शरणगति

शरणगति

शरणगति

आज हम बात करने वाले हैं शरणगति की, किसी संत ने इस तथ्य को कुछ इस प्रकार कहा है कि 

तू सब धर्म छोड़, और ले मेरी राह

तू माग आ के दामन में मेरी पनाह

तेरे पाप सब दूर कर दूंगा मैं

गर गमगीन होग तो शान्तचित्त कर दूंगा मैं

किसी व्यक्ति ने एक महात्मा जी से पूछा कि आप किस भगवान् भक्त हैं ब्रह्माजी जो इस संसार की उत्पत्ति करते हैं, विष्णु जी जो इसे स्थित करते हैं या शिव जी जो प्रलय करते हैं या दूसरी प्रतिमाओं मूर्तियों पर आपका विश्वास है, महात्मा ने शान्त स्वर में उत्तर दिया कि सभी कुछ उस प्रभु का ऐश्वर्य है।

इन सब से कुछ अन्तर नहीं यदि आप उसकी महान् सत्ता को स्वीकार करते हैं और उसकी शरण में झुकते हैं। कबीर दास जी ने और भी स्पष्ट कर दिया :-

दो जगदीश कहां से आये कही कौन भरमाया।

अल्लाह, रामकृष्ण, करीम, केशव, हजरत नाम धराया गया।

मान लिया भिन्न नामों से ईश्वर एक है फिर यह सामाजिक प्राणी विचार करते हैं कि मैं तो भगवान् का इतना बड़ा भक्त हूं, फिर मेरे उपर यह दुःख क्यों? मैं या वह दरिद्र (निर्धन, गरीब) क्यों हैं? मेरा लोग निरादर और अपमान क्यों करते हैं? ऐसे लोग शरणगति का यथार्थ रूप जानने से और समझने से दूर रह जाते हैं।

शरणागत भक्त तो निन्दा, प्रशंसा, रोग, नीरोग, दुःख, सुख की परिस्थितियों के अनुकूल और विपरीत की ओर ध्यान न देकर ईश्वर को सर्व समर्पण कर देता है। जिसने अपनी ‘मैं‘ को ईश्वर की ‘तू‘ में मिला दिया है वहीं तल्लीनता का मानसिक शान्ति का आनन्द ले सकता है :-

तू तू करता तू भया ।

तुझ में रहा समाय ||

तुझ में तन मन मिल रहा ।

अब कहूं अनन्त न जाय ॥

इस प्रसंग में स्मरण यानि याद आता है कि एक वेश्या को एक दुराचारी पुरुष से संकेत मिला कि इस समय पर अकेले तुम मुझे इस स्थान पर मिलना। साज-सज्जा, श्रृंगार करने के कारण विलम्ब हो गया तो वह भाग-भाग कर अपने प्रेमी के पास जा रही थी कि रास्ते में एक मस्ज़िद के बाहर मौलवी जी नमाज़ पढ़ रहे थे उसने जल्दी में उन पर और कुरान पर पैर रखकर निकल गई।

सरलता

मौलवी जी क्रोध में उछल पड़े और ऊंचे स्वर में चिल्लाये कि तूने यह जूते लगाकर मेरे पवित्र धर्मग्रन्थ को अशुद्ध कर दिया अल्लाह तुझे कभी माफ नहीं करेगा। कुछ समय बाद जब वह उसी रास्ते से वापिस आई तो मौलवी जी गुस्से में लाल पीले हुए उसे धमकाने लगे तो उसने उत्तर में कहा

मैं नर राची न लखी तुम करू लख्यो सुजान।

पढ़ि कुरान बौरा भयो राच्यो नहिं रहमान ||

शरणगति

अर्थात् मैं तो भक्त नहीं, नर रूपी विषयों में उलझी हूँ। मेरे में तो इतनी बुद्धि और समझ ही नहीं कि मैं तुम पर और कुरान पर जूते रखकर चली गई किन्तु तुम तो मौलवी बनकर केवल दिखावे के लिये इसको पढ़ रहे हो यदि तुम वास्तव में उस अल्लाह की शरण में होते तो तुम्हारा ध्यान, दोष देखने और क्रोध करने में नहीं होता!

आत्मचिंतन करने का मुख्य समय
उदाहरण से स्पष्ट है कि यदि आप ईश्वर के ध्यान में मग्न हैं तो संसारिक विषयों और इस दिखावापन से उपराम हो जाते हैं। गीता में श्री कृष्ण ने अर्जन को यही तो कहा स्वयं को अर्पित करने वाला, मेरी शरण में आने वाला, मुझे छोड़ तीनों लोकों का राज्य भी नहीं चाहता यानी की जो मुझे चाहता है वह कुछ और नहीं चाहता ।

अरथ न धरम न काम रुचि

गति न चहऊ निरवान ।

जन्म जन्म रति रामपद यह वरदान न आन ||

इसलिये संसार के अनित्य सम्बन्धों से त्याग, आत्म-तत्त्व के साथ एकाग्रता से एकता, ईश्वर के प्रति अटूट प्रेम के बिना, जीवन की भूख नहीं मिट सकती।

भीगा भूखा कोई नहीं सबकी गठरी लाल।

गिरह खोल न जानहिं ता ते भयो कंगाल ||

इसलिये सभी धर्म, सभी सम्प्रदायों का मूलमन्त्र यही कहता है कि ईश्वर पाने का, शान्ति से जीने का, शरणगति ही सर्वश्रेष्ठ साधन है। इस वास्तविकता के आते ही सभी सन्देह मिट जाते हैं और मन आनन्दित रहता है। अन्त में मैं बस इतना ही कहूंगा –

मेरी चिन्ता दीन दयाल को, मो मन सदा आनन्द।

जायो जो प्रतिपालसी, रामदास गोविन्द ||

दयालुता
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