मूर्तिपूजा पठनीय क्यों ?

मूर्तिपूजा पठनीय क्यों ?

मूर्तिपूजा पठनीय क्यों ?

‘मूर्तिपूजा पठनीय क्यों ? परमात्मा की रचना में मनुष्य योनि ही सबसे बड़ी अनमोल रचना है। ईश्वर की कलाकारी को देखकर मनुष्य भी अपनी कलाकारी दिखाने का प्रयत्न करता है। ईश्वर ने जीता-जागता मानव बनाया तो इन्सान ने पत्थर का सहारा लेकर भगवान् की मूर्ति का निर्माण कर दिया! है न तज्जुब की बात? ज़रा आप ही सोचे कि क्या यह सही हो सकता है?

परमात्मा सजीव मूर्ति बनाता है, उसमें प्राण डालता है तभी तो वह प्राणी मानव कहलाता है और मनुष्य जो पत्थर को तराश कर भगवान् की जड़ मूर्ति का निर्माण करता है उसमें प्राण प्रतिष्ठित करने का ढोंग करता है। शरीर में प्राण प्रतिष्ठा करने का काम मात्र ईश्वर का है। मनुष्य कोई भी ईश्वर का काम नहीं कर सकता और न ही ईश्वर कभी मनुष्य का काम करता है। क्या आपको पता है कि किसी इन्सान ने ईश्वर को पैदा किया हो ?

मनुष्य जन्म लेते ही अनेक प्रकार की हरकतें करता है। वह रोता है, हंसता है, खाता है, चिल्लाता है आदि और समय के साथ-साथ उसका शरीर बढ़ता रहता है और अन्त में नष्ट हो जाता है। पाषाण मूर्ति न तो खाती है, न तो पीती है, न तो रोती या हंसती है और न ही कभी सुन या बोल सकती है।

ताज्जुब की बात है कि सर्वश्रेष्ठ कहलाने वाला वह मनुष्य उसी मूर्ति के आगे उसको खिलाने के लिए अनेक खाद्य पदार्थ पेश करता है और उसके सामने नाचता है, तथा आरती उतारकर अपनी बुद्धि का ह्रास करता है और स्वयं को धार्मिक दिखाने का छल करता है। यह अज्ञानता की पराकाष्ठा है।

दया

आज का मानव ज्ञान-विज्ञान की सहायता से अनेक करतब दिखा चुका है। एवरेस्ट की चोटी से लेकर समुद्र की गहराई तक पहुँच चुका है। चाँद और मंगल ग्रह तक भी पहुँच चुका है परन्तु अन्धविश्वास एवं अनास्था के कारण वह धर्म से कोसों दूर हो गया है।हम मननशील होने से मनुष्य कहलाते हैं। हम ज्ञान-विज्ञान जानते हुए भी अन्धविश्वासों में फंसे हुए हैं।

मूर्तिपूजा मेरी दृष्टि में

मूर्तिपूजा पठनीय क्यों

मूर्ति के निर्माण के पीछे मूर्ति का मुख्य लक्ष्य होता है- अपने विचारों को व्यक्त करना, समाज को संदेश देना तथा अनकही बातों का स्पष्टीकरण करना। मूर्ति देखने और समझने के लिये होती हैं न कि पूजा करने के लिये । मूर्ति के साथ किसी भी प्रकार का खिलवाड़ नहीं करना चाहिये।

मूर्ति जड़ होती है अतः उसके साथ चेतन जैसा व्यवहार करना, उसे खिलाना-पिलाना, बात-चीत करना, उसे दीपक दिखाना, उसके सामने घण्टियों को बजाना आदि अपनी ही मूर्खता का प्रदर्शन करना है। मूर्ति तो मूर्ति ही रहेगी- ऐसे व्यवहार को क्या कहेंगे?

यदि कोई व्यक्ति सूर्य की तस्वीर के समक्ष जल चढ़ाता हो तो आप उस व्यक्ति को क्या कहेंगे? शेर के चित्र को देखकर भला कोई डरता है? दौड़ते हुए घोड़ों के चित्र को देखकर क्या आप उन घोड़ों से बचने के लिये उसके सामने से हट जाएँगे? बहते हुए झरने के चित्र को देखकर क्या कोई छत्री खोलकर देखता है?

मूर्ति काल्पनिक हो या किसी वास्तविक दृश्य को दर्शाने का माध्यम हो परन्तु उसको सत्य मान कर उसके साथ जीवन्त जैसा व्यवहार करना मनुष्य की मूर्खता की पराकाष्ठा है। ऐसी तस्वीरों, मूर्तियों या कलाकृतियों को देखकर अन्य पशु भी समझ जाते हैं कि वे तस्वीरें नकली हैं, असली नहीं हैं।

दिनचर्या पर केन्द्रित मन

चूहों को पता था कि शिवलिंग पत्थर से बना है और उसके ऊपर उछल-कूद करने से शिवलिंग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसी घटना को देखकर बालक मूलशंकर को ज्ञान प्राप्त हुआ और वह सच्चे शिव की तलाश में निकल पड़ा और वह महर्षि दयानन्द सरस्वती बन गया। आज भी मक्खियाँ-मकौड़े आदि जीव मूर्तियों को गंदा करते हैं परन्तु मूर्तियाँ, मूर्तियाँ ही होती हैं।

आश्चर्य है कि स्वयं को र्सबुद्धिमान्, सर्वश्रेष्ठ समझनेवाला मनुष्य ऐसी मूर्तियों को सत्य मानकर उनके साथ जीवन्त जैसा व्यवहार करता है।

मूर्तिपूजा का चलन आखिर कहाँ से शुरू हुआ ?
satyagyan:

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