मानव समाज के चार वर्ग

मानव समाज के चार वर्ग

मानव समाज के चार वर्ग

आज हम बात करने वाले हैं मानव समाज के चार वर्ग के बारे में क्योंकि आजकल यूक्रेन, रूस, सिरिया, इराक, अफगानिस्तान, इजिप्ट आदि देशों में अशान्ति का वातावरण उधर भारतवर्ष में चुनाव के समाचार सुन कर कि नेता एक दूसरे के प्रति कितना विद्रोह, ईर्ष्या, द्वेष, और कीचड़ उछाल रहे हैं।

बार बार विचार आता है कि ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि और ज्ञान का कितना मोहक यन्त्र दिया है किन्तु मानव उसका सही ढंग से उपयोग क्यों नहीं कर रहा ? प्रभु ने इन्सान को मन और बुद्धि देकर इसका स्तर जानवरों से ऊँचा तो कर दिया है परन्तु सच तो यह है कि मनुष्य जब उस बुद्धि का ठीक ढंग से प्रयोग करना छोड़ देता है तभी मानसिक अशान्ति, युद्ध और प्रकृति का संतुलन बिगड़ता दिखाई देता है।

सेवाभाव

संसार में मानव समाज के व्यक्तियों को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है आज उन्हीं पर कुछ विचार प्रकट कर रहा हूं। 

पहली श्रेणी में आते हैं :-

  • साधारण मनुष्य : साधारण मनुष्य वह है जो हमेशा छोटी-छोटी संकीर्ण बातों में दिन रात अपना मन उलझा कर दु:खी रहता है। वह हमेशा अपना स्वार्थ ही सबसे आगे रखता है परिणामस्वरूप दूसरों के प्रति ईर्ष्या द्वेष और क्रोध रूपी वासनाओं से लिप्त रहता है वैसे देखा जाये तो शिक्षा प्राप्त करना, अधिक से अधिक धन कमाना, गृहस्थी की पालना करना, अपने परिवार की आवश्यकताएं पूरी करना तो मानव धर्म है।

 किन्तु स्वार्थी होकर दूसरों के अधिकारों को छीनना, धोखा देना, अनुचित कार्य करके लोभ से धन कमाना, कामनाओं और         वासनाओं की पूर्ति में व्यर्थ समय बिताना यह तो लक्षण हुए साधारण मनुष्य के।

  • दूसरा चरण साधारण से सुसभ्य मनुष्य का। उसे अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्त्तव्यों का भी पूरा ध्यान रहता है। यदि वह अधिक धन कमाता है तो उसका ध्यान कार्य करने और दान देने में भी रहता है। अपनी आवश्यकताओं और जरूरतों के साथ वह दूसरों की सहायता करना भी जानता है।
  • वह बुराई और भलाई में अन्तर जानते हुए नीति का पालन करता है अपने शारीरिक बल के साथ साथ वह आत्मबल की ओर अग्रसर होता है। उसकी कामनायें नियन्त्रित होती है। ऐसा व्यक्ति अपनी समझ बूझ से अपनी बुद्धि का उचित प्रयोग करने का प्रयास करता है।
  • तीसरी सीढ़ी : सुहृदय मानव की इस अवस्था में व्यक्ति आत्म संयमी हो जाता है उसे बाहरी वस्तुओं का आकर्षण नहीं रहता और संयम आ जाता है। उसके हृदय में सबके लिये प्रेम भाव और क्षमा का गुण आने लगता है। दूसरों के दोष उसे दिखाई नहीं देते।
  • माना कि संसार में दुःख, सुख, उतार, चढ़ाव सभी के जीवन का अंश है ऐसा सुहृदय वाला मनुष्य दुःख आने पर कातर, व्याकुल न हो कर मन को संयम में रखता है। अपना मन अच्छी पुस्तकें पढ़ने में, संगीत सीखने में, किसी भी ढंग से ज्ञान प्राप्त करने में, भगवन् भजन, संकीर्तन, सत्संग और मन को भक्तियों में लगाने को प्रयत्न करता है
  • अगले चरण पर जो व्यक्ति है उसे हम अध्यात्मिक पुरुष का नाम देते है। वह संसार में रहते हुए भी देवताओं के समान व्यवहार करने लगता है। कर्म करते हुए फल की आशा नहीं रखता। उसके हृदय में सबके लिये समभाव और सम्मान की भावना रहती है। बड़ों के प्रति आदर और छोटों के प्रति स्नेह क अभाव रहता है।
  • ईश्वर के प्रति पूर्ण विश्वास कर सब कुछ उसे समर्पण कर देता है आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध जोड़ उसमें एकत्व का अनुभव कर सुखी रहता है। इस प्रसंग के विषय में एक उदाहरण है कि श्री गुरुनानक जी यात्रा कर रहे थे उनके पांच प्यारे भी उनके साथ थे।
  • किसी शहर में अनाज मण्डी से निकल रहे थे कि देखते हैं कि एक बकरा आया और अनाज की ढेरी में मुंह मारने लगा। जब उस ढ़ेरी के मालिक ने उसे देखा तो बकरे को गर्दन से पकड़ लिया और उसके मुंह पर जोर से डंडा मारा उधर पास में बैठा एक व्यापारी आया और उसने दया करके कहा निर्बल जीव है क्यों इतना क्रोध करते हो ?
  • दूसरी दुकान से एक व्यापारी आया, बकरे के मुंह पर ठंडा पानी छिड़का। कुछ दूर एक सज्जन पुरुष माला जपते जपते मंडी से अन्न खरीद कर उसे खिलाया और उसकी चोट पर मरहम पट्टी की।
  • श्री गुरुनानक जी यह दृश्य देख हंसने लगे और यह गूढ़ रहस्य अपने शिष्यों को समझाया कि यही मनुष्य अपने व्यवहार से अपना वर्ग चुनता है। पहला साधारण व्यक्ति क्रोध में आकर निर्बल जीव को पीट रहा था। दुसरा सुसभ्य मनुष्य उस पर दया कर रहा था। तीसरा सुहृदय प्राणी उसकी मरहम पट्टी कर सेवा कर रहा था और चौथी श्रेणी वाला आध्यात्मिक व्यक्ति जीव जन्तु में एकत्व (सेवा) का भाव अनुभव कर रहा था।

न पुराण अपना, न कुरान अपना।

पर गर ईमान हो अपना, तो सब कुछ है अपना

स्वाभिमान
मानव समाज के चार वर्ग

यदि जीवन आदर्शों के साथ जिया जाये तो उनमें प्राणों का संचार हो जाता है जीवन सुरताल से संगीतमय हो जाता है। आज अपने मन से प्रश्न करें कि आप संसार में किस वर्ग में बैठे हुए हैं और फिर प्रयत्न करके आत्मविकास के लिये हमें किस सीढ़ी तक पहुंचना है।

अतः मानव समाज के चार वर्ग हमें जानना क्यों इतना जरूरी है यानी की हमारे लिए मानव समाज के चार वर्ग का जानना क्यों जरूरी है आशा करता हूँ यह आप भली भांति जान गए होंगे।

स्वाध्याय
satyagyan:

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