धर्म क्या है?

धर्म क्या है?

धर्म क्या है?

धर्म क्या है

आज हम बात करने वाले हैं कि आख़िर धर्म क्या है? यह प्रश्न मानव मन में हमेशा से जिज्ञासा उत्पन्न करता है। वह कौन सा सम्राट या महानुभाव देवी देवता है। जो आकाश में नीली छतरी लिये सारे ब्रह्माण्ड को चला रहा है। वास्तव में सभी धर्म उस भावना का नाम है जो सभी प्राणियों को एक लय में जोड़ देता है। सूर्य जब हर सुबह उदय होता है तो क्या हम कभी सोचते हैं, क्या वह अपने प्रकाश और गर्मी का परिचय स्वयं ही हमें अनुभव करवाता है।

इसी तरह यदि कोई व्यक्ति धर्मात्मा है ऊपर से ईश्वर जप करता है धार्मिक नहीं कहा जा सकता जब तक उसके व्यवहार से चारों ओर सुखदायक प्रभाव नहीं पड़ता। एक लैम्प का प्रकाश हम तभी जानते हैं जब उससे अंधेरा दूर होता है न कि उसको मापदण्ड इससे करते हैं पूरा तेल हैं या कितने वॉट्स का बल्ब लगा है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में इस बात को सुन्दर शब्दों में स्पष्ट कर दिया है :-

“नर सहस महं सुनहु पुरारी, कोऊ एक होई धर्म व्रतधारी,

ज्ञानवत कोटिक मंह कोऊ, जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ”

वैसे तो संसार में सभी लोग हैं जो अपनी अपनी आस्था के अनुसार अपने धर्म के नियमों का पालन करते हैं किन्तु जो धर्म प्रेम एवं बंधुत्व का संदेश देकर विश्व के सम्पूर्ण मानव मात्र को बिना किसी भेद-भाव के एक सूत्र में बांध दे और ‘वसुदैव कुटुम्बकम ‘की भावना दर्शाता है वही वास्तव में धर्म है।

सुख और आनन्द में अंतर

प्रेम पूर्वक व्यवहार से यदि धर्म पालन किया जाये तो सभी का जीवन सुखमय हो सकता है किन्तु विडम्बना है कि शुरू से ही लड़ने झगड़ने की प्रवृति मानव जाति में है प्रबल दयनीय स्थिति हमारी है मरना मारना लाचारी है। वर्तमान समाज में तनाव बढ़ता दिखाई दे रहा है। धर्म के नाम पर देश विदेश में झगड़े और युद्ध देश भर में युद्ध Bombs, Drones की चर्चा है। धर्म का नाम लेकर ही लोग आपस में द्वेष द्वन्द कर रहे हैं।

जब तक हमारी सोच कहने और करने में तालमेल नहीं रखता तब तक हम किसी भी धर्म की परिभाषा नहीं कर सकते और न ही सही तरीके से जान सकते हैं की आखिर धर्म है तो क्या है? धर्म केवल मन्दिर, गुरुद्वारे, मस्जिद, गिरिजाघर जाकर सिर झुकाने का नाम नहीं न माला फेरना, चाहे हम इसे धर्मपालन का साधन मानें किन्तु क्या इसे हम अपना धर्म मान लें ? आज बड़े- बड़े विशाल धर्मस्थानों की स्थापना होते देख रहे हैं किन्तु फिर भी अधर्म जोर पकड़ता दिखाई देता है। धर्म से यदि मानव प्रवृति में अन्तर नहीं आया तो हमारे धर्म ने क्या किया? जब हर व्यक्ति अपने धर्म की श्रेष्ठता को ही हांकता रहे। संत कबीर ने कहा :-

मुस्लिम मारे करद से हिन्दु मारे तलवार

कहै कबीर दोनो मिली जै है जम के द्वार ।।

धर्म का कोई नाम नहीं दिया जा सकता। जब तक उसके अनुकरण से इन्सान में इन्सानियत का अंश नहीं बढ़ता और पशु समान वृत्तियां नष्ट नहीं होती। विकसित देशों में नये नये घातक अस्त्र शस्त्रों का निर्माण हो रहा है। अणु विस्फोट से इतने Bombs बन चुके हैं कि वह सारी पृथ्वी का क्षणों में सुगमता से नाश कर सकते हैं। किन्तु धर्मपरायणता एक ऐसा पवित्र घर है एक दुकान नहीं जहां व्यापार किया जाये।

ईमानदार बनना क्यों जरूरी है ? 

हवनकुण्ड में आप शुद्ध देसी घी और ढेरों सामग्री डाल दो, मन्दिर में जाकर घण्टे घड़ियाल बजा देना, पांच समय नमाज़ पढ़ कर आप धर्मात्मा नहीं हो सकते जब तक आपकी आंखें आपके आस पास गरीबों का दुःख नहीं देखती, आपके कान उनकी दर्द भरी आवाज नहीं सुनते आपके हाथ उनके कष्टों को दूर करने के लिये नहीं उठते और आपसी प्रेम की भावना जन्म नहीं लेती। जहाँ प्राणीमात्र का रोम-रोम पुकार उठे।

करूं मैं दुश्मनी किससे अगर दुश्मन भी हो अपना

मुहब्बत ने नहीं छोड़ी जगह दिल में अदावत की

धर्म तो उस प्रभु की खोज, आत्मा की पवित्रता, शरीर की अनित्यता, और हृदय की मान्यताओं में है। व्यक्ति के दृष्टिकोण में ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, स्वार्थ, झूठ आदि विकार तो नहीं किन्तु उसमें नम्रता, सहनशीलता, सहानुभूति और आत्म समर्पण की भावना है। मनुष्य का जीवन प्रेम और संतुलित व्यवहार से शुभकर्मों से परिपूर्ण है वही वास्तव में धर्म का स्वरूप है।

मन संयम कर उचित कर्म रख तू उच्च विचार

अहम् भाव को त्याग कर सब से रख तू प्यार

ईश्वर से यही प्रार्थना करें कि उच्च श्रेणी के मानव बन शुभ कर्म, कल्याणकारी कार्य करते रहें ताकि सभी ओर धर्म और मानवता के दीप जगमगाते रहें। आशा करता हूँ आप समझ गए होंगे की आखिर धर्म क्या है और धर्म का पालन कैसे कर सकते हैं ?

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