वैदिक वर्ण-व्यवस्था : स्वरूप एवं प्रासंगिकता

वैदिक वर्ण-व्यवस्था : स्वरूप एवं प्रासंगिकता

वैदिक वर्ण-व्यवस्था  स्वरूप एवं प्रासंगिकता
वैदिक वर्ण-व्यवस्था स्वरूप एवं प्रासंगिकता

आज हम बात करने वाले हैं वैदिक वर्ण-व्यवस्था : स्वरूप एवं प्रासंगिकता के बारे में कहा हाता है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है। वेद ज्ञान में परम पिता परमात्मा ने सृष्टि के प्रारंभ में मनुष्य मात्र के लिए एक ऐसी अत्युत्कृष्ट आचार-संहिता का विधान किया है कि जिसका पालन करने से मनुष्य न केवल सच्चे अर्थों में मनुष्य ही बन सकता है, वरन् पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि भी कर सकता है।

‘मनुर्भव’ के आदेश का पालन करते हुए व्यक्ति प्रेय से श्रेय की ओर एवं अन्नमय कोश से आनन्दमय कोश की ओर प्रस्थान कर सकता है तथा अपनी साधना के बल पर जीवन के परम पुरुषार्थ-मोक्ष को प्राप्त कर, प्रभु की सन्निकटता में रहते हुए स्वच्छन्दतापूर्वक एक बहुत लम्बी अवधि तक विचरण कर सकता है।

यहाँ समझने की बात यह भी है कि व्यक्ति समाज की सबसे छोटी इकाई है, फिर परिवार, उसके बाद समूह या कबीले और सभी मानव-समूहों के मिलने से समाज या यों कहें कि मानव समाज की निर्मिति होती है। ‘समाज’ मानव समाज से भी व्यापक है पर सामान्यतः हम लोक-व्यवहार में ‘समाज’ शब्द का प्रयोग ‘मानव समाज’ के लिए ही करते है और इसमें प्राणिमात्र या वनस्पति-जगत् को समाविष्ट नहीं करते। यों, समाज में प्राणिमात्र एवं समस्त वनस्पति जगत् का भी समावेश है।

मानव समाज में समूह भावना के साथ पारस्परिक सद्भाव, सौहार्द एवं साहाय्य की भावना आवश्यक है; इसी से मानव जाति का उत्कर्ष एवं कल्याण संभव है। मनुष्य-मात्र प्रेय और श्रेय को प्राप्त कर सके, मानव-समाज अभ्युदय और निःश्रेयस् की सिद्धि कर सके,

समाज में रहने वाले सभी मनुष्यों में पारस्परिक सामंजस्य और सहयोग की भावना हो तथा वे सामाजिक कार्यों को मिल-जुल कर तथा अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार सम्पन्न कर सके, इसी दृष्टि से परमपिता परमात्मा ने मानव सृष्टि की रचना ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में की है। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में इसका स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार उल्लेख हुआ है।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।

गीता 4.13

अर्थात् ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है।’ गीता के उक्त श्लोक का मूलाधार वेदादि शास्त्र हैं। वेद के अनेक मन्त्रों एवं मनुस्मृति आदि आर्ष ग्रंथों में मनुष्यों के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार इस चातुर्वर्ण्य सृष्टि का उल्लेख तो हुआ ही है, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्त्तव्य-कर्मों का उल्लेख भी हुआ है। इस सन्दर्भ में यजुर्वेद का निम्नांकित मन्त्र सर्वाधिक प्रसिद्ध है।

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः ।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्धयाम् शूद्रो अजायत ।। –

यजुर्वेद 31.11

वेद के इस मन्त्र में ब्राह्मण, राजन्य (क्षत्रिय), वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का नामोल्लेख तो है ही, सांकेतिक रूप में उनके गुण-कर्मों का आख्यान भी है। वर्ण-व्यवस्था को जन्मना स्वीकार करने वाले पोंगा पंथी पौराणिक उक्त वेद मंत्र का यह भ्रामक शब्दार्थ कर सकते हैं कि ब्राह्मण ईश्वर के मुख, राजन्य (क्षत्रिय) बाहू. वैश्य ऊरू और शूद्र पदों से उत्पन्न हुआ है, किन्तु तत्त्वदर्शी विद्वानों को यह अर्थ कदापि मान्य नहीं हो सकता।

इस अर्थ को पूर्वपक्ष के रूप प्रस्तुत करते हुए उत्तर पक्ष में इस मन्त्र के वास्तविक अर्थ का रहस्योद्घाटन महर्षि दयानन्द ने इन शब्दों में किया है: “इस मन्त्र का अर्थ जो तुमने किया वह ठीक नहीं क्योंकि यहाँ पुरुष अर्थात् निराकार व्यापक परमात्मा की अनुवृत्ति है।

