विज्ञान और धर्म
आज हम बात करने वाले हैं विज्ञान और धर्म के के सम्बन्ध के बारे में कहा जाता है की :-
आसमां में हवाई जहाज को उड़ता देख दिल फूला नहीं समाता ।
विज्ञान के यह करिश्मे देख, मन है खूब हर्षाता ।।
चन्द्रमा तक पहुंचे हैं कदम, पड़ोसी तक न जा पाये।
जो दिल को छू जाये। ऐसा ज्ञान कहां से लायें।।
आज वैज्ञानिक अविष्कारों ने इतनी उन्नति की है कि हमारे जीवन की सुविधाएं खूब बढ़ी हैं साथ ही आसान भी हुई हैं, जिन चीजों के लिए हमें पूरा दिन लग जाता था आज वही काम मिनटों में हो जाता है लेकिन इन सुविधाओं के साथ मन में विचार उठता है कि वैज्ञानिक उन्नति से इस लौकिक जगत् की सभी सुख सुविधाएं तो मिल सकती हैं लेकिन क्या वह हमें मानसिक आनन्द और शान्ति दे सकती है ?
आप सब मेरी इस बात से अवश्य सहमत होंगे कि आजकल हमारी दिनचर्या इन Electronic gadgets के सहारे चल रही है। जैसे हमारे प्रातः उठने की शुरुवात ही अलार्म से होती है। छोटे से छोटे बालक का भी गणित पढ़ने का माध्यम इन पर निर्भर हो रहा है। युवा पीढ़ी के लिये तो यह जीने के आवश्यक साधन से बन गये हैं।
भगवान् की जरूरत कम होती जा रही है।
एक दूसरे की आवश्यकता क्यों मिटती जा रही है ।।
अपमान
T.V., Computer, Internet, Texting बहुत से किस्से हैं अब जीने के, खलल न डालो हमारे इस तरह जीने में’ इसलिये पुरातन काल के आचार विचार और आज के विचारों में अन्तर तो अवश्य आयेगा क्योंकि यह मानना होगा कि यह संसार सिमट सा गया है सब कुछ निकट यानी पास लगता है।
अपने विचारों के साथ साथ हमें यह चिन्तन भी करना होगा और समझौता भी कि उस समय की स्थिति आज की स्थिति में बहुत अन्तर है क्योंकि हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं। पुराने ढंग को अपनाना शायद हमारे व्यावहारिक जीवन से मेल नहीं होने देंगे। यदि हमें सफलता पानी है तो विज्ञान की दृष्टि से ही इनको समझना होगा।
हमारे धर्म के अनुसार प्राचीन काल में श्रद्धा तथा आज्ञाकारी होने की भावना बहुत महत्त्वपूर्ण थी। युवा लोग मानते थे कि हमें माता पिता के आदेश को मानना है। राजकुमारों की गुरुजनों के प्रति श्रद्धा थी, किन्तु आज इस समाज में नन्हा सा बालक भी प्रश्न करता है कि ऐसा हमें क्यों करना है?
पुस्तक
वे अपना स्वतन्त्र निर्णय लेने में विश्वास रखते हैं। इसलिये हमें उनके तर्क को वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक रूप से देखना होगा। अंधविश्वास और श्रद्धा से सावधान रहना होगा क्योंकि यह अंधविश्वास से यदि हम धर्म का पालन करें तो आलोचना के पात्र बन सकते हैं। धर्म परायण होकर अपने कत्तव्यों को निभायें ताकि हम मर्यादा का पालन भी करें और प्रगति की ओर भी बढ़े।
दूसरे किसी भी धर्म की आलोचना न करें क्योंकि प्राचीनकाल से हमारे धर्मों के सिद्धान्त, रीति रिवाज किसी भी गल्त भावना से नहीं बनाये थे। गम्भीरता से यदि आज भी हम उन पर विचार करें तो आज के युग में भी वह वैसे ही महत्त्वपूर्ण है। साधक साधना करते हुए धार्मिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि में समन्वय रक्खे तो जीवन में सफलता पा सकता है।
वैज्ञानिक उन्नति संसारिक जीवन में न केवल धर्म पालन ही अपितु विवेक शक्ति को भी जागृत करती है और तब हम जीवन को विवशतापूर्वक नहीं विश्वास से विचार पूर्वक कार्य करके जीवन को सद्मार्ग पर चलाकर आशा से उमंग से जीवन जी सकते हैं।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हुए भी निजी शुद्ध भावना से ईश्वर स्मरण न भूलें। संत कबीर जी ने सरल शब्दों में प्राणियों से निवेदन किया है कि :-
‘विमान आता देखकर दिया कविरा रोय।
जो मजा सत्संग में वह बैकुंठ पहुंच न होय ।।
सफल व्यक्ति
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