अपमान
आज हम बात करने वाले हैं कि अपमान होने पर मानसिक शान्ति कैसे बनायें ?
संत कबीर ने प्राणीजात को सन्दश दिया है :-
मान दिया मन हरषिया, अपमाने तन छीन ।
कहै कबीर तब जानिये, माया में लवलीन ||
इस सांसारिक जीवन में हम देखते हैं कि जब किसी मनुष्य को मान अथवा सम्मान मिलता है तो उसे बहुत प्रसन्नता होती है। किन्तु जब व्यक्ति उसका अपमान करता है तो उसे बहुत दु:ख और अशान्ति का अनुभव होता है। सामान्य मनुष्य हमेशा मान अपमान के चक्रव्यूह में रहता है। यदि मान, प्रतिष्ठा मिलने की परिस्थिति हुई तो फूला नहीं समाता
और यदि किसी ने अनुचित व्यवहार से अपमान किया तो मन अशान्त और उदासीन सा हो जाता है। स्वाभाविक है कि मन में प्रश्न उठता है कि इस दुविधा के वश न होकर ऐसी स्थिति में मानसिक शान्ति कैसे बनाये रखें ?
मानव समाज के चार वर्ग
सर्वप्रथम, हम अपने मन में यह धारण करें कि जब वास्तव में हमारा कोई दोष ही नहीं किन्तु दूसरा व्यक्ति व्यर्थ में ही कटुभाषी है यानी कठोर भाषा का प्रयोग कर रहा है, अयोग्य और अनुचित शब्दों का प्रयोग कर रहा है, उसे हमारे विषय में गल्तफहमी या भ्रम है। गम्भीरता से विचार करें तो ऐसी परिस्थिति में हमें अशान्त होने का कोई कारण ही नहीं है, तो हम व्यर्थ में ही अपना समय नष्ट करके उस विषय की चिन्ता क्यों करते हैं।
अगर कोई आपके लिये अपशब्द कह रहा है यदि कोई निन्दा भी करे तो हम निःसंकल्प रहें, अपने आत्म विश्वास अपने सिद्धान्तों, अपने निश्चय पर अडिग रहें। हमसे भूल यही होती है कि हम अपने को, अपनी सत्ता को, इतना महत्त्व देने लगते हैं और चाहते हैं कि दूसरे उसकी प्रशंसा करें। जब इन्सान इस अभिमान के साथ दूसरों के शब्द जाल में फंसता है तो उसे अशान्ति का अनुभव होता है।
‘अहम् को जो तू भूला तो लगा लोगों का गोला’
ऐसी परिस्थिति में हम स्वयं पर संशय करके दु:खी होते है। और दूसरों की अनुचित कथनी और व्यवहार से अशान्त हो जाते हैं। मानना होगा, कि अज्ञानता वश गल्त शब्दों का प्रयोग करके आपका अपमान हो रहा है किन्तु क्या सोचना, क्योंकि आपकी इज्जत, आपका सम्मान सब आपके अपने हाथ में है, न कि किसी दूसरे के हाथ में।
यह निश्चित है कि दूसरों के अपमान से कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है जब आपका मन सत्य पर स्थित है तो आज हो या कल सत्य की सर्वदा विजय होती है वह दिन दूर नहीं होता जब वास्तविकता प्रत्यक्ष होकर रहती है। अपमान होने पर मानसिक शान्ति कैसे बनायें इसको कई उदाहरण से समझा जा सकता है
स्वाभिमान
इस बात का संशय नहीं कि इन्सान गल्तियों का पुतला है। हमसे गल्ती हो जाने पर यदि कोई हमारा निरादर और अपमान करता है तो सहनशीता से अपने हृदय में मलिनता न लाकर अपने अन्दर के उस अवगुण को मिटाने का प्रयत्न करें, तो आपके जीवन में अपमानित होने का महत्व ही नहीं रहेगा। उस अपमान से मन ही मन दु:खी होना बुद्धिमान् के लक्षण नहीं है।
‘आत्म अनुभव जब भयो, तब नहिं हर्ष विषाद । चित्र दीप सम है रहै तजकर वाद विवाद ||
कई बार ऐसी परिस्थिति भी होती है कि मनुष्य उपकार तो करता है। पर दुसरे उसे कुछ मूल्य नहीं देते, न आदर का पात्र बनाते हैं जिस पर कई लोग समझते हैं कि स्नेह भाव भी नहीं रखते, तो मन में विचार आते हैं कि यह व्यक्ति जिस पर मैंने सब कुछ न्यौछावर किया वह मेरा बिल्कुल भी सम्मान नहीं करता जिससे स्वाभाविक है कि मन अशान्ति और दुःखी होता है। ऐसी स्थिति में किसी से भी आशा रखना भी अशान्ति का मुख्य कारण बनता है।
अतः अपने मन को समझाना होगा कि ये परिस्थिति मेरे मन को उपराम रहने का, आसक्ति देने का, मोह माया के बन्धन से बचाने की शक्ति दे रही है। संसार में निरपेक्ष होकर कार्य-व्यवहार करते हुए मानसिक नाता न रखकर, हृदय को क्षमा, सहनशीलता जैसे दिव्य गुणों से सुरक्षित रखें, शीतल रहे, धैर्य्य, मधुर मुस्कान रक्खें। दूसरों से स्नेह और सम्मान का व्यवहार करके अपने मन पर विजय प्राप्त करें।
संत कबीर ने यह शिक्षा दो ही शब्दों में स्पष्ट कर दी है
कबीर अपने जीवते ये दो बातां धोय ।
मान बड़ाइ कारने अछता भूल न खोय।।
हे मानव अपने मन से मान और बड़ाई इन दो बुरी बातों को सर्वथा यानी हमेशा के लिए त्याग दो इनमे फंसकर मूल मानवता को नष्ट मत करो। अन्त में इतना ही कहूंगा कि
दिव्य मन उपहार मिला है, इसको कलुषित मत करना।
दीप बनो तुम ऐसे जग में, जो राह दिखलाने वाला हो।
सहनशीलता
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