जब वह में निराकार है तो उसके मुखादि अंग नहीं हो सकते, जो मुखादि अङ्गवाला हो वह पुरुष अर्थात् व्यापक नहीं और जो व्यापक नहीं वह सर्वशक्तिमान् जगत् का स्रष्टा धर्त्ता, प्रलयकर्त्ता जीवों के पुण्य पापों की व्यवस्था करने हारा, सर्वज्ञ, अजन्मा, मृत्यु-रहित आदि विशेषण वाला नहीं हो सकता।

इसलिये इसका यह अर्थ है कि जो (अस्य) पूर्ण व्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुख्य उत्तम हो वह (ब्राह्मण:) ब्राह्मण (बाहू) ‘बाहुवै बलं बाहुर्वै वीर्यम्’ शतपथ ब्राह्मण।

बल वीर्य्य का नाम बाहू वह जिसमें अधिक हो सो (राजन्य) क्षत्रिय (ऊरू) कटि के अधो और जानु के उपरिस्थ भाग का नाम है जो सब पदार्थों और सब देशों में ऊरू के बल से जावे आवे प्रवेश करे वह (वैश्यः) वैश्य और (पद्भ्याम्) जो पग के अर्थात् नीच अंग के सदृश मूर्खत्वादि गुणवाला हो वह शूद्र है। अन्यत्र शतपथ ब्राह्मणादि में भी इस मन्त्र का ऐसा ही अर्थ किया है। जैसे-

‘यस्मादेते मुख्यास्तस्मान्मुखतो ह्यसृजन्ता’ इत्यादि । जिससे ये मुख्य हैं इससे मुख से उत्पन्न हुए ऐसा कथन संगत होता है। अर्थात् जैसा मुख सब अंगों में श्रेष्ठ है वैसे पूर्ण विद्या और उत्तम गुण कर्म स्वभाव से युक्त होने से मनुष्य जाति में उत्तम ब्राह्मण कहाता है। वेदाश्रित वर्ण-व्यवस्था को स्वामी जी ने उत्तर पक्ष में नितान्त स्पष्ट कर दिया है।

वर्ण-व्यवस्था से सम्बद्ध यजुर्वेद के ‘ब्राह्मणोऽस्य मुखमा- सीदू 2 मन्त्र के अर्थ को और स्पष्ट शब्दों में यों भी समझ सकते हैं : जैसे शरीर में मुख उत्तम है, श्रेष्ठ है, वैसे ही सर्वव्यापक ईश्वर की इस सृष्टि में जो मनुष्य वेदादि शास्त्रों एवं ब्रह्मविद्या का ज्ञाता है. वह उत्तम ब्राह्मण वर्ण का है । बाहुओं के समान जिसमें बल और वीर्य है अर्थात् जो धीर-वीर और पराक्रमी है, वह क्षत्रिय वर्ण का है।

जिस मनुष्य में सब देशों में आने-जाने की सामर्थ्य हो और जो नानाविध भोज्य, पेय आदि पदार्थों को अपने यहाँ एकत्र कर अन्यत्र ले जा सकता है, वह वैश्य वर्ण का है और जो मनुष्य पैरों के सदृश शक्तिशाली हो तथा शारीरिक सामर्थ्य की दृष्टि से कठिन से कठिन कार्य सम्पन्न कर सकता हो, वह शूद्र वर्ण का है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि यह वैदिक वर्ण व्यवस्था जन्म से नहीं, कर्म से संचालित थी। इस वर्ण व्यस्था में सभी वर्णों का अपने-अपने स्थान पर महत्त्व था और किसी वर्ण को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता था। ये चारों वर्ण आर्य कहलाते थे और सामाजिक कार्यों के सम्यक् संचालन में इनमें से प्रत्येक का अपना-अपना योगदान था-अपना-अपना कार्यक्षेत्र था।

मनु महाराज ने भी ‘मनुस्मृति’ में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों का उल्लेख करते हुए विद्याध्ययन/उपनयन संस्कार के द्वारा द्वितीय जन्म को प्राप्त करने वाले ब्राह्मण. क्षत्रिय और वैश्य को द्विज की संज्ञा दी हैं तथा विद्याध्ययन के अभाव से द्वितीय जन्म को प्राप्त न कर माता-पिता के गर्भ से जन्म लेने वाले एक जन्मीय व्यक्तियों को शूद्र कहा है। मनु की मान्यता है कि इन चार वर्णों के अतिरिक्त कोई और पाँचवाँ वर्ण नहीं है। इस सन्दर्भ में उनका सुप्रसिद्ध श्लोक निम्नस्थ है।

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः ।

चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः ॥

-मनुस्मृति 10.4 (9)

यहाँ ध्यातव्य यह भी है कि जन्म से तो सभी बालक शूद्र ही होते हैं, किन्तु उपनयन के उपरान्त विद्याध्ययन एवं गुरु प्रदत्त संस्कारों से द्विज बन जाते हैं, द्विज बन सकते हैं: ‘जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते।” इससे यह भी स्पष्ट है कि यदि कोई शूद्र विद्याध्ययन का पुरुषार्थ करे और संस्कारवान बन जाए तो वह भी द्विज पद का अधिकारी हो सकता है, क्योंकि वैदिक वर्ण-व्यवस्था जन्म पर नहीं, कर्म पर आधारित है।

