बुराईयां

बराईयां

बुराईयां

आज हम बात करने वाले है बराईयां अथवा बराईयों के बारे में 

संत कबीर जी मन की इस भावना को कितनी गम्भीरता से व्यक्त कर गये :

बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलियो कोय।

जो दिल खोजा आपना तो मुझसे बुरा न कोय।।

माना की ये मन चंचल है किन्तु ईश्वर का स्मरण करने वाला, उसमें श्रद्धा रखने वाला, उस प्रभु का सच्चा सेवक, मन से किसी का बुरा नहीं चाहता। किसी के साथ बुरा या अन्याय होते देखता है तो मानसिक रुप से व्याकुल हो उठता है किन्तु समाज में लोगों की प्रायः वृत्ति यही है कि यदि हमारे साथ कोई दुर्व्यवहार कर रहा है

और उसका बर्ताव हमारे साथ अच्छा नहीं है तो हम बदले में उसका अहित मांगेंगे और उसका समय पर बुरा ही करेंगे किन्तु इस धारणा को हमें स्वीकार करना है कि यह सब हमारे अपने कर्मों के अनुसार ही है। रामचरितमानस में यह पंक्ति हमें यह चेतावनी देती है।

काहू न कोऊ सुख दुःख कर दाता ।

निज कृत करम भोग सबु भ्राता ।।

आन्तरिक शान्ति

यदि आप किसी का बुरा करना भी चाहेंगे तो उसके प्रारब्ध में जो है वही होगा किन्तु आपके मन की बुरी भावना और क्रिया करने की सोच का पाप आपके पल्लू में बंध जायेगा इसलिये हमारा हित उसी में है कि हम हमेशा दूसरों के लिये शुभ विचार मन में रक्खें और सब के साथ सद्व्यवहार करें।

आमरे की एक रानी रत्नावती भगवन् की रात दिन उपासना करती थी और सेवा में संलग्न रहती थी किन्तु नास्तिक राजा को उसका यह व्यवहार बहुत अखरता था और हमेशा उस पर बुरी दृष्टि से देखते और उसके लिय अहित ही कहते और सोचते थे। एक दिन उन्होंने पिंजड़े में एक शेर (सिंह) को रत्नावती के पूजा स्थल के बाहर छोड़ दिया और दरबारियों को आदेश दिया कि जब रानी की आंखे बन्द हों तो उस पिंजरे का द्वार खोल दो, ऐसा ही किया गया।

जब पिंजरे के द्वार से शेर निकला उस समय रानी तन्मयता से पूजा में मस्त थी और उसे ऐसा अनुभव हुआ कि नरसिंह भगवान् के दर्शन हो रहे हैं। आंख खोल रानी ने उस शेर के सामने दिया रखा, उसे माला पहनाई और तिलक लगा दिया। सब कुछ ग्रहण करते करते शान्त सिंह भी उस कमरे से बाहर आ गया।

जाकी रही भावना जैसी। ताकी मूरत देखी तिन तैसी।।

स्पष्ट है कि रानी के सद्व्यवहार से एक हिंसक जानवर भी अपनी हिंसा की वृत्ति छोड़ कर प्रेम करने लगता है। इस संसार में सभी प्राणियों में अच्छाई का अंश और आत्मरुप से ईश्वर विराजमान है किन्तु जब उसके हृदय का शैतान जागता है। तो उसकी बुद्धि में आसुरी प्रवृत्तियां आ जाती है। आसुरी और यह तामसिक शक्ति उसके मस्तिष्क और दिल पर ऐसा पर्दा डाल देती है।

नैतिकता

कि वह बुरा सोचने और करने से हटता ही नहीं। अपनी आन्तरिक बुरी भावनाओं को नष्ट करना ही भक्ति के चिन्ह हैं। यदि हम दुष्कर्म करते हैं, दुर्व्यवहार करते हैं और गलत अपशब्दों का प्रयोग करते हैं तो अपना मन ही अशान्त कर दुःखी होते हैं।

बुराईयां

रहिमन जिहवा बाबरी,

कह गई परग पाताल आपहु तो कह भीतर रही,

जूती खात कपाल ।।

यथार्थ हमारी जीव्हा तो बुरे शब्द कहकर मुंह के भीतर चली गई पर हमारा मस्तिष्क सबसे जूतियां खाता है और इन्सान ईर्ष्या, द्वेष, निन्दा, अपमान की अग्नि में स्वयं ही जलता रहता है। इसलिये हमेशा शुभ भावनाएं लाने का प्रयास करें, दूसरों के अवगुण न देख गुणों की ओर ध्यान दें तो आपको अनुभव होगा

पहिले यह मन काग था करता जीवन घात ।

अब तो मन हंसा बया मोती चुनि चुनि खात।।

अर्थात् अज्ञानी होकर जब हम बुराईयां देखते हैं, और जीवों की ओर अधम यानि बुरी दृष्टि रखते हैं तो दुःखी होते हैं और जब यह हंस बन गया तब विवेकी होकर, सद्गुणों का विचार कर, ज्ञान रूपी मोती चुगने लगता है। अतः आप भी जीवन में बराईयों का परित्याग कर सच्चाई और सद्भाव अपने मन में जगाएं और अच्छाई को ही जीवन में धारण करें।

हमारा जीवन सत्य पर आधारित हो 
satyagyan:
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