दया
दया धर्म का मूल है पाप मूल संताप जहां क्षमा तहां धर्म है जहां दया तहां आप
भगवत् दया तो सभी धर्मों की नींव जड़ है। भगवान् अपने भक्त पर सहज रूप से ही कृपा करने वाले और दयामय हैं उनका संसार विधिविधान नियम से दया और प्रेम से परिपूर्ण है जब मानव को यह रहस्य समझ में आ जाये कि ईश्वर की प्रत्येक क्रिया में मेरा हित ही है तो यह सोच ऐसा मनुष्य हमेशा सन्तुष्ट और प्रसन्न रहता है।
दया शब्द के तत्त्व को समझने के लिये एक रोचक उदाहरण सुना रहा हूं। एक बालक उस देश के राजा की सहायता से निःशुल्क विद्यालय में पढ़ रहा था। उसके माता पिता उसे हर समय यही उपदेश देते थे कि हमारे राजा बहुत प्रेमी और दयालु है उनकी हम लोगों पर बड़ी कृपादृष्टि है।
दान की महिमा
हम लोगों का देहान्त भी हो जाये तो तुम बिल्कुल दुःखी और चिन्तित न होना। माता पिता के आदेशानुसार और संस्कारों से वह नन्हा बालक वैसा ही मानने लगा। समय आने पर उसके माता पिता चल बसे। साथ पढ़ने वाले मित्रों, सम्बन्धियों और साथियों ने पूछा कि तुम्हारे मन पर व्यथा के चिन्ह और मुख पर दुःख की परछाई भी नहीं। उस बालक ने साहस बटोर धैर्य्य से कहा कि जैसा मेरे माता पिता कहते थे उनसे बढ़कर भी मुझे प्रेम करने वाला, मेरे भविष्य का सोचने वाला और हितैषी राजा जो है उसकी श्रद्धा से ।
अगले दिन राजा ने जब प्रतिदिन की तरह अपनी राज्यसभा बुलाई तो प्रश्न किया कि यदि उसके राज्य में कोई भी अनाथ बालक है तो मंत्रीगण उसके खाने पीने, रहने और पढ़ाई का प्रबन्ध करे। समय बीतता गया वह नन्हा सा बालक युवा होने लगा। राजा की आज्ञा से राजकर्मचारी उसके पुराने टूटे फूटे रहने के स्थान को तुड़वा रहे थे कि उसके मित्रों ने संशय और सन्देह किया कि अब तुम्हारे रहने की व्यवस्था का क्या होगा ?
किन्तु वह बालक जिसकी राजा पर अटूट श्रद्धा थी कहा कि हमारे राजा बहुत दयालु हैं संभव है कि वह यह पुराना घर तुड़वा कर यहां नया घर बनवा दें। उसका आशावादी दृष्टिकोण, ज्ञान अर्जन और पुरुषार्थी बालक जब व्यवसाय करने योग्य हो गया तो एक दिन उस राजा ने राज्यसभा में यह प्रस्ताव रखा कि अब मैं वृद्ध हो गया हूं मेरी कोई संतान भी नहीं इसलिये आप खोज करके कोई योग्य पुरुष ढूंढे जो अच्छी तरह से संलग्न में इस राज्य की सत्ता की देखभाल कर सके।
ईमानदार बनना क्यों जरूरी है ?
सभी की सम्मति से उस परिश्रमी और पुरूषार्थी बालक को चुना गया और राजा ने उसे युवराज घोषित किया। यह दृष्टांत कितने सुन्दर रूप, ढंग से स्पष्ट करता है कि वह भगवान् ईश्वर ही हमारे राजा है, श्रद्धालु साधक ही वह सरल बालक और उपदेश देने वाले गुरूजन हमारे माता पिता हैं उस बालक के समान यदि हम मनुष्यों का उस परमात्मा पर निर्भरता, अटूट श्रद्ध और विश्वास है तो संसार में यही हमारी मानसिक शान्ति का समाधान है।
ऐसा व्यक्ति ईश्वर के मंगलमय विधान को समझकर प्रत्येक क्षण उसे स्मरण रखते हुए निजी कर्त्तव्य निभाते हुए आनन्द में मग्न रह सकता है। मानवता में दया महानता का चिन्ह है ईश्वर को इसलिये दीनानाथ और दीनदयाल के नाम से संबोधित किया जाता है उस भगवान् की हम पर कितनी कृपा है जिसका हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। संत कबीर जी ने यही तो बतलाया है :-
दया भाव हिरदै नहीं ज्ञान कथै बेहद ।
ते नर नरकहिं जायेंगे सुनि सुनि साखी शब्द।।
जो व्यक्ति ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं दम्भ रखते हैं। किन्तु दयाभाव को नहीं समझते वह नरक समान दुःख उठाते हैं। यदि हम उस परमात्मा के दयापूर्ण निधान को स्वीकार कर लें तो परिणामस्वरूप हृदय में संतुलन और मानसिक शान्ति प्राप्त होगी। इसकी प्रेरणा हम अपने आस पास प्रकृति से भी सीख सकते हैं।
फूलों को तुम हंसना देखो।
कांटों से उसका रिश्ता देखो।।
परहित जीवों से जीना सीखो।
भरे दरया भला कब नीर अपना खुद पिया करते हैं
नहीं वृक्ष फल खाते वह औरों को ही दिया करते हैं।
ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हम सभी के दिल में सभी प्राणियों के लिये दयाभाव रहे और दया के गुण में विश्वास बना रहे।
जो लोग अपने माता पिता की सेवा नहीं करते
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