वेद-यजुर्वेद, मनुस्मृति, गीता आदि के अतिरिक्त अन्य अनेक ग्रंथों के शास्त्रीय प्रमाण भी यह सिद्ध करने के लिए देखे जा सकते हैं कि वैदिक समाज-व्यवस्था चार वर्णों को मान्यता देती थी, कि वैदिक ऋषियों की सामाजिक चेतना वर्णाश्रम धर्म पर आधारित थी और यह भी कि वैदिक समाज-विज्ञान के केन्द्र में वर्णाश्रम धर्म और षोड्श संस्कार थे।

चार वर्णों के प्रमाण जहाँ यजुर्वेद के अलावा अन्य वेदों से जुटाए जा सकते हैं, वहाँ निरुक्त, शतपथ ब्राह्मण’, मैत्रायणी संहिता’ आदि एवं ऋषिवर दयानन्द के विभिन्न ग्रंथों में भी देखे जा सकते हैं। समग्र समाज ‘आर्य’ और और ‘अनार्य’ इन दो वर्गों में विभाजित था। चारों वर्ण ‘आर्य’ वर्ग में परिगणित होते थे, किन्तु दस्यु, निषाद, असुर, राक्षस आदि ‘अनार्य’ वर्ग में आते थे।

इन सभी अनार्यों के लिए मनुस्मृतिकार ने ‘दस्यवः’ बहुवचन का प्रयोग किया है। मनु महाराज के अनुसार लोक में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों से बहिष्कृत जो जातियाँ हैं, वे चाहे म्लेच्छ भाषाएँ बोलती हों या आर्य भाषाएँ-वे सब ‘दस्यु‘ ही कहलाती हैं। महर्षि मनु का एतद्विषयक श्लोक निम्नांकित है-

मुखबाहूरूपज्जानां या लोके जातयो बहिः ।

म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः ॥ ‘

– मनुस्मृति 10.45 (10)

दस्यु कहलाने वाली उक्त जातियों के चतुर्वर्ण बहिष्कार या इनमें अदीक्षित रह जाने का प्रमुख कारण इनका अधर्माचरण है, मनुष्यों के लिए विहित वेदानुकूल श्रेष्ठ कर्त्तव्यों का पालन न करना है। ‘आर्य’ का अर्थ है श्रेष्ठ और ‘दस्यु’ का अश्रेष्ठ।’ ‘आर्य’ को ईश्वर पुत्र भी कहा गया है। आर्यत्व और अनार्यत्व को ध्यान में रखकर वेदादि शास्त्रों में मनुष्यों को दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया है-‘आर्य‘ और ‘दस्यु‘।

जहाँ वेद-विहित श्रेष्ठ कर्त्तव्य-कर्मों को करने वाले ईश्वर-पुत्र को आर्य कहा गया, वहाँ वर्णों की दीक्षा से रहित अथवा वर्णों से बहिष्कृत, आर्यत्व का आडम्बर करने वाले अनार्य, अश्रेष्ठ (दुष्ट) कर्मों को करने वाले असंस्कारी व्यक्ति को तथा अश्रेष्ठ, निष्ठुर, क्रूर व्यवहार के करने वाले और धार्मिक कृत्यों के प्रति निष्क्रियता या उपेक्षा भाव रखने वाले व्यक्ति को ‘कलुषयोनिज’ अर्थात् ‘दस्यु’ कहा गया।’

‘आर्य’ और ‘दस्यु’ मनुष्य के इन दो वर्गों को सरलतम शब्दों में देव दयानन्द ने इन शब्दों में परिभाषित किया है: “आर्य्य नाम उत्तम पुरुषों का है और आय्यों से भिन्न मनुष्यों का नाम दस्यु है।” प्रो० (डॉ०) सुरेन्द्र कुमार के शब्दों में, ” धर्म का पालन न करके अधर्माचरण करने वाले चारों वर्णों से अवशिष्ट सभी लोग दस्यु ।

दस्यु शब्द का अर्थ और व्युत्पत्ति भी इनके इसी आचरण पर प्रकाश डालते हैं- ‘दसु-उपक्षये’ धातु से ‘यजिमनिशुन्धिदसिजनिभ्यो युज्’ (उणादि 3.20) से युज् प्रत्यय के योग से ‘दस्यु’ शब्द बनता है। निरुक्त 7.23 में इसकी व्युत्पत्ति है- ‘दस्यु दस्यतेः क्षयार्थात् उपदासयति कर्माणि ‘ = दस्यु वह है जो शुभकर्मों से क्षीण है या शुभकर्मों में बाधा डालता है।”” ‘दस्यु’ को ‘अनार्य’ भी कह सकते हैं।

