वैदिक धर्म

वैदिक धर्म

वैदिक धर्म

 

  • वैदिक धर्म संसार के सब मतों और सम्प्रदायों से अधिक प्राचीन है । यह सृष्टि के प्रारंभ से अर्थात् १,९६,०८, ५३, ११७ वर्ष से है।
  • संसारभर के दूसरे मत, पंथ या संप्रदाय किसी ने किसी पैगम्बर, मसीहा, युगपुरुष, महात्मा आदि के द्वारा प्रवर्तित किये गये हैं, किन्तु वैदिक धर्म ईश्वरीय है।
  • वैदिक धर्म में एक, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, न्यायकारी, ईश्वर को ही पूज्य उपास्य माना जाता है, उसी की उपासना की जाती है ।
  • ईश्वर अवतार नहीं लेता अर्थात् उसको सृष्टि की रचना, पालन और विनाश के लिए शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं होती है।
  • जीव और ईश्वर (ब्रह्म) एक नहीं है, बल्कि दोनों अलग-अलग हैं, और प्रकृति इन दोनों से अलग तीसरी वस्तु है। ये तीनों अनादि हैं।
  • हमारा जीवन सत्य पर आधारित हो 
  • वैदिक धर्म के सब सिद्धान्त सृष्टिक्रम के नियमों के अनुकूल हैं तथा ये सिद्धान्त विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरते हैं।
  • जिससे मनुष्य दुःख से तैर जाता है, उसकों तीर्थ कहते हैं । जैसे कि विद्या का अध्ययन, यम-नियमों का पालन, योगाभ्यास, यज्ञ, सत्संग आदि ।
  • भूत, प्रेत डाकिन आदि के प्रचलित स्वरूप को वैदिक धर्म में स्वीकार नहीं किया जाता है, यह सब कल्पना मात्र है और अज्ञानी स्वार्थी व्यक्तियों के द्वारा चलाये गये हैं।
  • स्वर्ग और नरक किसी स्थान विशेष में नही होते। जहाँ सुख हे वहाँ स्वर्ग है और जहाँ दुःख होता है वहाँ नरक है।
  • स्वर्ग के कोई अलग से देवता नहीं होते। माता, पिता, गुरु, विद्वान् तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि ही स्वर्ग के देवता होते हैं।
  • राम, कृष्ण, शिव, ब्रह्मा, विष्णु आदि हमारे प्राचीन महापुरुष थे। उनके जीवन चरित्र हमारे लिये प्रेरक व अनुकरणीय हैं।
  • जो मनुष्य जैसा शुभ या अशुभ कर्म करता है। उसको वैसा ही सुख या दुःखरूप फल अवश्य मिलता है। ईश्वर किसी भी मनुष्य के पाप को किसी परिस्थिति में क्षमा नहीं करता है ।
  • मनुष्य मात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है, चाहे वह स्त्री हो या शूद्र ।
  • कर्म के आधार पर मानव समाज को चार भागों में बाँटा जाता है जिन्हें चार ‘वर्ण’ कहते हैं। (१) ब्राह्मण (२) क्षत्रिय (३) वैश्य (४) शूद्र (१५)
  • व्यक्तिगत जीवन को भी चार भागों में बाँटा गया है, इन्हें चार आश्रम कहते हैं । २५ वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्याश्रम, ५० वर्ष की अवस्था तक गृहस्थाश्रम, ७५ वर्ष की अवस्था तक वानप्रस्थाश्रम, और इसके आग्र संन्यासाश्रम माना गया है।
  • जन्म सें कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, या शूद नहीं होता अपने-अपने गुण, कर्म, स्वभाव से ब्राह्मण आदि कहलाते हैं। चाहे वे किसी के भी घर में उत्पन्न हुए हो।
  • सफाई का काम करने वाला, चर्मकार आदि कोई भी मनुष्य, जाति या जन्म के कारण अछूत नहीं होता जो गन्दा है वह अछूत है। चाहे वह जन्म से ब्राह्मण हो या शूद्र या अन्य कोई।
  • वैदिक धर्म पुनर्जन्म को मानता है। अच्छे कर्म अधिक करने पर अगले जन्म में मनुष्य का शरीर और बुरे कर्म अधिक करने पर पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि का शरीर मिलता है।
  • वेद के अनुसार उत्तम कर्म करने से व्यक्ति भविष्य में पाप करने से बच सकता है किन्तु किये हुए पाप कर्मों के फल से नहीं बच सकता।
  • सुख दुःख में अन्तर
  • पंचमहायज्ञ करना प्रत्येक वैदिकधर्मी के लिए अनिवार्य है । १. ब्रह्मयज्ञ ( ईश्वर का ध्यान – उपासना करना) २. देवयज्ञ ( हवन करना) ३. पितृयज्ञ (माता-पिता, सास-ससुर आदि की सेवा करना) ४. बलिवैश्वदेवयज्ञ (गाय, कुत्ता आदि पशु पक्षी तथा विधवा, अनाथ, विकलांग आदि की अन्न आदि से सेवा / सहायता करना) ५. अतिथियज्ञ (विद्वान् संन्यासी, उपदेशक आदि से उपदेश ग्रहण करना और उनकी सेवा सत्कार आदि करना) ।
  • जीवित माता-पिता, गुरू, विद्वान् आदि की सेवा करना ही ‘श्राद्ध’ कहलाता है। बड़े वृद्धों को खिलापिलाकर उन्हें तृप्त करना ही ‘तर्पण’ कहलाता है ।
  • मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा को सुसंस्कारी (उत्तम) बनाने के लिए नामकरण, यज्ञोपवीत इत्यादि १६ संस्कारों का करना कर्तव्य है ।
  • छूआ-छूत, जाति-पाति, जादू-टोना, डोरा – धागा, ताबीज, शकुन, फलित ज्योतिष, हस्तरेखा, नवग्रहपूजा, मूर्तिपूजा, गंगा आदि नदियों में स्नान से पाप छूट जाना, अंधविश्वास, बलिप्रथा, सतीप्रथा, मांसाहार, मद्यपान, बहुविवाह आदि बातों का वैदिक धर्म में निषेध है ।
  • वेद के अनुसार जब मनुष्य सत्य ज्ञान को प्राप्त करके निष्काम भाव से शुभ कर्मों को करता है और शुद्ध उपासना से ईश्वर के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है, तब उसकी अविद्या (-राग-द्वेष आदि की वासनाएं ) समाप्त हो जाती हैं, तभी जीव की मुक्ति होती है

    वैदिक धर्म

  • मुक्ति में जीव ३६,००० बार सृष्टि के बनने-बिगड़ने के काल तक – ३१ नील, १० खरब ४० अरब वर्ष तक सब दुःखों से छूटकर केवल आनन्द का ही भोग करके फिर लौट कर मनुष्य जन्म लेता है ।
  • वैदिक धर्मी मिलने पर परस्पर ‘नमस्ते’ शब्द बोलकर अभिवादन करते हैं।
  • वेद में परमेश्वर के अनेक नामों का निर्देश किया गया है, जिसमें ईश्वर का मुख्य नाम ॐ है।
व्यवहार में राग और द्वेष
satyagyan: