द्वेष, घृणा आदि दूर होने लगते हैं जिससे मनुष्य शान्त मन हो शाश्वत सुख पाकर अपने स्वरूप में ठहर सा जाता है। आज श्रोताओं और मेरे प्रियजनों से यही प्रश्न है आप गम्भीरता से इस पर विचार कीजिये। संयमता के बिना आप अपना सारा जीवन भोग विलास में बिता देंगे तो क्या अशान्ति के सिवाये आपके हाथ क्या आयेगा ?
सारा समय यदि स्वादिष्ट और मीठा भोजन खाने में आनन्द उठाते रहे और स्वस्थ न रहे तो क्या होगा ? अपने सुरूप को सुन्दर बनाने के आकर्षण में समय नष्ट किया तो क्या होगा? आलस्य में पड़े रहकर व्यर्थ समय नष्ट किया तो क्या मिलेगा ? धन संग्रह की लालसा में सारा जीवन बिता दिया तो आत्म उन्नति का समय कहां मिलेगा।
सम्मान, झूठी प्रशंसा पाने के धन्धो में ही व्यस्त रहे तो उसका क्या परिणाम होगा। वह तो क्षणिक ही होगी। क्रोध, दूसरों से ईर्ष्या, द्वेष, जलन, घृणा में समय गंवा दिया तो अशान्ति के सिवाय आपके हाथ क्या लगेगा? मानव मन की सफलता संयमी होने में ही है इससे आधि, व्याधि और उपाधि की लालसा समाप्त हो जाती है। अन्त में मेरी यही प्रार्थना है।
प्रेम करो केवल संयम में,
कर निरोध मिथ्या भावन में
शोक करो कुत्सित कुकर्म में,
डर नित पाप करण में
रहो संयमी नित्य आत्म मनन में
तन मन धन हो संयमी मन में
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