निष्कर्ष यह है कि वैदिक साहित्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-ये चारों वर्ण ‘आर्य’ हैं और ये अपने-अपने वेद-विहित श्रेष्ठ कर्मों में लीन रहते हैं तथा इनसे इतर वे मनुष्य जो वेद-विहित धर्माचरण नहीं करते एवं अश्रेष्ठ कर्मों को करते रहते हैं, ‘अनार्य’ या दस्यु हैं। चतुर्वर्ण के कर्त्तव्य-कर्म समाज में रहने वाले व्यक्तियों की योग्यता, गुण-कर्म और स्वभाव में अन्तर होता है।

व्यक्तियों के कार्य का विभाजन उनकी योग्यता के अनुसार होता है-अपने गुण कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को कोई कार्यभार सौंपा जाता है और व्यक्ति उसका अधिकारी बनता है। सामाजिक व्यवस्था के सुयोग्य संचालन के लिए व्यक्तियों की योग्यता को पहचान कर तदनुसार कार्य विभाजन आवश्यक है। सृष्टि के आदि से लेकर अद्यावधि यह क्रम किसी-न-किसी रूप में चल रहा है।

अपनों के प्रति अपनी बात

वैदिक समाज-विज्ञान भी इसका साक्षी है। सृष्टि के प्रारम्भ में परमपिता परमेश्वर ने समस्त विश्व की सुरक्षा, सुव्यवस्था एवं सम्यक् समृद्धि के लिए मुख, बाहु, ऊरु और पद की तुलना से निर्मित ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के पृथक्-पृथक् कर्म प्रकल्पित किये।‘ प्रसंग से प्राप्त इन चार वर्णों के, वैदिक ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट, कर्त्तव्य-कर्मों का उल्लेख किया जा रहा है।

ब्राह्मण के कर्त्तव्य-कर्म वेद में ब्राह्मण की तुलना शरीर के ऊर्ध्वस्थ, पवित्रतम शिरोभाग मुख से की की गयी है, अतः ब्राह्मण को ऊर्ध्वरेतस् होना चाहिए तथा अपनी विद्वत्ता, जितेन्द्रियता, सत्यवादिता, तपस्या आदि गुणों से समाज में मुख्यता संपादित करनी चाहिए। ब्राह्मण शब्द ‘ब्रह्म’ प्रातिपदिक से ‘तदधीते तद्वेद’ (अष्टाध्यायी, 4.2.59 ) अर्थ में ‘अण्’ प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है।

स्पष्टतः ब्रह्म की उपासना में तल्लीन, वेदादि शास्त्रों में पारंगत अधीत विद्वान् ही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी हो सकता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में ब्राह्मण को यज्ञकर्त्ता, श्रेष्ठ व्रतों को धारण करने वाला, सत्यवादी’, गायत्र’ बतलाया गया है और गायत्र का अर्थ है यज्ञ’ एवं बृहस्पति’ अर्थात् परमात्मा। आशय यह कि ब्राह्मण को वेद, यज्ञ और परमतत्त्व का ज्ञाता होना चाहिए। उसका आचरण वेदानुकूल एवं जीवन यज्ञमय होना चाहिए तथा अपनी साधना के बल पर उसे जीवन के परम पुरुषार्थ मोक्ष को प्राप्त करने का यत्न करना चाहिए।

वेद के संकेत एवं वैदिक ऋषियों के उक्त वचनों के आधार पर मनु महाराज ने ब्राह्मणों के जो छः कर्म निर्धारित किये हैं, वे हैं-पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना – कराना तथा दान देना और लेना।’ अध्ययन-अध्यापन का निहितार्थ वेदादि शास्त्रों से है। दान देने को पहले और लेने को बाद में रखने का निहितार्थ यही है कि दान देना ही उत्तम कर्म है, दान अत्यधिक विवशता की स्थिति में ही लेना चाहिए,

क्योंकि ‘जो दान लेना है वह नीच कर्म है। किन्तु पढ़ाकर और यज्ञ कराकर जीविका करनी उत्तम है। महर्षि के इस सिद्धान्त को भूल कर आज के वे विद्वान् (ब्राह्मण) भी खूब दान-दक्षिणा ले रहे हैं जिनकी कोई विवशता नहीं है। यह प्रवृत्ति पोंगापन्थी पौराणिक पण्डितों में ही नहीं, कतिपय वैदिक विद्वानों (ब्राह्मणों) में भी परिलक्षित की जा सकती है, जो निश्चय ही चिन्त्य है।

‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के द्वारा विभक्त करते हुए ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्त्तव्य कर्मों एवं गुणों का उल्लेख इन शब्दों में किया गया है-

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥

18.42

अर्थात् ‘अन्तःकरण का निग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना, धर्म पालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना; वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना; वेद शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना-ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।

” द्रष्टव्य यह है कि गीता के इस श्लोक में ‘दान देना या दान लेना’ को ब्राह्मण के कर्त्तव्य-कर्मों में कोई स्थान नहीं दिया गया है, किन्तु मनु-द्वारा उल्लिखित धर्म के दशलक्षणों में से कुछ को या महर्षि पतंजलि के योगदर्शन’ में उल्लिखित यमनियमादि में से कुछ को समाविष्ट कर लिया गया है।

महाभारत’, शुक्रनीतिसार’, वशिष्ठ स्मृति’ आदि में भी ब्राह्मण के गुण धर्मों एवं कर्त्तव्य-कर्मों का उल्लेख हुआ है। निष्कर्षतः ब्रह्मविद्या को जानने वाला, जितेन्द्रिय, त्यागी-तपस्वी-निर्लोभी- वीतरागी, वेद-विहित कर्मों को करने वाला ब्राह्मण राष्ट्र का दिशा-निर्देशक, राष्ट्र का निर्माता और समाज का मेरुदण्ड है। वैदिक वर्ण-व्यवस्था में उसका स्थान शीर्षस्थ है, सर्वोपरि है।

क्षत्रिय के कर्त्तव्य-कर्म वैदिक समाज-व्यवस्था में क्षत्रिय का विशिष्ट स्थान है। राष्ट्र की रक्षा, दुष्टों के दलन तथा प्रजा के पालन का दायित्व इन्हीं के सबल कंधों पर डाला गया है, अतः इस वर्ण के व्यक्तियों का संयमी एवं आत्म निग्रही होना परमावश्यक है। ‘बाहू’ से तुलनीय क्षत्रिय (राजन्य) की भुजाओं में अपार बल तो होना ही चाहिए, किन्तु वह बल पर पीड़न के लिए नहीं, अपितु रक्षा के लिए होना चाहिए।

क्षत्रियों को ‘बाहुभ्याम् यशोबलम्’ को जीवन में चरितार्थ करना है, क्योंकि इसी में उनके जीवन की सार्थकता है। सत्य, न्याय और धर्म के रक्षार्थ बल-प्रयोग एवं राष्ट्र की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग में ही क्षत्रिय वर्ण की यशस्विता निहित है। क्षत्रिय का सर्वप्रमुख गुणधर्म प्रजा की, राष्ट्र की, सत्य-न्याय धर्मादि की रक्षा का है और यह अर्थ ‘क्षत्रिय’ शब्द के व्युत्पत्यर्थ में भी सन्निहित है।

मर्हिष मनु ने संक्षेप में ‘क्षत्रिय’ के जिन कर्त्तव्य-कर्मों का उल्लेख किया है, वे हैं प्रजा का रक्षण, दान, यज्ञ, अध्ययन तथा विषयों में अनासक्ति-

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।

विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः ॥

– मनुस्मति 1.89

‘मनुस्मृति’ के उपरिलिखित श्लोक का अर्थ ऋषिवर दयानन्द ने इन शब्दों में किया है: “न्याय से प्रजा की रक्षा अर्थात् पक्षपात छोड़ के श्रेष्ठों का सत्कार और दुष्टों का तिरस्कार करना सब प्रकार से सब का पालन (दान) विद्या, धर्म की प्रवृत्ति और सुपात्रों की सेवा में धनादि पदार्थों का व्यय करना (इज्या) अग्निहोत्रादि यज्ञ करना वा कराना (अध्ययन) वेदादि शास्त्रों का पढ़ना तथा पढ़ाना और विषयों में न फँस कर जितेन्द्रिय रह के सदा शरीर और आत्मा से बलवान् रहना।

” स्पष्टतः देव दयानन्द ने श्लोक के शब्दार्थ से आगे बढ़कर उसके मर्म को उद्घाटित कर दिया है। मनु महाराज ने ‘मनुस्मति’ के सप्तम अध्याय में विस्तारपूर्वक क्षत्रिय के गुण-धर्मों एवं कर्त्तव्य-कर्मों की चर्चा की है।

वैदिक वर्ण-व्यवस्था  स्वरूप एवं प्रासंगिकता
वैदिक वर्ण-व्यवस्था स्वरूप एवं प्रासंगिकता

‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में क्षत्रिय के जिन स्वाभाविक कर्मों का उल्लेख है वे हैं: शूरवीरता, तेजस्विता, धैर्य, चातुर्य या बुद्धिमत्ता, युद्ध में पीठ न दिखाना, दान देना और ईश्वरभाव।’ ऋषि के अनुसार ईश्वर भाव का अर्थ है, “पक्षपातरहित होके सबके साथ यथायोग्य वर्त्तना, विचारके देवे, प्रतिज्ञा पूरा करना, उसको कभी भंग होने न देना।” यजुर्वेद, 23.40 के भावार्थ में स्वामी दयानन्दः सरस्वती ने क्षत्रिय को प्रजा का रक्षक माना है।

अथर्ववेद में यह कहा गया है कि ब्रह्मचर्य और तप के द्वारा राजा राष्ट्र की रक्षा करता है। महाभारत ने भी क्षत्रिय के कर्त्तव्यों का यथा-प्रसंग उल्लेख किया है।’ इन सभी शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर निष्कर्षरूप से यह कहा जा सकता है कि जिस व्यक्ति में स्वाभाविक शूरवीरता, निष्पक्षता, प्रजा-रक्षण की भावना, दानशीलता, वेदादि शास्त्रों के अध्ययन में रुचि, यज्ञीय भावना जितेन्द्रियता एवं दुष्टों पर प्रहार करने की सामर्थ्य होती है, वह क्षत्रिय वर्ण का होता है।

इस वर्ण के व्यक्ति राज-कार्य में दक्ष होते हैं तथा राष्ट्र रक्षा का कार्य इन्हीं को सौंपा जाता वैश्य के कर्त्तव्य-कर्म मध्यम गुणों से युक्त ऐसा व्यक्ति जो कृषि कार्य, पशुपालन, व्यापार आदि में दक्ष हो, विभिन्न देशों में आने-जाने की सामर्थ्य रखता हो, देश-विदेश की भाषाएँ जानता हो एवं वेदाध्ययन करता हो, वैश्य वर्ण का है। यजुर्वेद में जहाँ वैश्य की तुलना ‘ऊरू’ ( उरू तदस्य यद् वैश्यः ‘ ) से की गयी है, वहाँ अथर्ववेद में शरीर के ‘मध्य’ भाग से ( मध्यम तदस्य यद् वैश्य: 2 ) ।

ये दोनों मन्त्र- भाग एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक हैं और उनसे वैश्य वर्ण की पृथक् पृथक् विशेषताएँ उद्घाटित होती हैं अर्थात् एक-दूसरे के अनुपूरक गुण-कर्म प्रकाशित होते हैं। इन दोनों मन्त्रांशों की संगति पं. रघुन्दन शर्मा के शब्दों में इस प्रकार है: “वैश्य दो काम करता है-एक तो इधर-उधर आता-जाता है, दूसरे पदार्थों को यथायोग्य आवश्यकतानुसार पहुँचाता है।

यदि वैश्य केवल इधर-उधर दौड़ता ही है और पदार्थों को साथ नहीं ले जाता तो उसका दौड़ना व्यर्थ है। ऊपर जो यजुर्वेद का पाठ दिया गया है उसमें वैश्य के लिए ऊरू पद आया है। ऊरू शब्द जाँघों का वाचक है। जाँघों के ही बल से मनुष्य इधर का उधर जाता है, परन्तु आवश्यकतानुसार कुछ लेकर ही इधर-उधर जाता है यह बात केवल जाँघों से सूचित नहीं होती, क्योंकि जाँघों में यथायोग्य ले जाने वाले भाव का दिखाने वाला कोई पदार्थ नहीं है।

अथर्ववेद में ‘मध्यं तदस्य यद् वैश्यः’ कहा गया है। शरीर का मध्य पेट है। पेट में आवश्यकतानुसार यथायोग्य पदार्थ पहुँचाने की योग्यता है। वही शरीर में यथायोग्य पोषण पहुँचाता है, इसलिए यजुर्वेद ऊरू के द्वारा वैश्य का गमनागमन बतलाता है और अथर्ववेद मध्यं शब्द के द्वारा आवश्यकतानुसार पदार्थों को पहुँचाना बतलाता है।

दान देना सीखो दान न देने वाला भी पापी ही होता है 

” इस प्रकार ‘ऊरू’ और ‘मध्य’ शब्द वैश्य वर्ण के देश-देशान्तरों में आवागमन तथा कृषि कर्म, व्यापारादि के द्वारा समाज के सभी मनुष्यों के भरण-पोषण एवं अन्यान्य आवश्यकताओं की पूर्ति को संकेतित करते हैं। वेद के उपरिलिखित मन्त्रांशों से प्रेरणा ग्रहण कर मन्त्रार्थ का दर्शन कर महर्षि मनु ने ‘मनु स्मति’ में वैश्य वर्ण के गुण-कर्मों का निर्वचन इस प्रकार किया है।

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।

वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृतिमेव च ॥

– 1.90; विशुद्ध मनुस्मृति, पृ. 57

अर्थात् पशुरक्षा, दान, यज्ञ, अध्ययन, व्यापार, धर्मानुसार ब्याज पर धन देना लेना एवं खेतीबाड़ी करना-ये वैश्य के कर्म हैं। गीता में भी वैश्य वर्ण के लगभग इन्हीं स्वाभाविक कर्मों का उल्लेख हुआ है।’ संक्षेप में वैश्य वर्ण समाज-पुरुष का ऊरू प्रदेश एवं मध्य भाग है।

शूद्र के कर्त्तव्य-कर्म

वैदिक समाज-दर्शन के अनुसार समाज का चौथा वर्ण है शूद्र । वैदिक काल में समाज के किसी भी वर्ण को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता था। योग्यता और गुण-कर्म-स्वभावादि के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का वर्ण निर्धारित किया जाता था या व्यक्ति स्वयं अपने वर्ण का वरण करता था एवं वर्ण-व्यवस्था के अनुसार अपने कर्तव्य कर्मों का सम्यक् निर्वाह करता था।

अन्य वर्णों के समान शूद्र वर्ण का भी मानव समाज में सम्मानजनक स्थान था। जैसे शरीर में प्रत्येक अंग का अपना महत्त्व और स्थान है, वैसे ही वैदिक ऋषियों की दृष्टि में प्रत्येक वर्ण का अपना-अपना महत्त्व और स्थान था। मानव शरीर में जैसे मुख, भुजाओं, मध्यभाग और जंघाओं का महत्त्व है, वैसे ही पैरों का भी है-‘ को बड़-छोट कहत अपराधू ।

‘ यथार्थ दृष्टि से देखा जाए तो पैर ही सारे शरीर का भार वहन करते हैं। यदि पैर काम करना छोड़ दें तो भी शरीरांगों की सक्रियता पर बुरा असर पड़ता है। ‘पद्’ (पग) से तुलनीय शूद्रवर्ण अपने सेवा भाव से समग्र समाज की सक्रियता में निःसन्देह महनीय योगदान करता है और श्रम-तप से जुड़ जाता है।

‘मनुस्मृति” एवं ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के अनुसार अन्य वर्णों की सेवा करना ही शूद्र का एकमात्र कर्त्तव्य है। उसे यह सेवा निन्दारहित होकर प्रेमपूर्वक करनी चाहिए। सेवा के लिए कठोर परिश्रम की आवश्यकता होती है, अतः ‘जो व्यक्ति कठिनतम कार्य का साधक, परिश्रमी, साहसी, तपस्वी, परमोद्योगी, शुद्ध, पवित्र, अहंकार-रहित एवं मधुर-भाषी है तथा जो दूसरों के क्लेशों को देखकर, द्रवीभूत हो जाता है, ऐसा व्यक्ति शूद्रवर्णी है।

वैदिक साहित्य में शूद्र के प्रति न तो कहीं घृणास्पद धारणा दृष्टिगत होती है, न उसे कहीं अस्पृश्य या हीन ही माना गया है। मनु ने जहाँ शूद्र के कर्त्तव्य-कर्मों का कुछ और विस्तार से वर्णन किया है, उन श्लोकों पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि मनु महाराज न तो शूद्रों को हेय दृष्टि से देखते हैं, न शूद्र वर्ण की व्यवस्था को जन्मना मानते हैं। शूद्रों के अस्पृश्य मानने, हेय दृष्टि से देखने या घृणास्पद मानने की असंगत परम्परा परवर्ती काल की देन है।

उसके लिए मनु को दोषी ठहराना भ्रामक दृष्टि और अज्ञान का परिचायक है। आज के कुछ नामी-गिरामी नेता ‘मनुवादी व्यवस्था’, ‘मनुवादी व्यवस्था’ का उद्घोष करते हुए यदि महर्षि मनु को बदनाम करने की चेष्टा करते हैं तो यह उनका अज्ञान ही है। वैदिक ऋषियों ने तो सभी मनुष्यों को समान माना है-प्राणिमात्र में उस सर्वव्यापक ईश्वर के दर्शन किये हैं।

अन्य वर्णों के समान परम पिता परमामा की पवित्र वाणी-वेद ने शूद्र को भी वेदाध्ययन का अधिकार दिया है। ‘स्त्रीशूद्रांनाधीय- तामिति श्रुतेः’ की पण्डितों की कपोल-कल्पना का खण्डन करते हुए महर्षि दयानन्द ने स्पष्ट शब्दों में यह लिखा है कि ‘सब स्त्री और पुरुष अर्थात् मनुष्य मात्र को पढ़ने का अधिकार है और सब मनुष्यों के वेदादि शास्त्र पढ़ने सुनने के प्रमाण” रूप में यजुर्वेद के छब्बीसवें अध्याय के निम्नांकित मन्त्र को उद्धृत किया है। यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः ।

ब्रह्मराजन्याभ्याम् शूद्राय चार्य्याय च स्वाय चारणाय च ॥

– यजु० 26.2

उक्त मन्त्र में ईश्वर कहता है कि जैसे मैंने ब्राह्मण, क्षत्रिय. शूद्रादि आर्यों व सेवक और चारण के लिए भी कल्याणकारिणी वेदवाणी का उपदेश किया है, वैसे ही तुम सब वर्णों वाले मनुष्य भी किया करो। निष्कर्ष यह कि वेद में, विशेषकर इस मन्त्र में शूद्रों को वेद पढ़ने का स्पष्ट निर्देश दिया गया है। वेदाध्ययन के ही समान शूद्र को यज्ञ करने का अधिकार भी वेद के अनेक मन्त्रों में दिया गया है। ऋग्वेद में परम पिता परमात्मा का स्पष्ट आदेश है-

(क) पञ्चजना मम होत्रं जुषन्तां गोजाता उत ये यज्ञियासः।। ऋग्वेद 10.53.5

(ख) ऊर्जादः उत यज्ञियासः पञ्चजना मम होत्रं जुषध्वम्। -ऋग्वेद, 10.53.4

‘पञ्चजना:’ में चार वर्णो-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तथा निषाद का परिगणन है और इन पाँचों को बिना किसी भेदभाव के यज्ञ करने का आदेश दिया गया है. क्योंकि ईश्वर पक्षपाती नहीं है। शूद्र की प्रशंसा तो ‘तपसे शूद्रम्”, “शुचा शोकेन द्रवतीति शूद्रः’ आदि वचनों में भी देखी जा सकती है। वैदिक वर्ण-व्यवस्था जन्मना नहीं, कर्मणा वैदिक वर्ण-व्यवस्था जन्म से नहीं, कर्म से सम्बद्ध थी और योग्यता, गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार वर्ण-परिवर्तन संभव था।

किसी एक वर्ण का व्यक्ति अपने गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार किसी अन्य वर्ण का वरण कर सकता था (वर्णो वृणोते 🙂 अथवा गुरुजन उसकी योग्यता के अनुरूप उसके वर्ण का निर्धारण करते थे। मनु ने अपनी ‘स्मृति’ में स्पष्ट लिखा है कि उत्तम-अनुत्तम कर्मों के अनुसार शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्यों का भी कर्मानुसार वर्ण-परिवर्तन हो जाता है-वे भी अपने-अपने गुण-कर्मानुसार अपने से उच्च या निम्न वर्ण को प्राप्त हो जाते हैं:

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्। क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च ॥

मनुस्मृति 10.65

प्राचीन काल में कर्मणा वर्ण-परिवर्तन के अनेक उदाहरण मिलते हैं। दासी पुत्र ऐतरेय ने ऐतरेय ब्राह्मण, ऐतरेय उपनिषद् जैसे श्रेष्ठ वैदिक ग्रंथों की रचना कर ऋषित्व को प्राप्त किया। अपने पूर्व जीवन में दुराचारी दासी पुत्र कवष-ऐलूष भी अपने शुभ कर्मों एवं विद्वत्ता के बल पर कालान्तर में ऋषित्व को प्राप्त हुए तथा ऋषियों ने इनके आचार्यत्व में यज्ञ किया। वेश्यापुत्र सत्यकाम जाबाल ने अपनी सत्यनिष्ठा के बल पर आचार्य गौतम का मन जीत लिया और उन्होंने उसे उपनयन का अधिकारी समझा।

चाण्डाल कुलोत्पन्न मातंग कर्मबल से न केवल ब्राह्मण वर्णस्थ हुए, वरन् उन्होंने ऋषित्व को भी प्राप्त किया। इस संदर्भ में वेदव्यास, वसिष्ठ, विश्वामित्र, पाराशर आदि के उदाहरण भी देखे जा सकते हैं इन सभी ने अपने गुण-कर्म-स्वभाव और योग्यता के बल पर न केवल ब्राह्मणत्व को वरन् ऋषित्व को भी प्राप्त किया। इन उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि प्राचीन कालीन वैदिक वर्ण-व्यवस्था जन्म से नहीं, अपितु कर्म से थी और यह बहुत समय तक समाज में प्रचलित थी।

देवभाव

वैदिक वर्ण-व्यवस्था में पारस्परिक प्रेम और सद्भाव का महत्त्व समाज द्रष्टा ऋषियों ने सामाजिक उत्कर्ष एवं राष्ट्र हित की भावना से समाज को भले ही चार वर्णों में विभाजित किया हो. किन्तु उनकी दृष्टि में मानव-जाति तो एक ही है, अतः अनेक वैदिक मन्त्रों में पारस्परिक प्रेम और सद्भाव की याचना की गयी है।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के साथ प्रेम करने की यह भावना और प्रत्येक वर्ण के व्यक्तियों की अन्यान्य वर्ण के व्यक्तियों में प्रिय बनने की यह वैदिक भावना यदि हम सब के भीतर आ जाए, तो यह संसार वास्तव में स्वर्ग बन जाए तथा मानव समाज पारस्परिक हिंसा, उग्रता, द्वेष, ऊँच-नीच के भेदभाव और छुआछूत से मुक्त हो जाए।

वैदिक ऋषियों के समाज-दर्शन और कर्माधारित वर्ण-व्यवस्था को यदि मानव-समाज पूरी तरह आत्मसात् कर ले तो यह न केवल साम्प्रदायिक एवं जाति प्रथा के अभिशापों से ही मुक्त हो जाए, वरन् ‘कृण्वन्तोविश्वमार्यम्’ के स्वप्न को साकार कर पुरुषार्थचतुष्टय की प्राप्ति की ओर भी उन्मुख हो जाए एवं विश्व शांति की समस्या का भी समाधान हो जाए।

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